أيوب 29 – NAV & HCV

New Arabic Version

أيوب 29:1-25

دفاع أيوب الأخير

1وَاسْتَطْرَدَ أَيُّوبُ فِي ضَرْبِ مَثَلِهِ: 2«يَا لَيْتَنِي مَازِلْتُ كَمَا كُنْتُ فِي الشُّهُورِ الْغَابِرَةِ، فِي الأَيَّامِ الَّتِي حَفِظَنِي فِيهَا اللهُ، 3كَانَ مِصْبَاحُهُ يُضِيءُ فَوْقَ رَأْسِي، فَأَسْلُكُ عَبْرَ الظُّلْمَةِ فِي نُورِهِ. 4يَوْمَ كُنْتُ فِي رَيعَانِ قُوَّتِي وَرِضَى اللهِ مُخَيِّماً فَوْقَ بَيْتِي. 5وَالْقَدِيرُ مَا بَرِحَ مَعِي، وَأَوْلادِي مَازَالُوا حَوْلِي. 6حِينَ كُنْتُ أَغْسِلُ خَطْوَاتِي بِاللَّبَنِ، وَالصَّخْرُ يَفِيضُ لِي أَنْهَاراً مِنَ الزَّيْتِ. 7حِينَ كُنْتُ أَخْرُجُ إِلَى بَوَّابَةِ الْمَدِينَةِ، وَأَحْتَلُّ فِي السَّاحَةِ مَجْلِسِي، 8فَيَرَانِي الشُّبَّانُ وَيَتَوَارَوْنَ، وَيَقِفُ الشُّيُوخُ احْتِرَاماً لِي. 9يَمْتَنِعُ الْعُظَمَاءُ عَنِ الْكَلامِ وَيَضَعُونَ أَيْدِيَهُمْ عَلَى أَفْوَاهِهِمْ. 10يَتَلاشَى صَوْتُ النُّبَلاءِ، وَتَلْتَصِقُ أَلْسِنَتُهُمْ بِأَحْنَاكِهِمْ. 11إِذَا سَمِعَتْ لِيَ الأُذُنُ تُطَوِّبُنِي، وَإذَا شَهِدَتْنِي الْعَيْنُ تُثْنِي عَلَيَّ، 12لأَنِّي أَنْقَذْتُ الْبَائِسَ الْمُسْتَغِيثَ، وَأَجَرْتُ الْيَتِيمَ طَالِبَ الْعَوْنِ، 13فَحَلَّتْ عَلَيَّ بَرَكَةُ الْمُشْرِفِ عَلَى الْمَوْتِ، وَجَعَلْتُ قَلْبَ الأَرْمَلَةِ يَتَهَلَّلُ فَرَحاً. 14ارْتَدَيْتُ الْبِرَّ فَكَسَانِي، وَكَجُبَّةٍ وَعِمَامَةٍ كَانَ عَدْلِي. 15كُنْتُ عُيُوناً لِلأَعْمَى، وَأَقْدَاماً لِلأَعْرَجِ، 16وَكُنْتُ أَباً لِلْمِسْكِينِ، أَتَقَصَّى دَعْوَى مَنْ لَمْ أَعْرِفْهُ. 17هَشَّمْتُ أَنْيَابَ الظَّالِمِ وَمِنْ بَيْنِ أَسْنَانِهِ نَزَعْتُ الْفَرِيسَةَ، 18ثُمَّ حَدَّثْتُ نَفْسِي: إِنِّي سَأَمُوتُ فِي خَيْمَتِي وَتَتَكَاثَرُ أَيَّامِي كَحَبَّاتِ الرَّمْلِ. 19سَتَمْتَدُّ أُصُولِي إِلَى الْمِيَاهِ، وَالطَّلُّ يَبِيتُ عَلَى أَغْصَانِي. 20يَتَجَدَّدُ مَجْدِي دَائِماً، وَقَوْسِي أَبَداً جَدِيدَةٌ فِي يَدِي. 21يَسْتَمِعُ النَّاسُ لِي وَيَنْتَظِرُونَ، وَيَصْمُتُونَ مُنْصِتِينَ لِمَشُورَتِي. 22بَعْدَ كَلامِي لَا يُثَنُّونَ عَلَى أَقْوَالِي، وَحَدِيثِي يَقْطُرُ عَلَيْهِمْ كَالنَّدَى. 23يَتَرَقَّبُونَنِي كَالْغَيْثِ، وَيَفْتَحُونَ أَفْوَاهَهُمْ كَمَنْ يَنْهَلُ مِنْ مَطَرِ الرَّبِيعِ 24إِنِ ابْتَسَمْتُ لَهُمْ لَا يُصَدِّقُونَ، وَنُورُ وَجْهِي لَمْ يَطْرَحُوهُ عَنْهُمْ بَعِيداً. 25أَخْتَارُ لَهُمْ طَرِيقَهُمْ وَأَتَصَدَّرُ مَجْلِسَهُمْ، وَأَكُونُ بَيْنَهُمْ كَمَلِكٍ بَيْنَ جُيُوشِهِ، وَكَالْمُعَزِّي بَيْنَ النَّائِحِينَ.

Hindi Contemporary Version

अय्योब 29:1-25

अय्योब का संवाद समापन

1तब अपने वचन में अय्योब ने कहा:

2“उपयुक्त तो यह होता कि मैं उस स्थिति में जा पहुंचता जहां मैं कुछ माह पूर्व था,

उन दिनों में, जब मुझ पर परमेश्वर की कृपा हुआ करती थी,

3जब परमेश्वर के दीपक का प्रकाश मेरे सिर पर चमक रहा था.

जब अंधकार में मैं उन्हीं के प्रकाश में आगे बढ़ रहा था!

4वे मेरी युवावस्था के दिन थे,

उस समय मेरे घर पर परमेश्वर की कृपा थी,

5उस समय सर्वशक्तिमान मेरे साथ थे,

मेरे संतान भी उस समय मेरे निकट थे.

6उस समय तो स्थिति ऐसी थी, मानो मेरे पैर मक्खन से धोए जाते थे,

तथा चट्टानें मेरे लिए तेल की धाराएं बहाया करती थीं.

7“तब मैं नगर के द्वार में चला जाया करता था,

जहां मेरे लिए एक आसन हुआ करता था,

8युवा सम्मान में मेरे सामने आने में हिचकते थे,

तथा प्रौढ़ मेरे लिए सम्मान के साथ उठकर खड़े हो जाते थे;

9यहां तक कि शासक अपना वार्तालाप रोक देते थे

तथा मुख पर हाथ रख लेते थे;

10प्रतिष्ठित व्यक्ति शांत स्वर में वार्तालाप करने लगते थे,

उनकी तो जीभ ही तालू से लग जाती थी.

11मुझे ऐसे शब्द सुनने को मिलते थे ‘धन्य हैं वह,’

जब मेरी दृष्टि उन पर पड़ती थी, यह वे मेरे विषय में कह रहे होते थे.

12यह इसलिये, कि मैं उन दीनों की सहायता के लिए तत्पर रहता था, जो सहायता की दोहाई लगाते थे.

तथा उन पितृहीनों की, जिनका सहायक कोई नहीं है.

13जो मरने पर था, उस व्यक्ति की समृद्धि मुझे दी गई है;

जिसके कारण उस विधवा के हृदय से हर्षगान फूट पड़े थे.

14मैंने युक्तता धारण कर ली, इसने मुझे ढक लिया;

मेरा न्याय का काम बाह्य वस्त्र तथा पगड़ी के समान था.

15मैं दृष्टिहीनों के लिए दृष्टि हो गया

तथा अपंगों के लिए पैर.

16दरिद्रों के लिए मैं पिता हो गया;

मैंने अपरिचितों के न्याय के लिए जांच पड़ताल की थी.

17मैंने दुष्टों के जबड़े तोड़े तथा उन्हें जा छुड़ाया,

जो नष्ट होने पर ही थे.

18“तब मैंने यह विचार किया, ‘मेरी मृत्यु मेरे घर में ही होगी

तथा मैं अपने जीवन के दिनों को बालू के समान त्याग दूंगा.

19मेरी जड़ें जल तक पहुंची हुई हैं

सारी रात्रि मेरी शाखाओं पर ओस छाई रहती है.

20सभी की ओर से मुझे प्रशंसा प्राप्‍त होती रही है,

मेरी शक्ति, मेरा धनुष, मेरे हाथ में सदा बना रहेगा.

21“वे लोग मेरे परामर्श को सुना करते थे, मेरी प्रतीक्षा करते रहते थे,

इस रीति से वे मेरे परामर्श को शांति से स्वीकार भी करते थे.

22मेरे वक्तव्य के बाद वे प्रतिक्रिया का साहस नहीं करते थे;

मेरी बातें वे ग्रहण कर लेते थे.

23वे मेरे लिए वैसे ही प्रतीक्षा करते थे, जैसे वृष्टि की,

उनके मुख वैसे ही खुले रह जाते थे, मानो यह वसन्त ऋतु की वृष्टि है.

24वे मुश्किल से विश्वास करते थे, जब मैं उन पर मुस्कुराता था;

मेरे चेहरे का प्रकाश उनके लिए कीमती था.

25उनका प्रधान होने के कारण मैं उन्हें उपयुक्त हल सुझाता था;

सेना की टुकड़ियों के लिए मैं रणनीति प्रस्तुत करता था;

मैं ही उन्हें जो दुःखी थे सांत्वना प्रदान करता था.