الجامعة 5 – NAV & HCV

Ketab El Hayat

الجامعة 5:1-20

الوفاء بالنذور للرب

1احْرِصْ أَنْ تَكُونَ قَدَمُكَ طَاهِرَةً عِنْدَمَا تَذْهَبُ إِلَى بَيْتِ الرَّبِّ، فَإِنَّ الدُّنُوَّ لِلاسْتِمَاعِ خَيْرٌ مِنْ تَقْرِيبِ ذَبِيحَةِ الْجُهَّالِ الَّذِينَ لَا يُدْرِكُونَ أَنَّهُمْ يَرْتَكِبُونَ شَراً. 2لَا تَتَسَرَّعْ فِي أَقْوَالِ فَمِكَ، وَلا يَتَهَوَّرْ قَلْبُكَ فِي نُطْقِ كَلامِ لَغْوٍ أَمَامَ اللهِ، فَاللهُ فِي السَّمَاءِ وَأَنْتَ عَلَى الأَرْضِ، فَلْتَكُنْ كَلِمَاتُكَ قَلِيلَةً. 3فَكَمَا تُرَاوِدُ الأَحْلامُ النَّائِمَ مِنْ كَثْرَةِ الْعَنَاءِ، كَذَلِكَ أَقْوَالُ الْجَهْلِ تَصْدُرُ عَنِ الإِفْرَاطِ فِي الْكَلامِ. 4عِنْدَمَا تَنْذِرُ نَذْراً لِلهِ لَا تُمَاطِلْ فِي الْوَفَاءِ بِهِ، لأَنَّهُ لَا يَرْضَى عَنِ الْجُهَّالِ، لِذَلِكَ أَوْفِ نُذُورَكَ، 5لأَنَّهُ خَيْرٌ أَنْ لَا تَنْذِرَ مِنْ أَنْ تَنْذِرَ وَلا تَفِيَ. 6لَا تَدَعْ فَمَكَ يَجْعَلُ جَسَدَكَ يُخْطِئُ، وَلا تَقُلْ فِي حَضْرَةِ الْمُرْسَلِ مِنَ اللهِ إِنَّهُ سَهْوٌ، إِذْ لِمَاذَا يَغْضَبُ اللهُ عَلَى كَلامِكَ فَيُبِيدَ كُلَّ عَمَلِ يَدَيْكَ؟ 7لأَنَّ فِي كَثْرَةِ الأَحْلامِ أَبَاطِيلَ، وَكَذَلِكَ فِي اللَّغْوِ الْمُفْرِطِ؛ فَاتَّقِ اللهَ.

الغنى الباطل

8إِنْ شَهِدْتَ فِي الْبِلادِ الْفَقِيرَ مَظْلُوماً، وَالْحَقَّ وَالْعَدْلَ مَزْهُوقَيْنِ فَلا تَعْجَبْ مِنَ الأَمْرِ، فَإِنَّ فَوْقَ الْمَسْؤولِ الْكَبِيرِ مَسْؤُولاً أَعْلَى مِنْهُ رُتْبَةً يُرَاقِبُهُ وَفَوْقَهُمَا مَنْ هُوَ أَعْظَمُ مَقَاماً مِنْهُمَا. 9وَغَلَّةُ الأَرْضِ يَسْتَفِيدُ مِنْهَا الْكُلُّ، وَالأَرْضُ الْمَفْلُوحَةُ ذَاتُ جَدْوَى لِلْمَلِكِ. 10مَنْ يُحِبُّ الْفِضَّةَ لَا يَشْبَعُ مِنْهَا، والمُوْلَعُ بِالْغِنَى لَا يَشْبَعُ مِنْ رِبْحٍ. وَهَذَا أَيْضاً بَاطِلٌ. 11إِنْ كَثُرَتِ الْخَيْرَاتُ كَثُرَ آكِلُوهَا أَيْضاً، وَأَيُّ جَدْوَى لِمَالِكِهَا إِلّا أَنْ تَكْتَحِلَ عَيْنَاهُ بِرُؤْيَتِهَا. 12نَوْمُ الْعَامِلِ هَنِيءٌ سَوَاءٌ أَكْثَرَ مِنَ الطَّعَامِ أَمْ أَقَلَّ، أَمَّا الْغَنِيُّ فَوَفْرَةُ غِنَاهُ تَجْعَلُهُ قَلِقاً أَرِقاً!

13قَدْ رَأَيْتُ شَرّاً مَقِيتاً تَحْتَ الشَّمْسِ: ثَرْوَةٌ مُدَّخَرَةٌ لِغَيْرِ صَاحِبِهَا. 14أَوْ ثَرْوَةٌ تَلِفَتْ فِي مَشْرُوعٍ خَاسِرٍ، وَلَمْ يُبْقِ (صَاحِبُهَا) لابْنِهِ الَّذِي أَنْجَبَهُ شَيْئاً. 15عُرْيَاناً يَخْرُجُ الْمَرْءُ مِنْ رَحِمِ أُمِّهِ، وَعُرْيَاناً يُفَارِقُ الدُّنْيَا كَمَا جَاءَ. لَا يَأْخُذُ شَيْئاً مِنْ تَعَبِهِ يَحْمِلُهُ مَعَهُ فِيِ يَدِهِ. 16وَهَذَا أَيْضاً شَرٌّ أَلِيمٌ، إِذْ إِنَّهُ يُفَارِقُ الدُّنْيَا كَمَا جَاءَ فَأَيُّ مَنْفَعَةٍ لَهُ، إِذْ إِنَّ تَعَبَهُ يَذْهَبُ أَدْرَاجَ الرِّيَاحِ؟ 17وَيُنْفِقُ أَيْضاً كُلَّ حَيَاتِهِ فِي الظُّلُمَاتِ يُقَاسِي مِنَ الأَسَى وَالْغَمِّ وَالْمَرَضِ وَالسُّخْطِ.

18فَتَأَمَّلْ مَا وَجَدْتُ: مِنَ الأَفْضَلِ وَالأَلْيَقِ أَنْ يَأْكُلَ الإِنْسَانُ وَيَشْرَبَ وَيَسْتَمْتِعَ بِمَا تَكَبَّدَهُ مِنْ عَنَاءٍ تَحْتَ الشَّمْسِ طَوَالَ أَيَّامِ حَيَاتِهِ الْقَلِيلَةِ الَّتِي وَهَبَهَا اللهُ لَهُ، لأَنَّ هَذَا هُوَ حَظُّهُ. 19وَكُلُّ إِنْسَانٍ حَبَاهُ اللهُ بِالثَّرْوَةِ، جَعَلَهُ يَسْتَمْتِعُ بِها، وَيَتَنَعَّمُ بِنَصِيبِهِ مِنْهَا لِيَفْرَحَ بِتَعَبِهِ. فَهَذَا أَيْضاً عَطِيَّةُ اللهِ لَهُ. 20عِنْدَئِذٍ لَا يُكْثِرُ مِنْ ذِكْرِ أَيَّامِ حَيَاتِهِ الْبَاطِلَةِ لأَنَّ اللهَ يُلْهِيهِ بِفَرَحِ قَلْبِهِ.

Hindi Contemporary Version

उद्बोधक 5:1-20

परमेश्वर से अपनी मन्‍नतें पूरी करें

1परमेश्वर के भवन में जाने पर अपने व्यवहार के प्रति सावधान रहना और मूर्खों के समान बलि भेंट करने से बेहतर है परमेश्वर के समीप आना. मूर्ख तो यह जानते ही नहीं कि वे क्या गलत कर रहे हैं.

2अपनी किसी बात में उतावली न करना,

न ही परमेश्वर के सामने किसी बात को रखने में जल्दबाजी करना,

क्योंकि परमेश्वर स्वर्ग में हैं

और तुम पृथ्वी पर हो,

इसलिये अपने शब्दों को थोड़ा ही रखना.

3स्वप्न किसी काम में बहुत अधिक लीन होने के कारण आता है,

और मूर्ख अपने बक-बक करने की आदत से पहचाना जाता है.

4यदि तुमने परमेश्वर से कोई मन्नत मानी तो उसे पूरा करने में देर न करना; क्योंकि परमेश्वर मूर्ख से प्रसन्‍न नहीं होते; पूरी करो अपनी मन्नत. 5मन्नत मानकर उसे पूरी न करने से कहीं अधिक अच्छा है कि तुम मन्नत ही न मानो. 6तुम्हारी बातें तुम्हारे पाप का कारण न हों. परमेश्वर के स्वर्गदूत के सामने तुम्हें यह न कहना पड़े, “मुझसे गलती हुई.” परमेश्वर कहीं तुम्हारी बातों के कारण क्रोधित न हों और तुम्हारे कामों को नाश कर डालें. 7क्योंकि स्वप्नों की अधिकता और बक-बक करने में खोखलापन होता है, इसलिए तुम परमेश्वर के प्रति भय बनाए रखो.

धन भी व्यर्थ

8अगर तुम अपने क्षेत्र में गरीब पर अत्याचार और उसे न्याय और धर्म से दूर होते देखो; तो हैरान न होना क्योंकि एक अधिकारी दूसरे अधिकारी के ऊपर होता है और उन पर भी एक बड़ा अधिकारी. 9वास्तव में जो राजा खेती को बढ़ावा देता है, वह सारे राज्य के लिए वरदान साबित होता है.

10जो धन से प्रेम रखता है, वह कभी धन से संतुष्ट न होगा;

और न ही वह जो बहुत धन से प्रेम करता है.

यह भी बेकार ही है.

11जब अच्छी वस्तुएं बढ़ती हैं,

तो वे भी बढ़ते हैं, जो उनको इस्तेमाल करते हैं.

उनके स्वामी को उनसे क्या लाभ?

सिवाय इसके कि वह इन्हें देखकर संतुष्ट हो सके.

12मेहनत करनेवाले के लिए नींद मीठी होती है,

चाहे उसने ज्यादा खाना खाया हो या कम,

मगर धनी का बढ़ता हुआ धन

उसे सोने नहीं देता.

13एक और बड़ी बुरी बात है जो मैंने सूरज के नीचे देखी:

कि धनी ने अपनी धन-संपत्ति अपने आपको ही कष्ट देने के लिए ही कमाई थी.

14उसने धन-संपत्ति निष्फल जगह लगा दी है,

वह धनी एक पुत्र का पिता बना.

मगर उसकी सहायता के लिए कोई नहीं है.

15जैसे वह अपनी मां के गर्भ से नंगा आया था,

उसे लौट जाना होगा, जैसे वह आया था.

ठीक वैसे ही वह अपने हाथ में

अपनी मेहनत के फल का कुछ भी नहीं ले जाएगा.

16यह भी एक बड़ी बुरी बात है:

ठीक जैसे एक व्यक्ति का जन्म होता है, वैसे ही उसकी मृत्यु भी हो जाएगी.

तो उसके लिए इसका क्या फायदा,

जो हवा को पकड़ने के लिए मेहनत करता है?

17वह अपना पूरा जीवन रोग,

क्रोध और बहुत ही निराशा में बिताता है.

18मैंने जो एक अच्छी बात देखी वह यह है: कि मनुष्य परमेश्वर द्वारा दिए गए जीवन में खाए, पिए और अपनी मेहनत में, जो वह सूरज के नीचे करता है, के ईनाम में खुश रहे. 19और हर एक व्यक्ति जिसे परमेश्वर ने धन-संपत्ति दी है तो परमेश्वर ने उसे उनका इस्तेमाल करने, उनके ईनाम को पाने और अपनी मेहनत से खुश होने की योग्यता भी दी है; यह भी परमेश्वर द्वारा दिया गया ईनाम ही है. 20मनुष्य अपने पूरे जीवन को हमेशा के लिए याद नहीं रखेगा, क्योंकि परमेश्वर उसे उसके दिल के आनंद में व्यस्त रखते हैं.