अय्योब 31 – HCV & NAV

Hindi Contemporary Version

अय्योब 31:1-40

1“अपने नेत्रों से मैंने एक प्रतिज्ञा की है

कि मैं किसी कुमारी कन्या की ओर कामुकतापूर्ण दृष्टि से नहीं देखूंगा.

2स्वर्ग से परमेश्वर द्वारा क्या-क्या प्रदान किया जाता है

अथवा स्वर्ग से सर्वशक्तिमान से कौन सी मीरास प्राप्‍त होती है?

3क्या अन्यायी के लिए विध्वंस

तथा दुष्ट लोगों के लिए सर्वनाश नहीं?

4क्या परमेश्वर के सामने मेरी जीवनशैली

तथा मेरे पैरों की संख्या स्पष्ट नहीं होती?

5“यदि मैंने झूठ का आचरण किया है,

यदि मेरे पैर छल की दिशा में द्रुत गति से बढ़ते,

6तब स्वयं परमेश्वर सच्चे तराजू पर मुझे माप लें

तथा परमेश्वर ही मेरी निर्दोषिता को मालूम कर लें.

7यदि उनके पथ से मेरे पांव कभी भटके हों,

अथवा मेरे हृदय ने मेरी स्वयं की दृष्टि का अनुगमन किया हो,

अथवा कहीं भी मेरे हाथ कलंकित हुए हों.

8तो मेरे द्वारा रोपित उपज अन्य का आहार हो जाए

तथा मेरी उपज उखाड़ डाली जाए.

9“यदि मेरा हृदय किसी पराई स्त्री द्वारा लुभाया गया हो,

अथवा मैं अपने पड़ोसी के द्वार पर घात लगाए बैठा हूं,

10तो मेरी पत्नी अन्य के लिए कठोर श्रम के लिए लगा दी जाए,

तथा अन्य पुरुष उसके साथ सोयें,

11क्योंकि कामुकता घृण्य है,

और एक दंडनीय पाप.

12यह वह आग होगी, जो विनाश के लिए प्रज्वलित होती है,

तथा जो मेरी समस्त समृद्धि को नाश कर देगी.

13“यदि मैंने अपने दास-दासियों के

आग्रह को बेकार समझा है

तथा उनमें मेरे प्रति असंतोष का भाव उत्पन्‍न हुआ हो,

14तब उस समय मैं क्या कर सकूंगा, जब परमेश्वर सक्रिय हो जाएंगे?

जब वह मुझसे पूछताछ करेंगे, मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगा?

15क्या उन्हीं परमेश्वर ने, जिन्होंने गर्भ में मेरी रचना की है?

उनकी भी रचना नहीं की है तथा क्या हम सब की रचना एक ही स्वरूप में नहीं की गई?

16“यदि मैंने दीनों को उनकी अभिलाषा से कभी वंचित रखा हो,

अथवा मैं किसी विधवा के निराश होने का कारण हुआ हूं,

17अथवा मैंने छिप-छिप कर भोजन किया हो,

तथा किसी पितृहीन को भोजन से वंचित रखा हो.

18मैंने तो पिता तुल्य उनका पालन पोषण किया है,

बाल्यकाल से ही मैंने उसका मार्गदर्शन किया है.

19यदि मैंने अपर्याप्‍त वस्त्रों के कारण किसी का नाश होने दिया है,

अथवा कोई दरिद्र वस्त्रहीन रह गया हो.

20ऐसों को तो मैं ऊनी वस्त्र प्रदान करता रहा हूं,

जो मेरी भेडों के ऊन से बनाए गए थे.

21यदि मैंने किसी पितृहीन पर प्रहार किया हो,

क्योंकि नगर चौक में कुछ लोग मेरे पक्ष में हो गए थे,

22तब मेरी बांह कंधे से उखड़ कर गिर जाए

तथा मेरी बांह कंधे से टूट जाए.

23क्योंकि परमेश्वर की ओर से आई विपत्ति मेरे लिए भयावह है.

उनके प्रताप के कारण मेरा कुछ भी कर पाना असंभव है.

24“यदि मेरा भरोसा मेरी धनाढ्यता पर हो

तथा सोने को मैंने, ‘अपनी सुरक्षा घोषित किया हो,’

25यदि मैंने अपनी महान संपत्ति का अहंकार किया हो,

तथा इसलिये कि मैंने अपने श्रम से यह उपलब्ध किया है.

26यदि मैंने चमकते सूरज को निहारा होता, अथवा उस चंद्रमा को,

जो अपने वैभव में अपनी यात्रा पूर्ण करता है,

27तथा यह देख मेरा हृदय मेरे अंतर में इन पर मोहित हो गया होता,

तथा मेरे हाथ ने इन पर एक चुंबन कर दिया होता,

28यह भी पाप ही हुआ होता, जिसका दंडित किया जाना अनिवार्य हो जाता,

क्योंकि यह तो परमेश्वर को उनके अधिकार से वंचित करना हो जाता.

29“क्या मैं कभी अपने शत्रु के दुर्भाग्य में आनंदित हुआ हूं

अथवा उस स्थिति पर आनन्दमग्न हुआ हूं, जब उस पर मुसीबत टूट पड़ी?

30नहीं! मैंने कभी भी शाप देते हुए अपने शत्रु की मृत्यु की याचना करने का पाप

अपने मुख को नहीं करने दिया.

31क्या मेरे घर के व्यक्तियों की साक्ष्य यह नहीं है,

‘उसके घर के भोजन से मुझे संतोष नहीं हुआ?’

32मैंने किसी भी विदेशी प्रवासी को अपने घर के अतिरिक्त अन्यत्र ठहरने नहीं दिया,

क्योंकि मेरे घर के द्वार प्रवासियों के लिए सदैव खुले रहते हैं.

33क्या, मैंने अन्य लोगों के समान अपने अंदर में अपने पाप को छुपा रखा है;

अपने अधर्म को ढांप रखा है?

34क्या, मुझे जनमत का भय रहा है?

क्या, परिजनों की घृणा मुझे डरा रही है?

क्या, मैं इसलिये चुप रहकर अपने घर से बाहर न जाता था?

35(“उत्तम होती वह स्थिति, जिसमें कोई तो मेरा पक्ष सुनने के लिए तत्पर होता!

देख लो ये हैं मेरे हस्ताक्षर सर्वशक्तिमान ही इसका उत्तर दें;

मेरे शत्रु ने मुझ पर यह लिखित शिकायत की है.

36इसका धारण मुझे कांधों पर करना होगा,

यह आरोप मेरे अपने सिर पर मुकुट के समान धारण करना होगा.

37मैं तो परमेश्वर के सामने अपने द्वारा उठाए गए समस्त पैर स्पष्ट कर दूंगा;

मैं एक राजनेता की अभिवृत्ति उनकी उपस्थिति में प्रवेश करूंगा.)

38“यदि मेरा खेत मेरे विरुद्ध अपना स्वर ऊंचा करता है

तथा कुंड मिलकर रोने लगते हैं,

39यदि मैंने बिना मूल्य चुकाए उपज का उपभोग किया हो

अथवा मेरे कारण उसके स्वामियों ने अपने प्राण गंवाए हों,

40तो गेहूं के स्थान पर कांटे बढ़ने लगें

तथा जौ के स्थान पर जंगली घास उग जाए.”

यहां अय्योब का वचन समाप्‍त हो गया.

New Arabic Version

أيوب 31:1-40

1أَبْرَمْتُ عَهْداً مَعَ عَيْنَيَّ، فَكَيْفَ أَرْنُو إِلَى عَذْرَاءَ؟ 2وَمَاذَا يَكُونُ نَصِيبِي عِنْدَ اللهِ مِنْ فَوْقُ، وَمَا هُوَ إِرْثِي مِنْ عِنْدِ الْقَدِيرِ فِي الأَعَالِي؟ 3أَلَيْسَتِ الْبَلِيَّةُ مِنْ حَظِّ الشِّرِّيرِ، وَالْكَارِثَةُ مِنْ نَصِيبِ فَاعِلِي الإِثْمِ؟ 4أَلا يَرَى اللهُ طُرُقِي وَيُحْصِي كُلَّ خَطْوَاتِي؟ 5إِنْ سَلَكْتُ فِي ضَلالٍ وَأَسْرَعَتْ قَدَمِي لاِرْتِكَابِ الْغِشِّ، 6فَلأُوزَنْ فِي قِسْطَاسِ الْعَدْلِ، وَلْيَعْرِفِ اللهُ كَمَالِي. 7إِنْ حَادَتْ خَطْوَاتِي عَنِ الطَّرِيقِ، وَغَوَى قَلْبِي وَرَاءَ عَيْنَيَّ، وَعَلِقَتْ بِيَدِي لَطْخَةُ عَارٍ، 8فَلأَزْرَعْ أَنَا وَآخَرُ يَأْكُلُ، وَلْيُسْتَأْصَلْ مَحْصُولِي.

9إِنْ هَامَ قَلْبِي وَرَاءَ امْرَأَةٍ، أَوْ طُفْتُ عِنْدَ بَابِ جَارِي، 10فَلْتَطْحَنْ زَوْجَتِي لِآخَرَ، وَلْيُضَاجِعْهَا آخَرُونَ. 11لأَنَّ هَذِهِ رَذِيلَةٌ وَإِثْمٌ يُعَاقِبُ عَلَيْهِ الْقُضَاةُ، 12وَنَارٌ مُلْتَهِمَةٌ تُفْضِي إِلَى الْهَلاكِ وَتَقْضِي عَلَى غَلَّاتِي.

13إِنْ كُنْتُ قَدْ تَنَكَّرْتُ لِحَقِّ خَادِمِي وَأَمَتِي عِنْدَمَا اشْتَكَيَا عَلَيَّ، 14فَمَاذَا أَصْنَعُ عِنْدَمَا يَقُومُ اللهُ (لِمُحَاكَمَتِي)؟ وَبِمَاذَا أُجِيبُ عِنْدَمَا يَتَقَصَّى (لِيُحَاسِبَنِي)؟ 15أَلَيْسَ الَّذِي كَوَّنَنِي فِي الرَّحِمِ كَوَّنَهُ أَيْضاً؟ أَوَ لَيْسَ الَّذِي شَكَّلَنَا فِي الرَّحِمِ وَاحِدٌ؟ 16إِنْ كُنْتُ قَدْ مَنَعْتُ عَنِ الْمِسْكِينِ مَا يَطْلُبُهُ، أَوْ أَوْهَنْتُ عَيْنَيِ الأَرْمَلَةِ مِنْ فَرْطِ الْبُكَاءِ، 17أَوْ أَكَلْتُ كِسْرَةَ خُبْزِي وَحْدِي وَلَمْ أَتَقَاسَمْهَا مَعَ الْيَتِيمِ، 18إِذْ مُنْذُ حَدَاثَتِي رَعَيْتُهُ كَأَبٍ، وَهَدَيْتُهُ مِنْ رَحِمِ أُمِّهِ. 19إِنْ كُنْتُ قَدْ رَأَيْتُ أَحَداً مُشْرِفاً عَلَى الْهَلاكِ مِنَ الْعُرْيِ، أَوْ مِسْكِيناً مِنْ غَيْرِ كِسَاءٍ، 20إِنْ لَمْ تُبَارِكْنِي حَقَوَاهُ الْمُسْتَدْفِئَتَانِ بِجَزَّةِ غَنَمِي! 21إِنْ كُنْتُ قَدْ رَفَعْتُ يَدِي ضِدَّ الْيَتِيمِ، مُسْتَغِلاً نُفُوذِي فِي الْقَضَاءِ، 22فَلْيَسْقُطْ عَضُدِي مِنْ كَتِفِي، وَلْتَنْكَسِرْ ذِرَاعِي مِنْ قَصَبَتِهَا. 23لأَنَّنِي أَرْتَعِبُ مِنْ نِقْمَةِ اللهِ، وَمَا كُنْتُ أَقْوَى عَلَى مُوَاجَهَةِ جَلالِهِ.

24إِنْ كُنْتُ قَدْ جَعَلْتُ الذَّهَبَ مُتَّكَلِي، أَوْ قُلْتُ لِلإِبْرِيزِ أَنْتَ مُعْتَمَدِي، 25إِنْ كُنْتُ قَدِ اغْتَبَطْتُ بِعُظْمِ ثَرْوَتِي، أَوْ لأَنَّ يَدَيَّ فَاضَتَا بِوَفْرَةِ الْكَسْبِ، 26إِنْ كُنْتُ قَدْ نَظَرْتُ إِلَى الشَّمْسِ حِينَ أَضَاءَتْ، أَوْ إِلَى الْقَمَرِ السَّائِرِ بِبَهَاءٍ، 27فَغَوِيَ قَلْبِي سِرّاً وَقَبَّلْتُ يَدَيَّ تَوْقِيراً لَهُمَا، 28فَإِنَّ هَذَا أَيْضاً إِثْمٌ يُعَاقِبُ عَلَيْهِ الْقُضَاةُ، لأَنِّي أَكُونُ قَدْ جَحَدْتُ اللهَ الْعَلِيَّ.

29إِنْ كُنْتُ قَدْ فَرِحْتُ بِدَمَارِ مُبْغِضِي أَوْ شَمِتُّ حِينَ أَصَابَهُ شَرٌّ، 30لا! لَمْ أَدَعْ لِسَانِي يُخْطِئُ بالدُّعَاءِ عَلَى حَيَاتِهِ بِلَعْنَةٍ. 31إِنْ كَانَ أَهْلُ خَيْمَتِي لَمْ يَقُولُوا: أَهُنَاكَ مَنْ لَمْ يَشْبَعْ مِنْ طَعَامِ أَيُّوبَ؟ 32فَالْغَرِيبُ لَمْ يَبِتْ فِي الشَّارِعِ لأَنِّي فَتَحْتُ أَبْوَابِي لِعَابِرِي السَّبِيلِ. 33إِنْ كُنْتُ قَدْ كَتَمْتُ آثَامِي كَبَقِيَّةِ النَّاسِ، طَاوِياً ذُنُوبِي فِي حِضْنِي، 34رَهْبَةً مِنَ الْجَمَاهِيرِ الْغَفِيرَةِ، وَخَوْفاً مِنْ إِهَانَةِ الْعَشَائِرِ، وصَمَتُّ وَاعْتَصَمْتُ دَاخِلَ الأَبْوَابِ. 35آهِ، مَنْ لِي بِمَنْ يَسْتَمِعُ لِي! هُوَذَا تَوْقِيعِي، فَلْيُجِبْنِي الْقَدِيرُ. لَيْتَ خَصْمِي يَكْتُبُ شَكْوَاهُ ضِدِّي، 36فَأَحْمِلَهَا عَلَى كَتِفِي وَأَعْصِبَهَا تَاجاً لِي، 37لَكُنْتُ أُقَدِّمُ لَهُ حِسَاباً عَنْ كُلِّ خَطْوَاتِي، وَأَدْنُو مِنْهُ كَمَا أَدْنُو مِنْ أَمِيرٍ. 38إِنْ كَانَتْ أَرْضِي قَدِ احْتَجَّتْ عَلَيَّ وَتَبَاكَتْ أَتْلامُهَا جَمِيعاً، 39إِنْ كُنْتُ قَدْ أَكَلْتُ غَلّاتِهَا بِلا ثَمَنٍ، أَوْ سَحَقْتُ نُفُوسَ أَصْحَابِهَا، 40فَلْيَنْبُتْ فِيهَا الشَّوْكُ بَدَلَ الْحِنْطَةِ وَالزَّوَانُ بَدَلَ الشَّعِيرِ». تَمَّتْ هُنَا أَقْوَالُ أَيُّوبَ.