الأمثال 26 – NAV & HCV

Ketab El Hayat

الأمثال 26:1-28

1الْكَرَامَةُ لَا تَلِيقُ بِالْجَاهِلِ، فَهِيَ كَالثَّلْجِ فِي الصَّيْفِ، وَكَالْمَطَرِ فِي مَوْسِمِ الْحَصَادِ. 2اللَّعْنَةُ مِنْ غَيْرِ عِلَّةٍ لَا تَسْتَقِرُّ، فَهِيَ كَالْعُصْفُورِ الْحَائِمِ وَالْيَمَامَةِ الطَّائِرَةِ. 3السَّوْطُ لِلْفَرَسِ، وَاللِّجَامُ لِلْحِمَارِ، وَالْعَصَا لِظُهُورِ الْجُهَّالِ. 4لَا تُجِبِ الْجَاهِلَ بِمِثْلِ حُمْقِهِ لِئَلّا تُصْبِحَ مِثْلَهُ. 5رُدَّ عَلَى الْجَاهِلِ حَسَبَ جَهْلِهِ لِئَلّا يَضْحَى حَكِيماً فِي عَيْنَيْ نَفْسِهِ. 6مَنْ يَبْعَثُ بِرِسَالَةٍ عَلَى فَمِ جَاهِلٍ يَكُونُ كَمَنْ يَبْتُرُ الرِّجْلَيْنِ أَوْ يَجْرَعُ الظُّلْمَ. 7الْمَثَلُ فِي فَمِ الْجُهَّالِ كَسَاقَيِ الأَعْرَجِ الْمُرْتَخِيَتَيْنِ. 8مَثَلُ مَنْ يُكْرِمُ الْجَاهِلَ كَمَثَلِ مَنْ يَضْرِبُ حَجَراً فِي مِقْلاعٍ (وَيَقْذِفُهُ بَعِيداً). 9الْمَثَلُ فِي فَمِ الْجُهَّالِ كَشَوْكٍ فِي يَدِ سَكْرَانٍ. 10مَنْ يَسْتَأْجِرُ الْجَاهِلَ أَوْ أَيَّ عَابِرِ طَرِيقٍ، يَكُونُ كَرَامِي سِهَامٍ، يُصِيبُ عَلَى غَيْرِ هُدىً. 11كَمَا يَعُودُ الْكَلْبُ إِلَى قَيْئِهِ، هَكَذَا يَعُودُ الْجَاهِلُ لِيَرْتَكِبَ حَمَاقَتَهُ. 12أَشَاهَدْتَ رَجُلاً مُعْتَزّاً بِحِكْمَتِهِ؟ إِنَّ لِلْجَاهِلِ رَجَاءً فِي الإِصْلاحِ أَكْثَرَ مِنْهُ.

13يَقُولُ الْكَسُولُ: فِي الطَّرِيقِ أَسَدٌ، وَفِي الشَّوَارِعِ لَيْثٌ. 14كَمَا يَدُورُ الْبَابُ عَلَى مَفَاصِلِهِ، يَتَقَلَّبُ الْكَسُولُ فِي فِرَاشِهِ. 15يَدْفِنُ الْكَسُولُ يَدَهُ فِي صَحْفَتِهِ وَيَشُقُّ عَلَيْهِ أَنْ يَرُدَّهَا إِلَى فَمِهِ. 16الْكَسُولُ أَكْثَرُ حِكْمَةً فِي عَيْنَيْ نَفْسِهِ مِنْ سَبْعَةٍ يُجِيبُونَ بِفِطْنَةٍ. 17مَنْ يَتَدَخَّلْ فِي خُصُومَةٍ لَا تَعْنِيهِ يَكُنْ كَمَنْ يَقْبِضُ عَلَى أُذُنَيْ كَلْبٍ عَابِرٍ. 18كَمَجْنُونٍ يَقْذِفُ شَرَراً وَسِهَاماً وَمَوْتاً، 19مَنْ يَخْدَعُ قَرِيبَهُ، ثُمَّ يَقُولُ: كُنْتُ أَمْزَحُ فَقَطْ! 20كَمَا تَخْمَدُ النَّارُ لافْتِقَارِهَا إِلَى الْحَطَبِ، هَكَذَا تَكُفُّ الْخُصُومَةُ حِينَمَا يَغِيبُ النَّمَّامُ. 21كَمَا أَنَّ الْفَحْمَ يَزِيدُ مِنِ اتِّقَادِ الْجَمْرِ، وَالْحَطَبَ مِنِ اشْتِعَالِ النَّارِ، هَكَذَا صَاحِبُ الْخُصُومَةِ يُضْرِمُ النِّزَاعَ. 22هَمَسَاتُ النَّمَّامِ كَلُقَمٍ سَائِغَةٍ تَنْزَلِقُ إِلَى بَوَاطِنِ الْجَوْفِ!

23الشَّفَتَانِ الْمُتَوَهِّجَتَانِ وَالْقَلْبُ الشِّرِّيرُ مِثْلُ فِضَّةِ زَغَلٍ تُغَطِّي خَزَفَةً. 24الرَّجُلُ الْمَاكِرُ يُطْلِي نَوَايَاهُ بِمَعْسُولِ الشِّفَاهِ، وَلَكِنَّهُ يُرَاعِي الْحِقْدَ فِي قَلْبِهِ، 25إِنْ تَمَلَّقَكَ بِعُذُوبَةِ حَدِيثِهِ، فَلا تَأْتَمِنْهُ، لأَنَّ قَلْبَهُ مُفْعَمٌ بِسَبْعَةِ صُنُوفٍ مِنَ الرَّجَاسَاتِ. 26إِنْ وَارَى حِقْدَهُ بِمَكْرٍ، فَإِنَّ نِفَاقَهُ يُفْتَضَحُ بَيْنَ الْجَمَاعَةِ. 27مَنْ يَحْفِرُ حُفْرَةً لإِيذَاءِ غَيْرِهِ يَقَعُ فِيهَا، وَمَنْ دَحْرَجَ حَجَراً يَرْتَدُّ عَلَيْهِ. 28اللِّسَانُ الْكَاذِبُ يَمْقُتُ ضَحَايَاهُ، وَالْفَمُ الْمَلِقُ يُسَبِّبُ خَرَاباً.

Hindi Contemporary Version

सूक्ति संग्रह 26:1-28

1मूर्ख को सम्मानित करना वैसा ही असंगत है,

जैसा ग्रीष्मऋतु में हिमपात तथा कटनी के समय वृष्टि.

2निर्दोष को दिया गया शाप वैसे ही प्रभावी नहीं हो पाता,

जैसे गौरेया का फुदकना और अबाबील की उड़ान.

3जैसे घोड़े के लिए चाबुक और गधे के लिए लगाम,

वैसे ही मूर्ख की पीठ के लिए छड़ी निर्धारित है.

4मूर्ख को उसकी मूर्खता के अनुरूप उत्तर न दो,

कहीं तुम स्वयं मूर्ख सिद्ध न हो जाओ.

5मूर्खों को उनकी मूर्खता के उपयुक्त उत्तर दो,

अन्यथा वे अपनी दृष्टि में विद्वान हो जाएंगे.

6किसी मूर्ख के द्वारा संदेश भेजना वैसा ही होता है,

जैसा अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार लेना अथवा विषपान कर लेना.

7मूर्ख के मुख द्वारा निकला नीति सूत्र वैसा ही होता है,

जैसा अपंग के लटकते निर्जीव पैर.

8किसी मूर्ख को सम्मानित करना वैसा ही होगा,

जैसे पत्थर को गोफन में बांध देना.

9मूर्ख व्यक्ति द्वारा कहा गया नीतिवचन वैसा ही लगता है,

जैसे मद्यपि के हाथों में चुभा हुआ कांटा.

10जो अनजान मूर्ख यात्री अथवा मदोन्मत्त व्यक्ति को काम पर लगाता है,

वह उस धनुर्धारी के समान है, जो बिना किसी लक्ष्य के, लोगों को घायल करता है.

11अपनी मूर्खता को दोहराता हुआ व्यक्ति उस कुत्ते के समान है,

जो बार-बार अपने उल्टी की ओर लौटता है.

12क्या तुमने किसी ऐसे व्यक्ति को देखा है, जो स्वयं को बुद्धिमान समझता है?

उसकी अपेक्षा एक मूर्ख से कहीं अधिक अपेक्षा संभव है.

13आलसी कहता है, “मार्ग में सिंह है,

सिंह गलियों में छुपा हुआ है!”

14आलसी अपने बिछौने पर वैसे ही करवटें बदलते रहता है,

जैसे चूल पर द्वार.

15आलसी अपना हाथ भोजन की थाली में डाल तो देता है;

किंतु आलस्यवश वह अपना हाथ मुख तक नहीं ले जाता.

16अपने विचार में आलसी उन सात व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होता है,

जिनमें सुसंगत उत्तर देने की क्षमता होती है.

17मार्ग में चलते हुए अपरिचितों के मध्य चल रहे विवाद में हस्तक्षेप करते हुए व्यक्ति की स्थिति वैसी ही होती है,

मानो उसने वन्य कुत्ते को उसके कानों से पकड़ लिया हो.

18उस उन्मादी सा जो मशाल उछालता है या मनुष्य जो घातक तीर फेंकता है

19वैसे ही वह भी होता है जो अपने पड़ोसी की छलता है

और कहता है, “मैं तो बस ऐसे ही मजाक कर रहा था!”

20लकड़ी समाप्‍त होते ही आग बुझ जाती है;

वैसे ही जहां कानाफूसी नहीं की जाती, वहां कलह भी नहीं होता.

21जैसे प्रज्वलित अंगारों के लिए कोयला और अग्नि के लिए लकड़ी,

वैसे ही कलह उत्पन्‍न करने के लिए होता है विवादी प्रवृत्ति का व्यक्ति.

22फुसफुसाहट में उच्चारे गए शब्द स्वादिष्ट भोजन-समान होते हैं;

ये शब्द मनुष्य के पेट में समा जाते हैं.

23कुटिल हृदय के व्यक्ति के चिकने-चुपड़े शब्द वैसे ही होते हैं,

जैसे मिट्टी के पात्र पर चढ़ाई गई चांदी का कीट.

24घृणापूर्ण हृदय के व्यक्ति के मुख से मधुर वाक्य टपकते रहते हैं,

जबकि उसके हृदय में छिपा रहता है छल और कपट.

25जब वह मनभावन विचार व्यक्त करने लगे, तो उसका विश्वास न करना,

क्योंकि उसके हृदय में सात घिनौनी बातें छिपी हुई हैं.

26यद्यपि इस समय उसने अपने छल को छुपा रखा है,

उसकी कुटिलता का प्रकाशन भरी सभा में कर दिया जाएगा.

27जो कोई गड्ढा खोदता है, उसी में जा गिरता है;

जो कोई पत्थर को लुढ़का देता है, उसी के नीचे आ जाता है.

28झूठ बोलने वाली जीभ जिससे बातें करती है, वह उसके घृणा का पात्र होता है,

तथा विनाश का कारण होते हैं चापलूस के शब्द.