स्तोत्र 104:1-18 HCV

स्तोत्र 104:1-18

स्तोत्र 104

मेरे प्राण, याहवेह का स्तवन करो.

याहवेह, मेरे परमेश्वर, अत्यंत महान हैं आप;

वैभव और तेज से विभूषित हैं आप.

आपने ज्योति को वस्त्र समान धारण किया हुआ है;

आपने वस्त्र समान आकाश को विस्तीर्ण किया है.

आपने आकाश के जल के ऊपर ऊपरी कक्ष की धरनें स्थापित की हैं,

मेघ आपके रथ हैं

तथा आप पवन के पंखों पर यात्रा करते हैं.

हवा को आपने अपना संदेशवाहक बनाया है,

अग्निशिखाएं आपकी परिचारिकाएं हैं.

आपने ही पृथ्वी को इसकी नींव पर स्थापित किया है;

इसे कभी भी सरकाया नहीं जा सकता.

आपने गहन जल के आवरण से इसे परिधान समान सुशोभित किया;

जल स्तर पर्वतों से ऊंचा उठ गया था.

किंतु जब आपने फटकार लगाई, तब जल हट गया,

आपके गर्जन समान आदेश से जल-राशियां भाग खड़ी हुई;

जब पर्वतों की ऊंचाई बढ़ी,

तो घाटियां गहरी होती गईं,

ठीक आपके नियोजन के अनुरूप निर्धारित स्थान पर.

आपके द्वारा उनके लिए निर्धारित सीमा ऐसी थी;

जिसका अतिक्रमण उनके लिए संभव न था; और वे पृथ्वी को पुनः जलमग्न न कर सकें.

आप ही के सामर्थ्य से घाटियों में झरने फूट पड़ते हैं;

और पर्वतों के मध्य से जलधाराएं बहने लगती हैं.

इन्हीं से मैदान के हर एक पशु को पेय जल प्राप्‍त होता है;

तथा वन्य गधे भी प्यास बुझा लेते हैं.

इनके तट पर आकाश के पक्षियों का बसेरा होता है;

शाखाओं के मध्य से उनकी आवाज निकलती है.

वही अपने आवास के ऊपरी कक्ष से पर्वतों की सिंचाई करते हैं;

आप ही के द्वारा उपजाए फलों से पृथ्वी तृप्‍त है.

वह पशुओं के लिए घास उत्पन्‍न करते हैं,

तथा मनुष्य के श्रम के लिए वनस्पति,

कि वह पृथ्वी से आहार प्राप्‍त कर सके:

मनुष्य के हृदय मगन करने के निमित्त द्राक्षारस,

मुखमंडल को चमकीला करने के निमित्त तेल,

तथा मनुष्य के जीवन को संभालने के निमित्त आहार उत्पन्‍न होता है.

याहवेह द्वारा लगाए वृक्षों के लिए अर्थात् लबानोन में

लगाए देवदार के वृक्षों के लिए जल बड़ी मात्रा में होता है.

पक्षियों ने इन वृक्षों में अपने घोंसले बनाए हैं;

सारस ने अपना घोंसला चीड़ के वृक्ष में बनाया है.

ऊंचे पर्वतों में वन्य बकरियों का निवास है;

चट्टानों में चट्टानी बिज्जुओं ने आश्रय लिया है.

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