أعمال 25 – NAV & HCV

Ketab El Hayat

أعمال 25:1-27

المحاكمة أمام فستوس

1بَعْدَ ثَلاثَةِ أَيَّامٍ لِتَوَلِّي فَسْتُوسَ مَنْصِبَهُ، ذَهَبَ مِنْ قَيْصَرِيَّةَ إِلَى أُورُشَلِيمَ. 2فَجَاءَهُ رَئِيسُ الْكَهَنَةِ وَوُجَهَاءُ الْيَهُودِ وَعَرَضُوا لَهُ دَعْوَاهُمْ ضِدَّ بُولُسَ، وَطَلَبُوا مِنْهُ 3بِإِلْحَاحٍ أَنْ يُكْرِمَهُمْ بِإِحْضَارِ بُولُسَ إِلَى أُورُشَلِيمَ. وَكَانُوا قَدْ نَصَبُوا لَهُ كَمِيناً عَلَى الطَّرِيقِ لِيَغْتَالُوهُ. 4فَأَجَابَهُمْ فَسْتُوسُ بِأَنَّ بُولُسَ سَيَبْقَى مُحْتَجَزاً فِي قَيْصَرِيَّةَ وَأَنَّهُ هُوَ سَيَعُودُ إِلَيْهَا بَعْدَ فَتْرَةٍ قَصِيرَةٍ. 5وَقَالَ: «لِيَذْهَبْ مَعِي أَصْحَابُ النُّفُوذِ مِنْكُمْ؛ فَإِنْ كَانَ عَلَى هَذَا الرَّجُلِ ذَنْبٌ مَا، فَلْيَتَّهِمُوهُ بِهِ أَمَامِي!»

6وَقَضَى فَسْتُوسُ فِي أُورُشَلِيمَ أَيَّاماً لَا تَزِيدُ عَلَى الثَّمَانِيَةِ أَوِ الْعَشَرَةِ، ثُمَّ عَادَ إِلَى قَيْصَرِيَّةَ. وَفِي الْيَوْمِ التَّالِي لِوُصُولِهِ جَلَسَ عَلَى مَنَصَّةِ الْقَضَاءِ، وَأَمَرَ بِإِحْضَارِ بُولُسَ. 7فَلَمَّا حَضَرَ اجْتَمَعَ حَوْلَهُ الْيَهُودُ الَّذِينَ جَاءُوا مِنْ أُورُشَلِيمَ، وَوَجَّهُوا إِلَيْهِ تُهَماً كَثِيرَةً وَخَطِيرَةً عَجَزُوا عَنْ إِثْبَاتِ صِحَّتِهَا. 8فَدَافَعَ بُولُسُ عَنْ نَفْسِهِ قَائِلاً: «لَمْ أَرْتَكِبْ ذَنْباً فِي حَقِّ شَرِيعَةِ الْيَهُودِ، أَوِ الْهَيْكَلِ، أَوِ الْقَيْصَرِ». 9وَمَعَ ذَلِكَ فَقَدْ أَرَادَ فَسْتُوسُ أَنْ يَكْسِبَ رِضَى الْيَهُودِ، فَسَأَلَ بُولُسَ: «هَلْ تُرِيدُ أَنْ تَذْهَبَ إِلَى أُورُشَلِيمَ حَيْثُ تَجْرِي مُحَاكَمَتُكَ بِحُضُورِي عَلَى هَذِهِ التُّهَمِ؟» 10فَأَجَابَ بُولُسُ: «أَنَا مَاثِلٌ الآنَ فِي مَحْكَمَةِ الْقَيْصَرِ، وَأَمَامَهَا يَجِبُ أَنْ تَجْرِيَ مُحَاكَمَتِي. لَمْ أَرْتَكِبْ ذَنْباً فِي حَقِّ الْيَهُودِ، وَأَنْتَ تَعْلَمُ هَذَا جَيِّداً. 11وَلَوْ كُنْتُ ارْتَكَبْتُ جَرِيمَةً أَسْتَحِقُّ عَلَيْهَا عُقُوبَةَ الإِعْدَامِ، لَمَا كُنْتُ أَهْرُبُ مِنَ الْمَوْتِ. وَلكِنْ مَادَامَتْ تُهَمُ هَؤُلاءِ لِي بِلا أَسَاسٍ، فَلا يَحِقُّ لأَحَدٍ أَنْ يُسَلِّمَنِي إِلَيْهِمْ لِيُحَاكِمُونِي. إِنِّي أَسْتَأْنِفُ دَعْوَايَ إِلَى الْقَيْصَرِ!» 12وَتَدَاوَلَ فَسْتُوسُ الأَمْرَ مَعَ مُسْتَشَارِيهِ، ثُمَّ قَالَ لِبُولُسَ: «مَادُمْتَ قَدِ اسْتَأْنَفْتَ دَعْوَاكَ إِلَى الْقَيْصَرِ، فَإِلَى الْقَيْصَرِ تَذْهَبُ!»

فستوس يستشير الملك أغريباس

13وَبَعْدَ بِضْعَةِ أَيَّامٍ جَاءَ الْمَلِكُ أَغْرِيبَاسُ وَبَرْنِيكِي إِلَى قَيْصَرِيَّةَ لِيُسَلِّمَا عَلَى فَسْتُوسَ. 14وَمَكَثَا هُنَاكَ أَيَّاماً عَدِيدَةً. فَعَرَضَ فَسْتُوسُ عَلَى الْمَلِكِ قَضِيَّةَ بُولُسَ قَائِلاً: «هُنَا رَجُلٌ تَرَكَهُ فِيلِكْسُ سَجِيناً. 15وَلَمَّا ذَهَبْتُ إِلَى أُورُشَلِيمَ شَكَاهُ إِلَيَّ رُؤَسَاءُ الْكَهَنَةِ وَالشُّيُوخُ، وَطَالَبُوا بِإِصْدَارِ الْحُكْمِ عَلَيْهِ. 16فَقُلْتُ لَهُمْ إِنَّهُ لَيْسَ مِنْ عَادَةِ الرُّومَانِ أَنْ يُصْدِرُوا حُكْماً عَلَى أَحَدٍ قَبْلَ أَن يُوَاجِهَ الَّذِينَ يَتَّهِمُونَهُ، لِتُتَاحَ لَهُ فُرْصَةُ الدِّفَاعِ عَنْ نَفْسِهِ. 17فَلَمَّا جَاءُوا إِلَى هُنَا أَسْرَعْتُ فِي الْيَوْمِ التَّالِي وعَقَدْتُ جَلْسَةً لِلنَّظَرِ فِي الْقَضِيَّةِ، وَأَمَرْتُ بِإِحْضَارِ الْمُتَّهَمِ. 18فَلَمَّا قَابَلَهُ مُتَّهِمُوهُ لَمْ يَذْكُرُوا ذَنْباً وَاحِداً مِمَّا كُنْتُ أَتَوَقَّعُ أَنْ يَتَّهِمُوهُ بِهِ، 19بَلْ جَادَلُوهُ فِي مَسَائِلَ تَخْتَصُّ بِدِيَانَتِهِمْ وَبِرَجُلٍ اسْمُهُ يَسُوعُ، مَاتَ وبُولُسُ يَقُولُ إِنَّهُ حَيٌّ! 20فَحِرْتُ فِي الأَمْرِ، وَعَرَضْتُ عَلَى الْمُتَّهَمِ أَنْ يَذْهَبَ إِلَى أُورُشَلِيمَ وَيُحَاكَمَ هُنَاكَ، 21إِلّا أَنَّهُ اسْتَأْنَفَ دَعْوَاهُ إِلَى جَلالَةِ الْقَيْصَرِ لِيُحَاكَمَ فِي حَضْرَتِهِ، فَأَمَرْتُ بِحِرَاسَتِهِ حَتَّى أُرْسِلَهُ إِلَى الْقَيْصَرِ». 22فَقَالَ أَغْرِيبَاسُ لِفَسْتُوسَ: «أُحِبُّ أَنْ أَسْمَعَ مَا يَقُولُهُ هَذَا الرَّجُلُ». فَأَجَابَ: «غَداً تَسْمَعُهُ».

بولس أمام أغريباس

23وَفِي الْيَوْمِ التَّالِي جَاءَ أَغْرِيبَاسُ وَبَرْنِيكِي، وَاسْتُقْبِلا بِاحْتِفَالٍ بَاذِخٍ، إِذْ دَخَلا قَاعَةَ الاسْتِمَاعِ يُحِيطُ بِهِمَا الْقَادَةُ الْعَسْكَرِيُّونَ وَوُجَهَاءُ الْمَدِينَةِ. وَأَمَرَ فَسْتُوسُ بِإِحْضَارِ بُولُسَ. 24فَلَمَّا أُحْضِرَ قَالَ فَسْتُوسُ: «أَيُّهَا الْمَلِكُ أَغْرِيبَاسُ، وَالسَّادَةُ الْحَاضِرُونَ هُنَا جَمِيعاً: أَمَامَكُمْ هَذَا الرَّجُلُ الَّذِي شَكَاهُ إِلَيَّ الشَّعْبُ الْيَهُودِيُّ كُلُّهُ فِي أُورُشَلِيمَ وَهُمْ يَصْرُخُونَ أَنَّهُ يَجِبُ أَلّا يَبْقَى حَيًّا 25وَتَبَيَّنَ لِي أَنَّهُ لَمْ يَفْعَلْ مَا يَسْتَحِقُّ الإِعْدَامَ. وَلَكِنَّهُ اسْتَأْنَفَ دَعْوَاهُ إِلَى جَلالَةِ الْقَيْصَرِ، فَقَرَّرْتُ أَنْ أُرْسِلَهُ إِلَيْهِ. 26وَلَكِنْ لَيْسَ لِي شَيْءٌ أَكِيدٌ أَكْتُبُهُ إِلَى جَلالَةِ الْقَيْصَرِ بِشَأْنِهِ. لِذَلِكَ أَحْضَرْتُهُ أَمَامَكُمْ جَمِيعاً، وَخَاصَّةً أَمَامَكَ أَيُّهَا الْمَلِكُ أَغْرِيبَاسُ، حَتَّى إِذَا تَمَّ النَّظَرُ فِي قَضِيَّتِهِ أَجِدُ مَا أَكْتُبُهُ. 27فَمِنْ غَيْرِ الْمَعْقُولِ، كَمَا أَرَى، أَنْ أُرْسِلَ إِلَى الْقَيْصَرِ سَجِيناً دُونَ تَحْدِيدِ التُّهَمِ الْمُوَجَّهَةِ إِلَيْهِ!»

Hindi Contemporary Version

प्रेरितों 25:1-27

कयसर से पौलॉस की विनती

1कार्यभार संभालने के तीन दिन बाद फ़ेस्तुस कयसरिया नगर से येरूशलेम गया. 2वहां उसके सामने प्रधान पुरोहितों और यहूदी अगुओं ने पौलॉस के विरुद्ध मुकद्दमा प्रस्तुत किया. उन्होंने फ़ेस्तुस से विनती की 3कि वह विशेष कृपादृष्टि कर पौलॉस को येरूशलेम भेज दें. वास्तव में उनकी योजना मार्ग में घात लगाकर पौलॉस की हत्या करने की थी. 4फ़ेस्तुस ने इसके उत्तर में कहा, “पौलॉस तो कयसरिया में बंदी है और मैं स्वयं शीघ्र वहां जा रहा हूं. 5इसलिये आप में से कुछ प्रधान व्यक्ति मेरे साथ वहां चलें. यदि पौलॉस को वास्तव में दोषी पाया गया तो उस पर मुकद्दमा चलाया जाएगा.”

6आठ-दस दिन ठहरने के बाद फ़ेस्तुस कयसरिया लौट गया और अगले दिन पौलॉस को न्यायालय में लाने की आज्ञा दी. 7पौलॉस के वहां आने पर येरूशलेम से आए यहूदियों ने उन्हें घेर लिया और उन पर अनेक गंभीर आरोपों की बौछार शुरू कर दी, जिन्हें वे स्वयं साबित न कर पाए.

8अपने बचाव में पौलॉस ने कहा, “मैंने न तो यहूदियों की व्यवस्था के विरुद्ध किसी भी प्रकार का अपराध किया है और न ही मंदिर या कयसर के विरुद्ध.”

9फिर भी यहूदियों को प्रसन्‍न करने के उद्देश्य से फ़ेस्तुस ने पौलॉस से प्रश्न किया, “क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारे इन आरोपों की सुनवाई मेरे सामने येरूशलेम में हो?”

10इस पर पौलॉस ने उत्तर दिया, “मैं कयसर के न्यायालय में खड़ा हूं. ठीक यही है कि मेरी सुनवाई यहीं हो. मैंने यहूदियों के विरुद्ध कोई अपराध नहीं किया है; यह तो आपको भी भली-भांति मालूम है. 11यदि मैं अपराधी ही हूं और यदि मैंने मृत्यु दंड के योग्य कोई अपराध किया ही है, तो मुझे मृत्यु दंड स्वीकार है. किंतु यदि इन यहूदियों द्वारा मुझ पर लगाए आरोप सच नहीं हैं तो किसी को यह अधिकार नहीं कि वह मुझे इनके हाथों में सौंपे. यहां मैं अपनी सुनवाई की याचिका कयसर के न्यायालय में भेज रहा हूं.”

12अपनी महासभा से विचार-विमर्श के बाद फ़ेस्तुस ने घोषणा की, “ठीक है. तुमने कयसर से सुनवाई की विनती की है तो तुम्हें कयसर के पास ही भेजा जाएगा.”

फ़ेस्तुस राजा अग्रिप्पा की सलाह लेते है

13कुछ समय बाद राजा अग्रिप्पा तथा बेरनिके फ़ेस्तुस से भेंट करने कयसरिया नगर आए. 14वे वहां बहुत समय तक ठहरे. फ़ेस्तुस ने राजा को पौलॉस के विषय में इस प्रकार बताया: “फ़ेलिक्स एक बंदी को यहां छोड़ गया है. 15जब मैं येरूशलेम गया हुआ था; वहां प्रधान पुरोहितों तथा यहूदी प्राचीनों ने उस पर आरोप लगाए थे. उन्होंने उसे मृत्यु दंड दिए जाने की मांग की.

16“मैंने उनके सामने रोमी शासन की नीति स्पष्ट करते हुए उनसे कहा कि इस नीति के अंतर्गत दोषी और दोष लगानेवालों के आमने-सामने सवाल जवाब किए बिना तथा दोषी को अपनी सफ़ाई पेश करने का अवसर दिए बिना दंड के लिए सौंप देना सही नहीं है. 17इसलिये उनके यहां इकट्ठा होते ही मैंने बिना देर किए दूसरे ही दिन इस व्यक्ति को न्यायालय में प्रस्तुत किए जाने की आज्ञा दी. 18जब आरोपी खड़े हुए, उन्होंने उस पर सवाल जवाब शुरू कर दिए किंतु मेरे अनुमान के विपरीत, ये आरोप उन अपराधों के नहीं थे जिनकी मुझे आशा थी 19ये उनके पारस्परिक मतभेद थे, जिनका संबंध मात्र उनके विश्वास से तथा येशु नामक किसी मृत व्यक्ति से था, जो इस बंदी पौलॉस के अनुसार जीवित है. 20मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस प्रकार के विषय का पता कैसे किया जाए. इसलिये मैंने यह जानना चाहा, क्या वह येरूशलेम में मुकद्दमा चलाए जाने के लिए राज़ी है. 21किंतु पौलॉस की इस विनती पर कि सम्राट के निर्णय तक उसे कारावास में रखा जाए, मैंने उसे कयसर के पास भेजे जाने तक बंदी बनाए रखने की आज्ञा दी है.”

22राजा अग्रिप्पा ने फ़ेस्तुस से कहा, “मैं स्वयं उसका बचाव सुनना चाहूंगा.”

फ़ेस्तुस ने उसे आश्वासन देते हुए कहा, “ठीक है, कल ही सुन लीजिए.”

राजा अग्रिप्पा के समक्ष पौलॉस

23अगले दिन जब राजा अग्रिप्पा और बेरनिके ने औपचारिक धूमधाम के साथ सभागार में प्रवेश किया, उनके साथ सेनापति और गणमान्य नागरिक भी थे. फ़ेस्तुस की आज्ञा पर पौलॉस को वहां लाया गया. 24फ़ेस्तुस ने कहना शुरू किया, “महाराज अग्रिप्पा तथा उपस्थित सज्जनो! इस व्यक्ति को देखिए, जिसके विषय में सारे यहूदी समाज ने येरूशलेम और यहां कयसरिया में मेरे न्यायालय में याचिका प्रस्तुत की है. ये लोग चिल्ला-चिल्लाकर यह कह रहे हैं कि अब उसे एक क्षण भी जीवित रहने का अधिकार नहीं है. 25किंतु अपनी जांच में मैंने इसमें ऐसा कुछ भी नहीं पाया जिसके लिए उसे मृत्यु दंड दिया जाए और अब, जब उसने स्वयं सम्राट के न्यायालय में याचिका प्रस्तुत की है, मैंने उसे रोम भेज देने का निश्चय किया है. 26फिर भी, उसके विषय में मेरे पास कुछ भी तय नहीं है जिसे लिखकर महाराजाधिराज की सेवा में प्रस्तुत किया जाए. यही कारण है कि मैंने उसे आप सबके सामने प्रस्तुत किया है—विशेष रूप से महाराज अग्रिप्पा आपके सामने, जिससे कि सारी जांच पूरी होने पर मुझे लिखने के लिए कुछ सबूत मिल जाएं, जो सम्राट की सेवा में प्रस्तुत किए जा सकें. 27क्योंकि मेरे लिए यह गलत है कि किसी भी दोषी को उसके आरोपों के वर्णन के बिना आगे भेजा जाए.”