सूक्ति संग्रह 7:6-20
मैं खिड़की के पास
खड़ा हुआ जाली में से बाहर देख रहा था.
मुझे एक साधारण,
सीधा-सादा युवक दिखाई दिया,
इस युवक में समझदारी तो थी ही नहीं,
यह युवक उस मार्ग पर जा रहा था, जो इस स्त्री के घर की ओर जाता था,
सड़क की छोर पर उसका घर था.
यह संध्याकाल गोधूली की बेला थी,
रात्रि के अंधकार का समय हो रहा था.
तब मैंने देखा कि एक स्त्री उससे मिलने निकल आई,
उसकी वेशभूषा वेश्या के समान थी उसके हृदय से धूर्तता छलक रही थी.
(वह अत्यंत भड़कीली और चंचल थी,
वह अपने घर पर तो ठहरती ही न थी;
वह कभी सड़क पर दिखती थी तो कभी नगर चौक में,
वह प्रतीक्षा करती हुई किसी भी चौराहे पर देखी जा सकती थी.)
आगे बढ़ के उसने उस युवक को बाहों में लेकर चूम लिया
और बड़ी ही निर्लज्जता से उससे कहने लगी:
“मुझे बलि अर्पित करनी ही थी
और आज ही मैंने अपने मन्नत को पूर्ण कर लिया हैं.
इसलिये मैं तुमसे मिलने आ सकी हूं;
मैं कितनी उत्कण्ठापूर्वक तुम्हें खोज रही थी, देखो, अब तुम मुझे मिल गए हो!
मैंने उत्कृष्ट चादरों से बिछौना सजाया है
इन पर मिस्र देश की रंगीन कलाकृतियां हैं.
मैंने बिछौने को गन्धरस,
अगरू और दालचीनी से सुगंधित किया है.
अब देर किस लिए, प्रेम क्रीड़ा के लिए हमारे पास प्रातःकाल तक समय है;
हम परस्पर प्रेम के द्वारा एक दूसरे का समाधान करेंगे!
मेरे पति प्रवास पर हैं;
बड़े लंबे समय का है उनका प्रवास.
वह अपने साथ बड़ी धनराशि लेकर गए हैं
वह तो पूर्णिमा पर ही लौटेंगे.”