सूक्ति संग्रह 17:25-28, सूक्ति संग्रह 18:1-6 HCV

सूक्ति संग्रह 17:25-28

मूर्ख पुत्र अपने पिता के लिए शोक का कारण होता है

और जिसने उसे जन्म दिया है उसके हृदय की कड़वाहट का कारण.

यह कदापि उपयुक्त नहीं है कि किसी धर्मी को दंड दिया जाए,

और न किसी सज्जन पर प्रहार किया जाए.

ज्ञानी जन शब्दों पर नियंत्रण रखता है,

और समझदार जन शांत बना रहता है.

जब तक मूर्ख मौन रहता है, बुद्धिमान माना जाता है,

उसे उस समय तक बुद्धिमान समझा जाता है, जब तक वह वार्तालाप में सम्मिलित नहीं होता.

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सूक्ति संग्रह 18:1-6

जिसने स्वयं को समाज से अलग कर लिया है, वह अपनी ही अभिलाषाओं की पूर्ति में संलिप्‍त रहता है,

वह हर प्रकार की प्रामाणिक बुद्धिमत्ता को त्याग चुका है.

विवेकशीलता में मूर्ख की कोई रुचि नहीं होती.

उसे तो मात्र अपने ही विचार व्यक्त करने की धुन रहती है.

जैसे ही दृष्टि का प्रवेश होता है, घृणा भी साथ साथ चली आती है,

वैसे ही अपमान के साथ साथ निर्लज्जता भी.

मनुष्य के मुख से बोले शब्द गहन जल समान होते हैं,

और ज्ञान का सोता नित प्रवाहित उमड़ती नदी समान.

दुष्ट का पक्ष लेना उपयुक्त नहीं

और न धर्मी को न्याय से वंचित रखना.

मूर्खों का वार्तालाप कलह का प्रवेश है,

उनके मुंह की बातें उनकी पिटाई की न्योता देती हैं.

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