1 कोरिंथ 12:1-26 HCV

1 कोरिंथ 12:1-26

पवित्र आत्मा द्वारा दी गई क्षमताएं

अब पवित्र आत्मा द्वारा दी गई क्षमताओं से संबंधित बातों के विषय में: मैं नहीं चाहता, प्रिय भाई बहनो, कि तुम इनसे अनजान रहो. तुम्हें याद होगा कि मसीह में अविश्वासी स्थिति में तुम गूंगी मूर्तियों के पीछे चलने के लिए भटका दिए गए थे. इसलिये मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि परमेश्वर के आत्मा से प्रेरित कोई भी व्यक्ति यह कह ही नहीं सकता “शापित हो येशु” और न ही कोई पवित्र आत्मा की प्रेरणा के बिना कह सकता है “येशु प्रभु हैं.”

आत्मा द्वारा दी गई क्षमताएं अलग-अलग हैं किंतु आत्मा एक ही हैं. सेवकाई भी अलग-अलग हैं किंतु प्रभु एक ही हैं. काम करने के तरीके भी अनेक हैं किंतु परमेश्वर एक ही हैं, जो सब मनुष्यों में उनका प्रभाव उत्पन्‍न करते हैं.

प्रत्येक को पवित्र आत्मा का प्रकाशन सबके बराबर लाभ के उद्देश्य से दिया जाता है. आत्मा द्वारा किसी को ज्ञान भरी सलाह की क्षमता और किसी को उन्हीं आत्मा द्वारा ज्ञान भरी शिक्षा की क्षमता प्रदान की जाती है; किसी को उन्हीं आत्मा द्वारा विश्वास की तथा किसी को उन्हीं आत्मा द्वारा चंगा करने की क्षमता प्रदान की जाती है; किसी को सामर्थ्य के काम करने की, किसी को भविष्यवाणी की. किसी को आत्माओं की पहचान की, किसी को अन्य भाषाओं की तथा किसी को भाषाओं के वर्णन की क्षमता. इन सबको सिर्फ एक और एक ही आत्मा के द्वारा किया जाता है तथा वह हर एक में ये क्षमताएं व्यक्तिगत रूप से बांट देते हैं.

शरीर की अनुरूपता: एक शरीर, अनेक अंग

जिस प्रकार शरीर एक है और उसके अंग अनेक, शरीर के अंग अनेक होने पर भी शरीर एक ही है; इसी प्रकार मसीह भी हैं. यहूदी हो या यूनानी, दास हो या स्वतंत्र, एक ही शरीर होने के लिए एक ही आत्मा में हमारा बपतिस्मा किया गया तथा हम सभी को एक ही आत्मा पिलाया गया. शरीर सिर्फ एक अंग नहीं परंतु अनेक अंग है.

यदि पैर कहे, “मैं हाथ नहीं इसलिये मैं शरीर का अंग नहीं.” तो क्या उसके ऐसा कहने से वह शरीर का अंग नहीं रह जाता? और यदि कान कहे, “मैं आंख नहीं इसलिये मैं शरीर का अंग नहीं.” तो क्या उसके ऐसा कहने से वह शरीर का अंग नहीं रह जाता? यदि सारा शरीर आंख ही होता तो सुनना कैसे होता? यदि सारा शरीर कान ही होता तो सूंघना कैसे होता? किंतु परमेश्वर ने अपनी अच्छी बुद्धि के अनुसार हर एक अंग को शरीर में नियुक्त किया है. यदि सभी अंग एक ही अंग होते तो शरीर कहां होता? इसलिये वास्तविकता यह है कि अंग अनेक किंतु शरीर एक ही है.

आंख हाथ से नहीं कह सकती, “मुझे तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं,” या हाथ-पैर से, “मुझे तुम्हारी ज़रूरत नहीं.” इसके विपरीत शरीर के वे अंग, जो दुर्बल मालूम होते हैं, बहुत ज़रूरी हैं. शरीर के जो अंग तुलना में कम महत्व के समझे जाते हैं, उन्हीं को हम अधिक महत्व देते हैं और तुच्छ अंगों को हम विशेष ध्यान रखते हुए ढांके रखते हैं, जबकि शोभनीय अंगों को इसकी कोई ज़रूरत नहीं किंतु परमेश्वर ने शरीर में अंगों को इस प्रकार बनाया है कि तुच्छ अंगों की महत्ता भी पहचानी जाए कि शरीर में कोई फूट न हो परंतु हर एक अंग एक दूसरे का ध्यान रखे. यदि एक अंग को पीड़ा होती है, तो उसके साथ सभी अंग पीड़ित होते हैं. यदि एक अंग को सम्मानित किया जाता है तो उसके साथ सभी अंग उसके आनंद में सहभागी होते हैं.

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