أيوب 30 – NAV & HCV

Ketab El Hayat

أيوب 30:1-31

1أَمَّا الآنَ فَقَدْ هَزَأَ بِي مَنْ هُمْ أَصْغَرُ مِنِّي سِنّاً، مَنْ كُنْتُ آنَفُ أَنْ أَجْعَلَ آبَاءَهُمْ مَعَ كِلابِ غَنَمِي. 2إِذْ مَا جَدْوَى قُوَّةِ أَيْدِيهِمْ لِي بَعْدَ أَنْ أُصِيبَتْ بِعَجْزٍ؟ 3يَهِيمُونَ هُزَالَى جِيَاعاً، يَنْبِشُونَ الْيَابِسَةَ الْخَرِبَةَ الْمَهْجُورَةَ. 4يَلْتَقِطُونَ الْخُبَّيْزَةَ بَيْنَ الْعُلَّيْقِ، وَخُبْزُهُمْ عُرُوقُ الرَّتَمِ. 5يُطْرَدُونَ مِنْ بَيْنِ النَّاسِ، وَيَصْرُخُونَ خَلْفَهُمْ كَمَا يَصْرُخُونَ عَلَى لِصٍّ. 6يُقِيمُونَ فِي كُهُوفِ الْوِدْيَانِ الْجَافَّةِ، بَيْنَ الصُّخُورِ وَفِي ثُقُوبِ الأَرْضِ. 7يَنْهَقُونَ بَيْنَ الْعُلَّيْقِ، وَيرْبِضُونَ تَحْتَ الْعَوْسَجِ. 8هُمْ حَمْقَى، أَبْنَاءُ قَوْمٍ خَامِلِينَ مَنْبُوذِينَ مِنَ الأَرْضِ.

9أَمَّا الآنَ فَقَدْ أَصْبَحْتُ مَثَارَ سُخْرِيَةٍ لَهُمْ وَمَثَلاً يَتَنَدَّرُونَ بِهِ 10يَشْمَئِزُّونَ مِنِّي وَيَتَجَافَوْنَنِي، لَا يَتَوَانَوْنَ عَنِ الْبَصْقِ فِي وَجْهِي! 11لأَنَّ اللهَ قَدْ أَرْخَى وَتَرَ قَوْسِي وَأَذَلَّنِي، انْقَلَبُوا ضِدِّي بِكُلِّ قُوَّتِهِمْ. 12قَامَ صِغَارُهُمْ عَنْ يَمِينِي يُزِلُّونَ قَدَمِي وَيُمَهِّدُونَ سُبُلَ دَمَارِي. 13سَدُّوا عَلَيَّ مَنْفَذَ مَهْرَبِي، وَتَضَافَرُوا عَلَى هَلاكِي، مِنْ غَيْرِ أَنْ يَكُونَ لِي مُعِينٌ. 14وَكَأَنَّمَا مِنْ ثُغْرَةٍ وَاسِعَةٍ تَدَافَعُوا نَحْوِي، وَانْدَفَعُوا هَاجِمِينَ بَيْنَ الرَّدْمِ. 15طَغَتْ عَلَيَّ الأَهْوَالُ، فَتَطَايَرَتْ كَرَامَتِي كَوَرَقَةٍ أَمَامَ الرِّيحِ، وَمَضَى رَغْدِي كَالسَّحَابِ.

16وَالآنَ تَهَافَتَتْ نَفْسِي عَلَيَّ وَتَنَاهَبَتْنِي أَيَّامُ بُؤْسِي. 17يَنْخَرُ اللَّيْلُ عِظَامِي، وَآلامِي الضَّارِيَةُ لَا تَهْجَعُ. 18تَشُدُّ بِعُنْفٍ لِبَاسِي وَتَحْزِمُنِي مِثْلَ طَوْقِ عَبَاءَتِي. 19قَدْ طَرَحَنِي اللهُ فِي الْحَمْأَةِ فَأَشْبَهْتُ التُّرَابَ وَالرَّمَادَ. 20أَسْتَغِيثُ بِكَ فَلا تَسْتَجِيبُ، وَأَقِفُ أَمَامَكَ فَلا تَأْبَهُ بِي. 21أَصْبَحْتَ لِي عَدُوّاً قَاسِياً، وَبِقُدْرَةِ ذِرَاعِكَ تَضْطَهِدُنِي. 22خَطَفْتَنِي وَأَرْكَبْتَنِي عَلَى الرِّيحِ، تُذِيبُنِي فِي زَئِيرِ الْعَاصِفَةِ. 23فَأَيْقَنْتُ أَنَّكَ تَسُوقُنِي إِلَى الْمَوْتِ، وَإِلَى دَارِ مِيعَادِ كُلِّ حَيٍّ. 24وَلَكِنْ، أَلا يَمُدُّ إِنْسَانٌ يَدَهُ مِنْ تَحْتِ الأَنْقَاضِ؟ أَوَ لَا يَسْتَغِيثُ فِي بَلِيَّتِهِ؟

25أَلَمْ أَبْكِ لِمَنْ قَسَى عَلَيْهِ يَوْمُهُ؟ أَلَمْ تَحْزَنْ نَفْسِي لِلْمِسْكِينِ؟ 26وَلَكِنْ حِينَ تَرَقَّبْتُ الْخَيْرَ أَقْبَلَ الشَّرُّ، وَحِينَ تَوَقَّعْتُ النُّورَ هَجَمَ الظَّلامُ. 27قَلْبِي يَغْلِي وَلَنْ يَهْدَأَ، وَأَيَّامُ الْبَلِيَّةِ غَشِيَتْنِي. 28فَأَمْضِي نَائِحاً لَكِنْ مِنْ غَيْرِ عَزَاءٍ. أَقِفُ بَيْنَ النَّاسِ أَطْلُبُ الْعَوْنَ. 29صِرْتُ أَخاً لِبَنَاتِ آوَى، وَرَفِيقاً لِلنَّعَامِ. 30اسْوَدَّ جِلْدِي عَلَيَّ وَتَقَشَّرَ، وَاحْتَرَقَتْ عِظَامِي مِنَ الْحُمَّى 31صَارَتْ قِيثَارَتِي لِلنَّوْحِ، وَمِزْمَارِي لِصَوْتِ النَّادِبِينَ.

Hindi Contemporary Version

अय्योब 30:1-31

1“किंतु अब तो वे ही मेरा उपहास कर रहे हैं,

जो मुझसे कम उम्र के हैं,

ये वे ही हैं, जिनके पिताओं को मैंने इस योग्य भी न समझा था

कि वे मेरी भेडों के रक्षक कुत्तों के साथ बैठें.

2वस्तुतः उनकी क्षमता तथा कौशल मेरे किसी काम का न था,

शक्ति उनमें रह न गई थी.

3अकाल एवं गरीबी ने उन्हें कुरूप बना दिया है,

रात्रि में वे रेगिस्तान के कूड़े में जाकर

सूखी भूमि चाटते हैं.

4वे झाड़ियों के मध्य से लोनिया साग एकत्र करते हैं,

झाऊ वृक्ष के मूल उनका भोजन है.

5वे समाज से बहिष्कृत कर दिए गए हैं,

और लोग उन पर दुत्कार रहे थे, जैसे कि वे चोर थे.

6परिणाम यह हुआ कि वे अब भयावह घाटियों में,

भूमि के बिलों में तथा चट्टानों में निवास करने लगे हैं.

7झाड़ियों के मध्य से वे पुकारते रहते हैं;

वे तो कंटीली झाड़ियों के नीचे एकत्र हो गए हैं.

8वे मूर्ख एवं अपरिचित थे,

जिन्हें कोड़े मार-मार कर देश से खदेड़ दिया गया था.

9“अब मैं ऐसों के व्यंग्य का पात्र बन चुका हूं;

मैं उनके सामने निंदा का पर्याय बन चुका हूं.

10उन्हें मुझसे ऐसी घृणा हो चुकी है, कि वे मुझसे दूर-दूर रहते हैं;

वे मेरे मुख पर थूकने का कोई अवसर नहीं छोड़ते.

11ये दुःख के तीर मुझ पर परमेश्वर द्वारा ही छोड़े गए हैं,

वे मेरे सामने पूर्णतः निरंकुश हो चुके हैं.

12मेरी दायीं ओर ऐसे लोगों की सन्तति विकसित हो रही है.

जो मेरे पैरों के लिए जाल बिछाते है,

वे मेरे विरुद्ध घेराबंदी ढलान का निर्माण करते हैं.

13वे मेरे निकलने के रास्ते बिगाड़ते;

वे मेरे नाश का लाभ पाना चाहते हैं.

उन्हें कोई भी नहीं रोकता.

14वे आते हैं तो ऐसा मालूम होता है मानो वे दीवार के सूराख से निकलकर आ रहे हैं;

वे तूफान में से लुढ़कते हुए आते मालूम होते हैं.

15सारे भय तो मुझ पर ही आ पड़े हैं;

मेरा समस्त सम्मान, संपूर्ण आत्मविश्वास मानो वायु में उड़ा जा रहा है.

मेरी सुरक्षा मेघ के समान खो चुकी है.

16“अब मेरे प्राण मेरे अंदर में ही डूबे जा रहे हैं;

पीड़ा के दिनों ने मुझे भयभीत कर रखा है.

17रात्रि में मेरी हड्डियों में चुभन प्रारंभ हो जाती है;

मेरी चुभती वेदना हरदम बनी रहती है.

18बड़े ही बलपूर्वक मेरे वस्त्र को पकड़ा गया है

तथा उसे मेरे गले के आस-पास कस दिया गया है.

19परमेश्वर ने मुझे कीचड़ में डाल दिया है,

मैं मात्र धूल एवं भस्म होकर रह गया हूं.

20“मैं आपको पुकारता रहता हूं,

किंतु आप मेरी ओर ध्यान नहीं देते.

21आप मेरे प्रति क्रूर हो गए हैं;

आप अपनी भुजा के बल से मुझ पर वार करते हैं.

22जब आप मुझे उठाते हैं, तो इसलिये कि मैं वायु प्रवाह में उड़ जाऊं;

तूफान में तो मैं विलीन हो जाता हूं;

23अब तो मुझे मालूम हो चुका है, कि आप मुझे मेरी मृत्यु की ओर ले जा रहे हैं,

उस ओर, जहां अंत में समस्त जीवित प्राणी एकत्र होते जाते हैं.

24“क्या वह जो, कूड़े के ढेर में जा पड़ा है,

सहायता के लिए हाथ नहीं बढ़ाता अथवा क्या नाश की स्थिति में कोई सहायता के लिए नहीं पुकारता.

25क्या संकट में पड़े व्यक्ति के लिए मैंने आंसू नहीं बहाया?

क्या दरिद्र व्यक्ति के लिए मुझे वेदना न हुई थी?

26जब मैंने कल्याण की प्रत्याशा की, मुझे अनिष्ट प्राप्‍त हुआ;

मैंने प्रकाश की प्रतीक्षा की, तो अंधकार छा गया.

27मुझे विश्रान्ति नही है, क्योंकि मेरी अंतड़ियां उबल रही हैं;

मेरे सामने इस समय विपत्ति के दिन आ गए हैं.

28मैं तो अब सांत्वना रहित, विलाप कर रहा हूं;

मैं सभा में खड़ा हुआ सहायता की याचना कर रहा हूं.

29मैं तो अब गीदड़ों का भाई

तथा शुतुरमुर्गों का मित्र बनकर रह गया हूं.

30मेरी खाल काली हो चुकी है;

ज्वर में मेरी हड्डियां गर्म हो रही हैं.

31मेरा वाद्य अब करुण स्वर उत्पन्‍न कर रहा है,

मेरी बांसुरी का स्वर भी ऐसा मालूम होता है, मानो कोई रो रहा है.