Аюб 19 – CARST & HCV

Священное Писание (Восточный перевод), версия для Таджикистана

Аюб 19:1-29

Ответ Аюба

1Тогда Аюб ответил:

2– Долго ещё вам мучить меня

и терзать своими словами?

3Вот уже десять раз вы меня унижали.

Вам не стыдно меня оскорблять?

4Если я и впрямь согрешил,

мой грех при мне и останется.

5А если хотите передо мною кичиться,

позором моим меня упрекать,

6то знайте: Всевышний причинил мне зло

и сеть Свою на меня набросил.

7Я кричу: «Обида!» – но нет ответа;

я зову на помощь, но нет суда.

8Он мой путь заградил – не пройти;

Он покрыл мои тропы мглой.

9Он совлёк с меня мою славу

и с головы моей снял венец.

10Он крушит меня со всех сторон – я гибну;

Он исторг надежду мою, как дерево.

11Воспылал на меня гнев Его;

Он считает меня врагом.

12Подступают вместе Его полки,

вал осадный против меня возводят,

стан разбивают вокруг моего шатра.

13Он удалил моих братьев от меня,

и близкие люди стали чужими.

14Отвернулись сородичи от меня,

и друзья обо мне забыли.

15Гости мои и мои служанки

считают меня чужаком,

глядят на меня, как на постороннего.

16Я зову слугу, а ответа нет;

я должен умолять его.

17Опротивело моей жене моё дыхание,

я стал бы отвратителен даже своим сыновьям.

18Даже малые дети меня презирают;

поднимаюсь – они надо мной смеются.

19Близкие друзья гнушаются меня;

те, кого я любил, обратились против меня.

20От меня остались лишь кожа да кости,

чуть душа держится в теле19:20 Букв.: «уцелела лишь кожа около зубов»..

21Сжальтесь, сжальтесь, друзья мои, надо мной,

ведь меня поразила рука Всевышнего.

22Зачем вы преследуете меня, как Всевышний,

и не можете плотью моей насытиться?

23О, если бы записаны были мои слова,

были бы в свитке начертаны,

24выбиты железным резцом по свинцу,

врезаны в камень навеки!

25Но я знаю: Искупитель19:25 Или: «Защитник». мой жив,

и в конце Он встанет над прахом.

И когда моя кожа с меня спадёт,

26я всё же во плоти19:26 Или: «без плоти». моей увижу Всевышнего;

27я сам увижу Его и не буду Ему чужим,

своими глазами увижу Его.

Как томится сердце в груди моей!

28Если скажете: «Как нам его преследовать,

раз корень зла находится в нём?» –

29то бойтесь меча,

ведь гнев Всевышнего пошлёт карающий меч,

чтобы вы познали, что есть суд.

Hindi Contemporary Version

अय्योब 19:1-29

परमेश्वर तथा मनुष्य द्वारा विश्वास का उत्तर

1तब अय्योब ने उत्तर दिया:

2“तुम कब तक मुझे यातना देते रहोगे

तथा अपने इन शब्दों से कुचलते रहोगे?

3इन दसों अवसरों पर तुम मेरा अपमान करते रहे हो;

मेरे साथ अन्याय करते हुए तुम्हें लज्जा तक न आई.

4हां, यदि वास्तव में मुझसे कोई त्रुटि हुई है,

तो यह त्रुटि मेरे लिए चिंता का विषय है.

5यदि तुम वास्तव में स्वयं को मुझसे उच्चतर प्रदर्शित करोगे

तथा मुझ पर मेरी स्थिति को निंदनीय प्रमाणित कर दोगे,

6तब मैं यह समझ लूंगा, कि मेरी यह स्थिति परमेश्वर की ओर से है

तथा उन्हीं ने मुझे इस जाल में डाला है.

7“मैं तो चिल्ला रहा हूं, ‘अन्याय!’ किंतु मुझे कोई उत्तर नहीं मिल रहा;

मैं सहायता के लिए पुकार रहा हूं, किंतु न्याय कहीं से मिल नहीं रहा है.

8परमेश्वर ने ही जब मेरे मार्ग रोक दिया है, मैं आगे कैसे बढ़ूं?

उन्होंने तो मेरे मार्ग अंधकार कर दिए हैं.

9मेरा सम्मान मुझसे छीन लिया गया है,

तथा जो मुकुट मेरे सिर पर था, वह भी उतार लिया गया है.

10वह मुझे चारों ओर से तोड़ने में शामिल हैं, कि मैं नष्ट हो जाऊं;

उन्होंने मेरी आशा को उखाड़ दिया है, जैसे किसी वृक्ष से किया जाता है.

11अपना कोप भी उन्होंने मुझ पर उंडेल दिया है;

क्योंकि उन्होंने तो मुझे अपना शत्रु मान लिया है.

12उनकी सेना एकत्र हो रही है;

उन्होंने मेरे विरुद्ध ढलान तैयार की है

तथा मेरे तंबू के आस-पास घेराबंदी कर ली है.

13“उन्होंने तो मेरे भाइयों को मुझसे दूर कर दिया है;

मेरे परिचित मुझसे पूर्णतः अनजान हो गए हैं.

14मेरे संबंधियों ने तो मेरा त्याग कर दिया है;

मेरे परम मित्रों ने मुझे याद करना छोड़ दिया है.

15वे, जो मेरी गृहस्थी के अंग हैं तथा जो मेरी परिचारिकाएं हैं;

वे सब मुझे परदेशी समझने लगी हैं.

16मैं अपने सेवक को अपने निकट बुलाता हूं,

किंतु वह उत्तर नहीं देता.

17मेरी पत्नी के लिए अब मेरा श्वास घृणास्पद हो गया है;

अपने भाइयों के लिए मैं घिनौना हो गया हूं.

18यहां तक कि छोटे-छोटे बालक मुझे तुच्छ समझने लगे हैं;

जैसे ही मैं उठता हूं, वे मेरी निंदा करते हैं.

19मेरे सभी सहयोगी मेरे विद्वेषी हो गए हैं;

मुझे जिन-जिन से प्रेम था, वे अब मेरे विरुद्ध हो चुके हैं.

20अब तो मैं मात्र चमड़ी तथा हड्डियों का रह गया हूं;

मैं जो हूं, मृत्यु से बाल-बाल बच निकला हूं.

21“मेरे मित्रों, मुझ पर कृपा करो,

क्योंकि मुझ पर तो परमेश्वर का प्रहार हुआ है.

22किंतु परमेश्वर के समान तुम मुझे क्यों सता रहे हो?

क्या मेरी देह को यातना देकर तुम्हें संतोष नहीं हुआ है?

23“कैसा होता यदि मेरे इन विचारों को लिखा जाता,

इन्हें पुस्तक का रूप दिया जा सकता,

24सीसे के पटल पर लौह लेखनी से

उन्हें चट्टान पर स्थायी रूप से खोद दिया जाता!

25परंतु मुझे यह मालूम है कि मेरा छुड़ाने वाला जीवित हैं,

तथा अंततः वह पृथ्वी पर खड़ा रहेंगे.

26मेरी देह के नष्ट हो जाने के बाद भी,

मैं अपनी देह में ही परमेश्वर का दर्शन करूंगा;

27जिन्हें मैं अपनी ही आंखों से देखूंगा,

उन्हें अन्य किसी के नहीं, बल्कि मेरे ही नेत्र देखेंगे.

मेरा मन अंदर ही अंदर उतावला हुआ जा रहा है!

28“अब यदि तुम यह विचार करने लगो, ‘हम उसे कैसे सता सकेंगे?’

अथवा, ‘उस पर हम कौन सा आरोप लगा सकेंगे?’

29तब उपयुक्त यह होगा कि तुम अपने ऊपर तलवार के प्रहार का ध्यान रखो;

क्योंकि क्रोध का दंड तलवार से होता है,

तब तुम्हें यह बोध होना अनिवार्य है, कि एक न्याय का समय है.”