1 कोरिंथ 7:36-40, 1 कोरिंथ 8:1-13 HCV

1 कोरिंथ 7:36-40

यदि किसी को यह लगे कि वह अपनी पुत्री के विवाह में देरी करने के द्वारा उसके साथ अन्याय कर रहा है, क्योंकि उसकी आयु ढल रही है, वह वही करे, जो वह सही समझता है, वह उसे विवाह करने दे. यह कोई पाप नहीं है. किंतु वह, जो बिना किसी बाधा के दृढ़ संकल्प है, अपनी इच्छा अनुसार निर्णय लेने की स्थिति में है तथा जिसने अपनी पुत्री का विवाह न करने का निश्चय कर लिया है, उसका निर्णय सही है. इसलिये जो अपनी पुत्री का विवाह करता है, उसका निर्णय भी सही है तथा जो उसका विवाह न कराने का निश्चय करता है, वह और भी सही है.

पत्नी तब तक पति से जुड़ी रहती है, जब तक पति जीवित है. यदि पति की मृत्यु हो जाए तो वह अपनी इच्छा के अनुसार विवाह करने के लिए स्वतंत्र है—किंतु ज़रूरी यह है कि वह पुरुष भी प्रभु में विश्वासी ही हो. मेरा व्यक्तिगत मत यह है कि वह स्त्री उसी स्थिति में बनी रहे, जिसमें वह इस समय है. वह इसी स्थिति में सुखी रहेगी. मुझे विश्वास है कि मुझमें भी परमेश्वर का आत्मा वास करता है.

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1 कोरिंथ 8:1-13

सामान्य सिद्धांत

अब मूर्तियों को चढ़ाई हुई वस्तुओं के संबंध में: हम जानते हैं कि हम सब ज्ञानी हैं. वास्तव में तो ज्ञान हमें घमंडी बनाता है जबकि प्रेम हमें उन्‍नत करता है. यदि कोई यह समझता है कि वह ज्ञानवान है तो वास्तव में वह अब तक वैसा ज्ञान ही नहीं पाया, जैसा जानना उसके लिए ज़रूरी है. वह, जो परमेश्वर से प्रेम करता है, परमेश्वर का परिचित हो जाता है.

जहां तक मूर्तियों को चढ़ाई हुई वस्तुओं को खाने का प्रश्न है, हम इस बात को भली-भांति जानते हैं कि सारे संसार में कहीं भी मूर्तियों में परमेश्वर नहीं है तथा एक के अतिरिक्त और कोई परमेश्वर नहीं है. यद्यपि आकाश और पृथ्वी पर अनेक तथाकथित देवता हैं, जैसे कि अनेक देवता और अनेक प्रभु भी हैं किंतु हमारे लिए तो परमेश्वर मात्र एक ही हैं—वह पिता—जिनमें हम सब सृष्ट हैं, और हम उसी के लिए हैं. प्रभु एक ही हैं—मसीह येशु—इन्हीं के द्वारा सब कुछ है, इन्हीं के द्वारा हम हैं.

किंतु सभी को यह बात मालूम नहीं हैं. कुछ व्यक्ति ऐसे हैं, जो अब तक मूर्तियों से जुड़े हैं तथा वे उस भोजन को मूर्तियों को भेंट किया हुआ भोजन मानते हुए खाते हैं. उनका कमजोर विवेक अशुद्ध हो गया है. हमें परमेश्वर के पास ले जाने में भोजन का कोई योगदान नहीं होता—भोजन से न तो कोई हानि संभव है और न ही कोई लाभ.

किंतु सावधान रहना कि तुम्हारी यह स्वतंत्रता निर्बलों के लिए ठोकर का कारण न बने. यदि किसी का विवेक कमजोर है और वह तुम जैसे ज्ञानी व्यक्ति को मूर्ति के मंदिर में भोजन करते देख ले तो क्या उसे भी मूर्ति को चढ़ाई हुई वस्तुएं खाने का साहस न मिलेगा? इसमें तुम्हारा ज्ञानी होना उसके विनाश का कारण हो गया, जिसके लिए मसीह येशु ने प्राण दिया. इस प्रकार विश्वासियों के विरुद्ध पाप करने तथा उनके विवेक को, जो कमजोर हैं, चोट पहुंचाने के द्वारा तुम मसीह येशु के विरुद्ध पाप करते हो. इसलिये यदि भोजन किसी के लिए ठोकर का कारण बनता है तो मैं मांस का भोजन कभी न करूंगा कि मैं विश्वासियों के लिए ठोकर का कारण न बनूं.

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