ማሕልየ መሓልይ 2 – NASV & OL

New Amharic Standard Version

ማሕልየ መሓልይ 2:1-17

ሙሽራዪቱ

1እኔ የሳሮን ጽጌረዳ፣

የሸለቆም አበባ2፥1 ጸደይ ከመሆኑ ቀደም ብሎ የሚበቅል ቢጫ፣ ሐምራዊና ነጭ ቀለም ያሉት የአበባ ተክል ዝርያ ሊሆን ይችላል። ነኝ።

ሙሽራው

2በእሾኽ መካከል እንዳለ ውብ አበባ፣

ውዴም በቈነጃጅት መካከል እንዲሁ ናት።

ሙሽራዪቱ

3በዱር ዛፎች መካከል እንዳለ እንኮይ፣

ውዴም በጕልማሶች መካከል እንዲሁ ነው፤

በጥላው ሥር መቀመጥ ደስ ያሰኛል፤

የፍሬውም ጣፋጭነት ያረካኛል።

4ወደ ግብዣው አዳራሽ ወሰደኝ፤

በእኔ ላይ ያለው ዐላማው ፍቅር ነው።

5በዘቢብ አበረታቱኝ፤

በእንኮይም አስደስቱኝ፤

በፍቅሩ ተይዤ ታምሜአለሁና።

6ግራ እጁን ተንተርሻለሁ፤

ቀኝ እጁም ዐቅፎኛል።

7እናንት የኢየሩሳሌም ቈነጃጅት፣

ራሱ እስኪፈልግ ድረስ፣

ፍቅርን እንዳታስነሡት ወይም እንዳትቀሰቅሱት፣

በሚዳቋና በሜዳ ዋሊያ አማጥናችኋለሁ።

8እነሆ፤ የውዴ ድምፅ

በተራሮች ላይ እየዘለለ፣

በኰረብቶችም ላይ እየተወረወረ፣

ሲመጣ ይሰማኛል።

9ውዴ ሚዳቋ ወይም የዋሊያ ግልገል ይመስላል፤

እነሆ፤ ከቤታችን ግድግዳ ኋላ ቆሟል፤

በመስኮት ትክ ብሎ ወደ ውስጥ ያያል፤

በፍርግርጉም እያሾለከ ይመለከታል።

10ውዴም እንዲህ አለኝ፤

“ፍቅሬ ሆይ፤ ተነሺ፤

አንቺ የእኔ ቈንጆ፤ ከእኔ ጋር ነዪ።

11እነሆ! ክረምቱ ዐለፈ፤

ዝናቡም አባርቶ አበቃ፤

12አበቦች በምድር ላይ ታዩ፤

የዝማሬ ወቅት መጥቷል፤

የርግቦችም ድምፅ፣

በምድራችን ተሰማ።

13በለስ ፍሬዋን አፈራች፤

ያበቡ ወይኖችም መዐዛቸውን ሰጡ፤

ፍቅሬ ሆይ፤ ተነሺና ነዪ፤

አንቺ የእኔ ቈንጆ፤ ከእኔ ጋር ነዪ።”

ሙሽራው

14አንቺ በገደል ዐለት ንቃቃት፣

በተራሮችም ባሉ መደበቂያ ስፍራዎች ውስጥ ያለሽ ርግቤ ሆይ!

ፊትሽን አሳዪኝ፤

ድምፅሽንም አሰሚኝ፤

ድምፅሽ ጣፋጭ፣

መልክሽም ውብ ነውና።

15የወይን ተክሉን ቦታ፣

በማበብ ላይ ያለውን የወይን ተክል ቦታችንን፣

የሚያጠፉትን ቀበሮዎች፣

እነዚያን ትንንሽ ቀበሮዎች አጥምዳችሁ ያዙልን።

ሙሽራዪቱ

16ውዴ የእኔ ነው፤ እኔም የእርሱ ነኝ፣

እርሱ መንጋውን በውብ አበቦች መካከል ያሰማራል።

17ጎሕ ከመቅደዱ በፊት፣

ጥላውም ሳይሸሽ፣

ውዴ ሆይ፤ ተመለስ፤

ሚዳቋን ምሰል፤

ወይም በወጣ ገባ ኰረብቶች2፥17 ወይም የቤጠር ኰረብቶች

እንዳለው የዋሊያ ግልገል ሁን።

O Livro

Cântico de Salomão 2:1-17

Ela

1Eu sou a rosa de Sarom, o lírio dos vales.

Ele

2Sim, um lírio entre espinhos;

assim é a minha querida,

quando a comparo às outras.

Ela

3O meu amado é como uma macieira,

no meio das árvores do pomar,

quando comparado com outros rapazes.

Sento-me à sua desejada sombra;

o seu fruto é doce ao meu paladar.

4Leva-me a beber na sala de banquetes

e ergue sobre mim o estandarte do amor.

5Sustém-me com fruta, com uvas, com maçãs,

pois estou desfalecendo de amor.

6Põe a sua mão esquerda debaixo da minha cabeça

e com a direita abraça-me.

7Ó filhas de Jerusalém, conjuro-vos,

pelas gazelas e cervas dos bosques,

que não acordem o meu amado,

até que ele queira!

8Já o ouço, o meu amor!

Lá vem ele, galopando sobre os montes,

saltando por cima das colinas.

9O meu querido é como uma gazela,

ou o filho dum veado.

Vejam, aí está ele, por detrás do nosso muro;

agora, está já a olhar pelas janelas!

10Disse-me o meu amor:

“Levanta-te, querida, minha bela, e vem!

11Porque já passou o inverno;

a chuva parou e foi-se.

12As flores começam a brotar nos campos;

é o tempo de cantar e de podar;

ouve-se o cantar da rola nos nossos campos.

13As figueiras começam a dar os seus primeiros figos,

e os cachos começam a aparecer nas vinhas.

Já começam a cheirar bem!

Levanta-te, amor, minha linda, e vem!”

Ele

14Minha pomba, que te escondes nas fendas das penhas,

no fundo dos desfiladeiros,

faz-me ouvir a tua voz tão doce;

mostra-me o teu rosto encantador.

15As raposinhas andam correndo pelas vinhas.

Apanhem-nas,

porque os cachos estão já todos a desabrochar.

Ela

16O meu amor é meu e eu sou dele.

Ele apascenta o seu rebanho entre os lírios!

17Antes que refresque o dia e caiam as sombras,

volta, meu querido;

faz-te semelhante a uma gazela,

ou ao filho dum veado sobre os montes de Beter.