स्तोत्र 78:17-31
यह सब होने पर भी वे परमेश्वर के विरुद्ध पाप करते ही रहे,
बंजर भूमि में उन्होंने सर्वोच्च परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया.
जिस भोजन के लिए वे लालायित थे,
उसके लिए हठ करके उन्होंने मन ही मन परमेश्वर की परीक्षा ली.
वे यह कहते हुए परमेश्वर की निंदा करते रहे;
“क्या परमेश्वर बंजर भूमि में भी
हमें भोजन परोस सकते हैं?
जब उन्होंने चट्टान पर प्रहार किया
तो जल-स्रोत फूट पड़े
तथा विपुल जलधाराएं बहने लगीं;
किंतु क्या वह हमें भोजन भी दे सकते हैं?
क्या वह संपूर्ण प्रजा के लिए मांस भोजन का भी प्रबंध कर सकते हैं?”
यह सुन याहवेह अत्यंत उदास हो गए;
याकोब के विरुद्ध उनकी अग्नि भड़क उठी,
उनका क्रोध इस्राएल के विरुद्ध भड़क उठा,
क्योंकि उन्होंने न तो परमेश्वर में विश्वास किया
और न उनके उद्धार पर भरोसा किया.
यह होने पर भी उन्होंने आकाश को आदेश दिया
और स्वर्ग के झरोखे खोल दिए;
उन्होंने उनके भोजन के लिए मन्ना वृष्टि की,
उन्होंने उन्हें स्वर्गिक अन्न प्रदान किया.
मनुष्य वह भोजन कर रहे थे, जो स्वर्गदूतों के लिए निर्धारित था;
परमेश्वर ने उन्हें भरपेट भोजन प्रदान किया.
स्वर्ग से उन्होंने पूर्वी हवा प्रवाहित की,
अपने सामर्थ्य में उन्होंने दक्षिणी हवा भी प्रवाहित की.
उन्होंने उनके लिए मांस की ऐसी वृष्टि की, मानो वह धूलि मात्र हो,
पक्षी ऐसे उड़ रहे थे, जैसे सागर तट पर रेत कण उड़ते हैं.
परमेश्वर ने पक्षियों को उनके मण्डपों में घुस जाने के लिए बाध्य कर दिया,
वे मंडप के चारों ओर छाए हुए थे.
उन्होंने तृप्त होने के बाद भी इन्हें खाया.
परमेश्वर ने उन्हें वही प्रदान कर दिया था, जिसकी उन्होंने कामना की थी.
किंतु इसके पूर्व कि वे अपने कामना किए भोजन से तृप्त होते,
जब भोजन उनके मुख में ही था,
परमेश्वर का रोष उन पर भड़क उठा;
परमेश्वर ने उनके सबसे सशक्तों को मिटा डाला,
उन्होंने इस्राएल के युवाओं को मिटा डाला.