1الإِنْسَانُ مَوْلُودُ الْمَرْأَةِ. قَصِيرُ الْعُمْرِ وَمُفْعَمٌ بِالشَّقَاءِ، 2يَتَفَتَّحُ كَالزَّهْرِ ثُمَّ يَنْتَثِرُ، وَيَتَوَارَى كَالشَّبَحِ فَلا يَبْقَى لَهُ أَثَرٌ. 3أَعَلَى مِثْلِ هَذَا فَتَحْتَ عَيْنَيْكَ وَأَحْضَرْتَنِي لأَتَحَاجَّ مَعَكَ؟ 4مَنْ يَسْتَوْلِدُ الطَّاهِرَ مِنَ النَّجِسِ؟ لَا أَحَدٌ! 5فَإِنْ كَانَتْ أَيَّامُهُ مَحْدُودَةً، وَعَدَدُ أَشْهُرِهِ مَكْتُوباً لَدَيْكَ، وَعَيَّنْتَ أَجَلَهُ فَلا يَتَجَاوَزُهُ، 6فَأَشِحْ بِوَجْهِكَ عَنْهُ وَدَعْهُ يَسْتَرِيحُ مُسْتَمْتِعاً، رَيْثَمَا يَنْتَهِي يَوْمُهُ، كَالأَجِيرِ.
7لأَنَّ لِلشَّجَرَةِ أَمَلاً، إِذَا قُطِعَتْ أَنْ تُفْرِخَ مِنْ جَدِيدٍ وَلا تَفْنَى بَرَاعِمُهَا. 8حَتَّى لَوْ شَاخَتْ أُصُولُهَا فِي الأَرْضِ وَمَاتَ جِذْعُهَا فِي التُّرَابِ، 9فَإِنَّهَا حَالَما تَسْتَرْوِحُ الْمَاءَ تُفْرِخُ، وَتُنْبِتُ فُرُوعاً كَالْغَرْسِ. 10أَمَّا الإِنْسَانُ فَإِنَّهُ يَمُوتُ وَيَبْلَى، يَلْفِظُ آخِرَ أَنْفَاسِهِ، فَأَيْنَ هُوَ؟ 11كَمَا تَنْفَدُ الْمِيَاهُ مِنَ الْبُحَيْرَةِ، وَيَجِفُّ النَّهْرُ، 12هَكَذا يَرْقُدُ الإِنْسَانُ وَلا يَقُومُ، وَلا يَسْتَيْقِظُ مِنْ نَوْمِهِ إِلَى أنْ تَزُولَ السَّمَاوَاتُ.
13لَيْتَكَ تُوَارِينِي فِي عَالَمِ الأَمْوَاتِ، وَتُخْفِينِي إِلَى أَنْ يَعْبُرَ عَنِّي غَضَبُكَ، وَتُحَدِّدُ لِي أَجَلاً فَتَذْكُرَنِي. 14إِنْ مَاتَ رَجُلٌ أَفَيَحْيَا؟ إِذَنْ لَصَبِرْتُ كُلَّ أَيَّامِ مُكَابَدَتِي، رَيْثَمَا يَأْتِي زَمَنُ إِعْفَائِي. 15أَنْتَ تَدْعُو وَأَنَا أُجِيبُكَ. أَنْتَ تَتُوقُ إِلَى عَمَلِ يَدَيْكَ، 16حِينَئِذٍ تُحْصِي خَطْوَاتِي حَقّاً، وَلَكِنَّكَ لَا تُرَاقِبُ خَطِيئَتِي، 17فَتَخْتِمُ مَعْصِيَتِي فِي صُرَّةٍ، وَتَسْتُرُ ذَنْبِي.
18وَكَمَا يَتَفَتَّتُ الْجَبَلُ السَّاقِطُ، وَيَتَزَحْزَحُ الصَّخْرُ مِنْ مَوْضِعِهِ، 19وَكَمَا تُبْلِي الْمِيَاهُ الْحِجَارَةَ، وَتَجْرُفُ سُيُولُهَا تُرَابَ الأَرْضِ، هَكَذَا تُبِيدُ أَنْتَ رَجَاءَ الإِنْسَانِ. 20تَقْهَرُهُ دَفْعَةً وَاحِدَةً فَيَتَلاشَى، وَتُغَيِّرُ مِنْ مَلامِحِهِ وَتَطْرُدُهُ. 21يُكْرَمُ أَبْنَاؤُهُ وَهُوَ لَا يَعْلَمُ، أَوْ يُذَلُّونَ وَلا يُدْرِكُ ذَلِكَ. 22لَا يَشْعُرُ بِغَيْرِ آلامِ بَدَنِهِ، وَلا يَنُوحُ إِلّا عَلَى نَفْسِهِ».
1“स्त्री से जन्मे मनुष्य का जीवन,
अल्पकालिक एवं दुःख भरा होता है.
2उस पुष्प समान, जो खिलता है तथा मुरझा जाता है;
वह तो छाया-समान द्रुत गति से विलीन हो जाता तथा अस्तित्वहीन रह जाता है.
3क्या इस प्रकार का प्राणी इस योग्य है कि आप उस पर दृष्टि बनाए रखें
तथा उसका न्याय करने के लिए उसे अपनी उपस्थिति में आने दें?
4अशुद्ध में से किसी शुद्ध वस्तु की सृष्टि कौन कर सकता है?
कोई भी इस योग्य नहीं है!
5इसलिये कि मनुष्य का जीवन सीमित है;
उसके जीवन के माह आपने नियत कर रखे हैं.
साथ आपने उसकी सीमाएं निर्धारित कर दी हैं, कि वह इनके पार न जा सके.
6जब तक वह वैतनिक मज़दूर समान अपना समय पूर्ण करता है उस पर से अपनी दृष्टि हटा लीजिए,
कि उसे विश्राम प्राप्त हो सके.
7“वृक्ष के लिए तो सदैव आशा बनी रहती है:
जब उसे काटा जाता है,
उसके तने से अंकुर निकल आते हैं. उसकी डालियां विकसित हो जाती हैं.
8यद्यपि भूमि के भीतर इसकी मूल जीर्ण होती जाती है
तथा भूमि में इसका ठूंठ नष्ट हो जाता है,
9जल की गंध प्राप्त होते ही यह खिलने लगता है
तथा पौधे के समान यह अपनी शाखाएं फैलाने लगता है.
10किंतु मनुष्य है कि, मृत्यु होने पर वह पड़ा रह जाता है;
उसका श्वास समाप्त हुआ, कि वह अस्तित्वहीन रह जाता है.
11जैसे सागर का जल सूखते रहता है
तथा नदी धूप से सूख जाती है,
12उसी प्रकार मनुष्य, मृत्यु में पड़ा हुआ लेटा रह जाता है;
आकाश के अस्तित्वहीन होने तक उसकी स्थिति यही रहेगी,
उसे इस गहरी नींद से जगाया जाना असंभव है.
13“उत्तम तो यही होता कि आप मुझे अधोलोक में छिपा देते,
आप मुझे अपने कोप के ठंडा होने तक छिपाए रहते!
आप एक अवधि निश्चित करके
इसके पूर्ण हो जाने पर मेरा स्मरण करते!
14क्या मनुष्य के लिए यह संभव है कि उसकी मृत्यु के बाद वह जीवित हो जाए?
अपने जीवन के समस्त श्रमपूर्ण वर्षों में मैं यही प्रतीक्षा करता रह जाऊंगा.
कब होगा वह नवोदय?
15आप आह्वान करो, तो मैं उत्तर दूंगा;
आप अपने उस बनाए गये प्राणी की लालसा करेंगे.
16तब आप मेरे पैरों का लेख रखेंगे
किंतु मेरे पापों का नहीं.
17मेरे अपराध को एक थैली में मोहरबन्द कर दिया जाएगा;
आप मेरे पापों को ढांप देंगे.
18“जैसे पर्वत नष्ट होते-होते वह चूर-चूर हो जाता है,
चट्टान अपने स्थान से हट जाती है.
19जल में भी पत्थरों को काटने की क्षमता होती है,
तीव्र जल प्रवाह पृथ्वी की धूल साथ ले जाते हैं,
आप भी मनुष्य की आशा के साथ यही करते हैं.
20एक ही बार आप उसे ऐसा हराते हैं, कि वह मिट जाता है;
आप उसका स्वरूप परिवर्तित कर देते हैं और उसे निकाल देते हैं.
21यदि उसकी संतान सम्मानित होती है, उसे तो इसका ज्ञान नहीं होता;
अथवा जब वे अपमानित किए जाते हैं, वे इससे अनजान ही रहते हैं.
22जब तक वह देह में होता है, पीड़ा का अनुभव करता है,
इसी स्थिति में उसे वेदना का अनुभव होता है.”