सूक्ति संग्रह 8 – Hindi Contemporary Version HCV

Hindi Contemporary Version

सूक्ति संग्रह 8:1-36

बुद्धि का आह्वान

1क्या ज्ञान आह्वान नहीं करता?

क्या समझ उच्च स्वर में नहीं पुकारती?

2वह गलियों के ऊंचे मार्ग पर,

चौराहों पर जाकर खड़ी हो जाती है;

3वह नगर प्रवेश द्वार के सामने खड़ी रहती है,

उसके द्वार के सामने खड़ी होकर वह उच्च स्वर में पुकारती रहती है:

4“मनुष्यो, मैं तुम्हें संबोधित कर रही हूं;

मेरी पुकार मनुष्यों की सन्तति के लिए है.

5साधारण सरल व्यक्तियो, चतुराई सीख लो;

अज्ञानियो, बुद्धिमत्ता सीख लो.

6क्योंकि मैं तुम पर उत्कृष्ट बातें प्रकट करूंगी;

मेरे मुख से वही सब निकलेगा जो सुसंगत ही है,

7क्योंकि मेरे मुख से मात्र सत्य ही निकलेगा,

मेरे होंठों के लिए दुष्टता घृणास्पद है.

8मेरे मुख से निकला हर एक शब्द धर्ममय ही होता है;

उनमें न तो छल-कपट होता है, न ही कोई उलट फेर का विषय.

9जिस किसी ने इनका मूल्य पहचान लिया है, उनके लिए ये उपयुक्त हैं,

और जिन्हें ज्ञान की उपलब्धि हो चुकी है, उनके लिए ये उत्तम हैं.

10चांदी के स्थान पर मेरी शिक्षा को संग्रहीत करो,

वैसे ही उत्कृष्ट स्वर्ण के स्थान पर ज्ञान को,

11क्योंकि ज्ञान रत्नों से अधिक कीमती है,

और तुम्हारे द्वारा अभिलाषित किसी भी वस्तु से इसकी तुलना नहीं की जा सकती.

12“मैं ज्ञान हूं और व्यवहार कुशलता के साथ मेरा सह अस्तित्व है,

मेरे पास ज्ञान और विवेक है.

13पाप से घृणा ही याहवेह के प्रति श्रद्धा है;

मुझे घृणा है अहंकार, गर्वोक्ति,

बुराई तथा छलपूर्ण बातों से.

14मुझमें ही परामर्श है, सद्बुद्धि है;

मुझमें समझ है, मुझमें शक्ति निहित है.

15मेरे द्वारा राजा शासन करते हैं,

मेरे ही द्वारा वे न्याय संगत निर्णय लेते हैं.

16मेरे द्वारा ही शासक शासन करते हैं,

और समस्त न्यायाध्यक्ष मेरे द्वारा ही न्याय करते हैं.

17जिन्हें मुझसे प्रेम है, वे सभी मुझे भी प्रिय हैं,

जो मुझे खोजते हैं, मुझे प्राप्‍त भी कर लेते हैं.

18मेरे साथ ही संलग्न हैं समृद्धि

और सम्मान इनके साथ ही चिरस्थायी निधि तथा धार्मिकता.

19मेरा फल स्वर्ण से, हां, उत्कृष्ट स्वर्ण से उत्तम;

तथा जो कुछ मुझसे निकलता है, वह चांदी से उत्कृष्ट है.

20धार्मिकता मेरा मार्ग है, जिस पर मैं चालचलन करता हूं,

न्यायशीलता ही मेरा मार्ग है,

21परिणामस्वरूप, जिन्हें मुझसे प्रेम है, उन्हें धन प्राप्‍त हो जाता है

और उनके भण्डारगृह परिपूर्ण भरे रहते हैं.

22“जब याहवेह ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की,

इसके पूर्व कि वह किसी वस्तु की सृष्टि करते, मैं उनके साथ था;

23युगों पूर्व ही, सर्वप्रथम,

पृथ्वी के अस्तित्व में आने के पूर्व ही मैं अस्तित्व में था.

24महासागरों के अस्तित्व में आने के पूर्व, जब सोते ही न थे,

मुझे जन्म दिया गया.

25इसके पूर्व कि पर्वतों को आकार दिया गया,

और पहाड़ियां अस्तित्व में आयीं, मैं अस्तित्व में था;

26इसके पूर्व कि परमेश्वर ने पृथ्वी तथा पृथ्वी की सतह पर मैदानों की रचना की,

अथवा भूमि पर सर्वप्रथम धूल देखी गई.

27जब परमेश्वर ने आकाशमंडल की स्थापना की, मैं अस्तित्व में था,

जब उन्होंने महासागर पर क्षितिज रेखा का निर्माण किया,

28जब उन्होंने आकाश को हमारे ऊपर सुदृढ़ कर दिया,

जब उन्होंने महासागर के सोते प्रतिष्ठित किए,

29जब उन्होंने महासागर की सीमाएं बांध दी,

कि जल उनके आदेश का उल्लंघन न कर सके,

जब उन्होंने पृथ्वी की नींव रेखांकित की.

30उस समय मैं उनके साथ साथ कार्यरत था.

एक प्रधान कारीगर के समान प्रतिदिन मैं ही उनके हर्ष का कारण था,

सदैव मैं उनके समक्ष आनंदित होता रहता था,

31उनके द्वारा बसाए संसार में

तथा इसके मनुष्यों में मेरा आनंद था.

32“मेरे पुत्रो, ध्यान से सुनो;

मेरे निर्देश सुनकर बुद्धिमान हो जाओ.

33इनका परित्याग कभी न करना;

धन्य होते हैं वे, जो मेरी नीतियों पर चलते हैं.

34धन्य होता है वह व्यक्ति,

जो इन शिक्षाओं के समक्ष ठहरा रहता है,

जिसे द्वार पर मेरी प्रतीक्षा रहती है.

35जिसने मुझे प्राप्‍त कर लिया, उसने जीवन प्राप्‍त कर लिया,

उसने याहवेह की कृपादृष्टि प्राप्‍त कर ली.

36किंतु वह, जो मुझे पाने में असफल होता है, वह स्वयं का नुकसान कर लेता है;

वे सभी, जो मुझसे घृणा करते हैं, वे मृत्यु का आलिंगन करते हैं.”