मत्ती 27 – NCA & HOF

New Chhattisgarhi Translation (नवां नियम छत्तीसगढ़ी)

मत्ती 27:1-66

यहूदा ह अपन-आप ला फांसी लगा लेथे

(प्रेरितमन के काम 1:18-19)

1जब बिहनियां होईस, त जम्मो मुखिया पुरोहित अऊ मनखेमन के अगुवामन यीसू ला मार डारे के फैसला करिन। 2ओमन यीसू ला बांधिन अऊ ओला ले जाके राजपाल पीलातुस के हांथ म सऊंप दीन27:2 पीलातुस ह रोमी राजपाल रिहिस।

3यीसू के संग बिस‍वासघात करइया यहूदा ह जब देखिस कि यीसू ला दोसी ठहराय गे हवय, त ओह पछताईस अऊ ओह मुखिया पुरोहित अऊ अगुवामन ला चांदी के तीस सिक्‍का वापिस कर दीस, 4अऊ कहिस, “मेंह पाप करे हवंव काबरकि मेंह एक निरदोस मनखे ला मरवाय बर ओकर संग बिस‍वासघात करेंव।”

ओमन ह कहिन, “हमन ला एकर ले का मतलब! एला तें जान।”

5तब यहूदा ह ओ चांदी के सिक्‍कामन ला मंदिर म फटिक दीस अऊ उहां ले चले गीस अऊ जाके फांसी लगा लीस।

6मुखिया पुरोहितमन ओ सिक्‍कामन ला उठाईन अऊ कहिन, “ए पईसा ला खजाना म रखना कानून के मुताबिक सही नो हय, काबरकि एह लहू के कीमत अय।” 7एकरसेति ओमन ओ पईसा ले कुम्‍हार के खेत ला बिसोय के फैसला करिन ताकि ओ जगह ह परदेसीमन बर मसानघाट के रूप म काम आवय। 8एकरे कारन, ओ खेत ला आज तक ले लहू के खेत कहे जाथे। 9ए किसम ले यरमियाह अगमजानी के दुवारा कहे गय ए बचन ह पूरा होईस: “ओमन चांदी के तीस सिक्‍कामन ला ले लीन, जऊन ला इसरायली मनखेमन ओकर कीमत ठहराय रिहिन। 10अऊ ओमन ओ पईसा के उपयोग कुम्‍हार के खेत बिसोय म करिन जइसने परभू ह मोला हुकूम दे रिहिस।”27:10 जकरयाह 11:12-13; यिरमियाह 32:6-9

यीसू ह रोमन राजपाल पीलातुस के आघू म

(मरकुस 15:2-5; लूका 23:3-5; यूहन्ना 18:33-38)

11जब यीसू ह राजपाल के आघू म ठाढ़ होईस, त राजपाल ह ओकर ले पुछिस, “का तेंह यहूदीमन के राजा अस?”

यीसू ह ओला जबाब दीस, “हव जी, जइसने तेंह कहत हवस।”

12जब मुखिया पुरोहित अऊ अगुवामन यीसू ऊपर दोस लगाईन, त ओह कुछू जबाब नइं दीस। 13तब पीलातुस ह यीसू ला कहिस, “का तेंह नइं सुनत हवस कि ओमन तोर ऊपर कइसने दोस लगावत हवंय।” 14पर यीसू ह जबाब म एको सबद नइं कहिस। जेकर ले राजपाल ला बहुंत अचरज होईस।

15राजपाल के ए रीति रिहिस कि फसह तिहार के मऊका म, ओह एक झन कैदी ला छोंड़ देवय, जऊन ला मनखेमन चाहंय। 16ओ समय म बरब्‍बा नांव के एक बदनाम कैदी जेल म रिहिस। 17जब भीड़ ह जुरे रिहिस, त पीलातुस ह भीड़ के मनखेमन ले पुछिस, “तुमन कोन ला चाहत हव कि मेंह ओला तुम्‍हर बर छोंड़ देवंव – बरब्‍बा ला या यीसू ला, जऊन ला मसीह कहे जाथे?” 18काबरकि पीलातुस ह जानत रिहिस कि ओमन जलन के कारन यीसू ला ओकर हांथ म सऊंपे रिहिन।

19जब पीलातुस ह नियाय के आसन म बईठे रिहिस, त ओकर घरवाली ह ओकर करा ए संदेस पठोईस, “ओ धरमी मनखे संग कुछू झन कर, काबरकि मेंह आज सपना म ओकर कारन बहुंत दुःख उठाय हवंव।”

20पर मुखिया पुरोहित अऊ अगुवामन भीड़ के मनखेमन ला राजी कर लीन कि ओमन बरब्‍बा ला छोंड़े के अऊ यीसू ला मार डारे के मांग करंय।

21राजपाल ह ओमन ला फेर पुछिस, “ए दूनों म ले तुमन कोन ला चाहथव कि मेंह तुम्‍हर खातिर छोंड़ देवंव?”

ओमन कहिन, “बरब्‍बा ला।”

22पीलातुस ह ओमन ले पुछिस, “तब मेंह यीसू के का करंव, जऊन ला मसीह कहे जाथे।”

ओ जम्मो झन जबाब दीन, “एला कुरुस ऊपर चघाय जावय।”

23पीलातुस ह पुछिस, “काबर? ओह का अपराध करे हवय?” फेर ओमन अऊ चिचियाके कहिन, “एला कुरुस ऊपर चघाय जावय।”

24जब पीलातुस ह देखिस कि ओकर दुवारा कुछू नइं हो सकथे, पर हुल्‍लड़ होवत हवय, त ओह पानी लीस अऊ भीड़ के आघू म अपन हांथ ला धोके कहिस, “मेंह ए मनखे के मिरतू के दोसी नो हंव। एकर जिम्मेदार तुमन अव।”

25जम्मो मनखेमन जबाब दीन, “एकर मिरतू के दोस हमर अऊ हमर संतान ऊपर होवय।”

26तब पीलातुस ह ओमन खातिर बरब्‍बा ला छोंड़ दीस अऊ यीसू ला कोर्रा म पीटवाईस, अऊ ओला कुरुस ऊपर चघाय बर सैनिकमन के हांथ म सऊंप दीस।

सैनिकमन यीसू के हंसी उड़ाथें

(मरकुस 15:16-20; यूहन्ना 19:2-3)

27तब राजपाल के सैनिकमन यीसू ला राजपाल के महल म ले गीन अऊ सैनिकमन के पूरा दल ला यीसू करा संकेलिन। 28ओमन यीसू के कपड़ा ला उतारिन अऊ ओला लाल सिंदूरी रंग के चोगा पहिराईन, 29अऊ तब कांटा के एक मुकुट गुंथके ओकर मुड़ी ऊपर रखिन, अऊ ओकर जेवनी हांथ म एक ठन लउठी धरा दीन अऊ ओकर आघू म माड़ी टेकिन अऊ ए कहिके ओकर हंसी उड़ाईन, “हे यहूदीमन के राजा, तोला जोहार।” 30ओमन ओकर ऊपर थूकिन अऊ लउठी म ओकर मुड़ी ला मारिन। 31यीसू के हंसी उड़ाय के बाद, ओमन ओकर चोगा ला उतार लीन अऊ ओला ओकर खुद के कपड़ा पहिरा दीन। तब ओमन ओला कुरुस ऊपर चघाय बर ले गीन।

यीसू के कुरुस ऊपर चघाय जवई

(मरकुस 15:21-32; लूका 23:26-43; यूहन्ना 19:17-27)

32जब ओमन सहर ले बाहिर निकरत रिहिन, त ओमन ला कुरेन सहर के सिमोन नांव के एक झन मनखे मिलिस। ओमन ओकर ले जबरदस्‍ती कुरुस ला उठवाके ले गीन27:32 कुरेन ह आफ्रिका देस म एक सहर रिहिस।33ओमन “गुलगुता” नांव के जगह म आईन (गुलगुता के मतलब होथे – खोपड़ी के जगह)। 34उहां ओमन यीसू ला पित्त मिले अंगूर के मंद पीये बर दीन। यीसू ह ओला चखिस, पर ओला पीये बर नइं चाहिस। 35जब ओमन यीसू ला कुरुस ऊपर चघा लीन, त ओकर कपड़ा ला बांटा करे बर चिट्ठी डालिन अऊ चिट्ठी के मुताबिक कपड़ा ला बांट लीन। 36तब ओमन उहां बईठके ओकर पहरा देवन लगिन। 37अऊ ओकर मुड़ी ऊपर ओकर दोस पतर लिखके टांग दीन, जऊन म ए लिखाय रहय – “एह यहूदीमन के राजा यीसू अय।”27:37 यूहन्ना 19:19-22 38यीसू के संग दू झन डाकूमन घलो कुरुस ऊपर चघाय गे रिहिन, एक झन ओकर जेवनी कोति अऊ दूसर झन ओकर डेरी कोति। 39उहां ले अवइया-जवइयामन यीसू के ठट्ठा करंय अऊ अपन मुड़ी ला डोला-डोला के ए कहंय, 40“तेंह तो मंदिर ला गिराके ओला तीन दिन म बनवइया अस, अपन-आप ला बंचा ले। कहूं तेंह परमेसर के बेटा अस, त फेर कुरुस ऊपर ले उतर आ।”

41अइसनेच मुखिया पुरोहित, कानून के गुरू अऊ अगुवामन घलो ए कहिके ओकर ठट्ठा करत रिहिन, 42“एह आने मन ला बंचाईस, फेर एह अपन-आप ला नइं बंचा सकय। एह तो इसरायल के राजा अय। अब एह कुरुस ऊपर ले उतरके आवय, त हमन एकर ऊपर बिसवास करबो। 43एह परमेसर ऊपर भरोसा रखथे। यदि परमेसर एला चाहथे, त ओह एला छुड़ा ले, काबरकि एह कहे रिहिस, ‘मेंह परमेसर के बेटा अंव।’ ” 44अइसनेच ओ डाकूमन घलो जऊन मन ओकर संग कुरुस ऊपर चघाय गे रिहिन, ओकर ठट्ठा करिन।

यीसू के मिरतू

(मरकुस 15:33-41; लूका 23:44-49; यूहन्ना 19:28-30)

45ओ मंझनियां बारह बजे ले लेके तीन बजे तक जम्मो धरती ऊपर अंधियार छाय रिहिस। 46करीब तीन बजे यीसू ह जोर से नरियाके कहिस, “एली, एली, लमा सबकतनी?” – जेकर मतलब होथे, “हे मोर परमेसर, हे मोर परमेसर, तेंह मोला काबर तियाग देय?”

47जऊन मन उहां ठाढ़े रिहिन, ओम ले कुछू झन एला सुनके कहिन, “एह एलियाह ला बलावत हवय।”

48ओमन ले एक झन तुरते दऊड़के एक स्‍पंज ला लानिस, अऊ ओह ओला सिरका म बुड़ोईस अऊ एक ठन पातर लउठी म रखके यीसू ला पीये बर दीस। 49पर बाकि मनखेमन कहिन, “ओला रहन दे। आवव, हमन देखन, एलियाह ह एला बंचाय बर आथे कि नइं।”

50अऊ यीसू ह फेर जोर से गोहार पारिस अऊ अपन परान ला तियाग दीस।

51ओतकीच बेरा मंदिर के परदा ह ऊपर ले खाल्‍हे तक चीराके दू टुकड़ा हो गीस। धरती ह कांप उठिस अऊ चट्टानमन तड़क गीन। 52कबरमन उघर गीन अऊ कतको पबितर मनखे के मरे देहेंमन फेर जी उठिन। 53ओमन कबर म ले बाहिर निकरिन, अऊ यीसू के जी उठे के बाद, ओमन पबितर सहर म गीन अऊ कतको मनखेमन ला दिखिन।

54जब सूबेदार अऊ ओकर सैनिक जऊन मन यीसू के पहरा देवत रिहिन, भुइंडोल अऊ ओ जम्मो घटना ला देखिन, त अब्‍बड़ डर्रा गीन अऊ ओमन कहिन, “सही म एह परमेसर के बेटा रिहिस27:54 एक सूबेदार के अधीन एक सौ सैनिक रहंय।।”

55उहां कतको माईलोगन घलो रिहिन, जऊन मन दूरिहा ले यीसू ला देखत रिहिन। ओमन यीसू के सेवा करत गलील प्रदेस ले ओकर संगे-संग आय रिहिन। 56ओमन म मरियम मगदलिनी, याकूब अऊ यूसुफ के दाई मरियम अऊ जबदी के बेटामन के दाई रिहिन।

यीसू के दफनाय जवई

(मरकुस 15:42-47; लूका 23:50-56; यूहन्ना 19:38-42)

57जब संझा होईस, त अरमतिया सहर ले एक धनवान मनखे आईस। ओकर नांव यूसुफ रिहिस अऊ ओह खुदे यीसू के चेला रिहिस। 58ओह पीलातुस करा जाके यीसू के लास ला मांगिस अऊ पीलातुस ह यीसू के लास ला ओला सऊंप देय के हुकूम दीस। 59यूसुफ ह लास ला लीस अऊ ओला एक ठन साफ मलमल के कपड़ा म लपेटिस, 60अऊ ओला अपन खुद के नवां कबर म रखिस, जऊन ला ओह चट्टान ला काटके बनवाय रिहिस। तब ओह एक ठन बड़े पथरा ला कबर के मुंहाटी म टेका दीस अऊ उहां ले चले गीस। 61मरियम मगदलिनी अऊ दूसर मरियम उहां कबर के आघू म बईठे रिहिन।

कबर म पहरेदारी

62ओकर दूसर दिन, जऊन ह तियारी के दिन के बाद के दिन रिहिस, मुखिया पुरोहित अऊ फरीसी मन पीलातुस करा गीन27:62 बिसराम दिन के पहिली के दिन ला तियारी के दिन कहे जावय। 63अऊ कहिन, “महाराज, हमन ला सुरता हवय कि ओ धोखेबाज ह जब जीयत रिहिस, त कहे रिहिस, ‘तीन दिन के बाद मेंह फेर जी उठहूं।’ 64एकरसेति हुकूम दे कि तीसरा दिन तक ओ कबर के रखवारी करे जावय। अइसने झन होवय कि ओकर चेलामन आवंय अऊ ओकर लास ला चुरा के ले जावंय अऊ मनखेमन ला कहंय कि ओह मरे म ले जी उठे हवय। तब ए आखिरी धोखा ह पहिली ले घलो अऊ खराप होही।”

65पीलातुस ह ओमन ला कहिस, “तुम्‍हर करा पहरेदारमन हवंय। जावव, अऊ जइसने तुमन उचित समझथव, कबर के रखवारी के परबंध करव।” 66तब ओमन गीन अऊ कबर के पथरा ऊपर मुहर लगाईन अऊ उहां पहरेदार बईठाके ओमन कबर के रखवारी के परबंध करिन।

Hoffnung für Alle

Matthäus 27:1-66

Jesus wird an die Römer ausgeliefert

(Markus 15,1; Lukas 23,1; Johannes 18,28‒32)

1Am frühen Morgen fassten die obersten Priester und die führenden Männer des Volkes gemeinsam den Beschluss, Jesus hinrichten zu lassen. 2Sie ließen ihn gefesselt abführen und übergaben ihn Pilatus, dem römischen Statthalter.

Judas begeht Selbstmord

(Apostelgeschichte 1,16‒19)

3Als Judas, der Verräter, sah, dass Jesus zum Tode verurteilt werden sollte, tat es ihm leid, was er getan hatte. Er brachte den obersten Priestern und den führenden Männern des Volkes die 30 Silbermünzen zurück. 4»Ich habe Unrecht getan und einen Unschuldigen verraten!«, bekannte er. »Was geht uns das an?«, gaben sie ihm zur Antwort. »Das ist deine Sache!«

5Da nahm Judas das Geld und warf es in den Tempel. Dann lief er fort und erhängte sich. 6Die obersten Priester nahmen die Münzen an sich, waren aber der Meinung: »Dieses Geld dürfen wir nicht in den Tempelschatz legen, weil Blut daran klebt!« 7Nachdem sie die Sache besprochen hatten, beschlossen sie, mit dem Geld eine Tongrube zu kaufen und einen Friedhof für die Fremden daraus zu machen. 8Noch heute heißt dieser Friedhof deshalb »Blutacker«.

9Auf diese Weise erfüllte sich, was Gott durch den Propheten Jeremia gesagt hatte: »Sie nahmen die 30 Silberstücke – so viel war er dem Volk Israel wert – 10und kauften das Land von den Töpfern, wie der Herr es mir befohlen hatte.«27,10 Sacharja 11,12‒13; Jeremia 32,6‒9

Das Todesurteil

(Markus 15,2‒15; Lukas 23,2‒5.17‒25; Johannes 18,33–19,16)

11Jesus wurde dem römischen Statthalter Pilatus vorgeführt. Der fragte ihn: »Bist du der König der Juden?« Jesus antwortete: »Ja, du sagst es!«

12Als nun die obersten Priester und die führenden Männer des Volkes ihre Anklagen gegen ihn vorbrachten, schwieg Jesus. 13»Hörst du denn nicht, was sie dir alles vorwerfen?«, fragte Pilatus. 14Aber Jesus erwiderte kein Wort. Darüber wunderte sich Pilatus sehr.

15Der Statthalter begnadigte jedes Jahr zum Passahfest einen Gefangenen, den sich das Volk selbst auswählen durfte. 16In diesem Jahr saß ein berüchtigter Verbrecher im Gefängnis. Er hieß Barabbas27,16 Nach einigen Handschriften hieß er Jesus Barabbas. So auch in Vers 17.. 17Als sich nun die Menschenmenge vor dem Haus von Pilatus versammelt hatte, fragte er sie: »Wen soll ich diesmal begnadigen? Barabbas oder Jesus, den manche für den Christus halten?« 18Denn Pilatus wusste genau, dass das Verfahren gegen Jesus nur aus Neid angezettelt worden war.

19Während Pilatus die Gerichtsverhandlung leitete, ließ ihm seine Frau eine Nachricht zukommen: »Unternimm nichts gegen diesen Mann. Er ist unschuldig! Ich habe seinetwegen in der letzten Nacht einen furchtbaren Traum gehabt.«

20Inzwischen aber hatten die obersten Priester und die führenden Männer des Volkes die Menge aufgewiegelt. Sie sollten von Pilatus verlangen, Barabbas zu begnadigen und Jesus umzubringen. 21Als der Statthalter nun seine Frage wiederholte: »Wen von den beiden soll ich freilassen?«, schrie die Menge: »Barabbas!«

22»Und was soll mit Jesus geschehen, dem angeblichen Christus?« Da riefen sie alle: »Ans Kreuz mit ihm!« 23»Was für ein Verbrechen hat er denn begangen?«, fragte Pilatus. Doch die Menge schrie immer lauter: »Ans Kreuz mit ihm!«

24Als Pilatus sah, dass er so nichts erreichte und der Tumult nur immer größer wurde, ließ er eine Schüssel mit Wasser bringen. Für alle sichtbar wusch er sich die Hände und sagte: »Ich bin nicht schuld daran, wenn das Blut dieses Menschen vergossen wird. Die Verantwortung dafür tragt ihr!« 25Die Menge erwiderte: »Ja, wir und unsere Kinder, wir tragen die Folgen!«27,25 Wörtlich: »Sein Blut (komme) über uns und über unsere Kinder!« 26Da gab Pilatus ihnen Barabbas frei. Jesus ließ er auspeitschen und zur Kreuzigung abführen.

Jesus wird verhöhnt und misshandelt

(Markus 15,16‒20; Johannes 19,2‒3)

27Die Soldaten brachten Jesus in den Hof des Statthalterpalastes und riefen die ganze Truppe zusammen. 28Dann zogen sie ihm die Kleider aus und hängten ihm einen scharlachroten Mantel um. 29Aus Dornenzweigen flochten sie eine Krone und drückten sie ihm auf den Kopf. Sie gaben ihm einen Stock in die rechte Hand, knieten vor ihm nieder und riefen höhnisch: »Es lebe der König der Juden!« 30Sie spuckten ihn an, nahmen ihm den Stock wieder aus der Hand und schlugen ihm damit auf den Kopf. 31Nachdem sie so ihren Spott mit ihm getrieben hatten, zogen sie ihm den roten Mantel aus und legten ihm seine eigenen Kleider wieder an. Dann führten sie Jesus ab zur Kreuzigung.

Die Kreuzigung

(Markus 15,21‒32; Lukas 23,26‒43; Johannes 19,16‒27)

32Auf dem Weg zur Hinrichtungsstätte begegnete ihnen ein Mann aus Kyrene, der Simon hieß. Ihn zwangen sie, das Kreuz zu tragen, an das Jesus gehängt werden sollte. 33So zogen sie aus der Stadt hinaus nach Golgatha, was »Schädelstätte« heißt. 34Dort gaben die Soldaten Jesus Wein, der mit einem bitteren Zusatz vermischt war. Als Jesus ihn probiert hatte, wollte er nichts davon trinken.

35Dann nagelten sie ihn an das Kreuz. Seine Kleider teilten sie unter sich auf und warfen das Los darum.27,35 Andere Handschriften fügen hinzu: Dadurch sollte sich erfüllen, was durch den Propheten vorausgesagt wurde: »Meine Kleider haben sie unter sich aufgeteilt und um mein Gewand gelost.« – Psalm 22,19 36Sie setzten sich neben das Kreuz und bewachten Jesus. 37Über seinem Kopf brachten sie ein Schild an, auf dem stand, weshalb man ihn verurteilt hatte: »Das ist Jesus, der König der Juden!« 38Mit Jesus wurden zwei Verbrecher gekreuzigt, der eine rechts, der andere links von ihm.

39Die Leute, die am Kreuz vorübergingen, verspotteten ihn und schüttelten verächtlich den Kopf: 40»Den Tempel wolltest du abreißen und in drei Tagen wieder aufbauen! Dann rette dich doch selber! Komm vom Kreuz herunter, wenn du wirklich der Sohn Gottes bist!«

41Auch die obersten Priester, die Schriftgelehrten und führenden Männer des Volkes verhöhnten Jesus: 42»Anderen hat er geholfen, aber sich selbst kann er nicht helfen. Wenn er wirklich der König von Israel ist, soll er doch vom Kreuz heruntersteigen. Dann wollen wir an ihn glauben! 43Er hat sich doch immer auf Gott verlassen; jetzt wollen wir sehen, ob Gott ihn wirklich liebt und ihm hilft. Schließlich hat er behauptet: ›Ich bin Gottes Sohn.‹« 44Ebenso beschimpften ihn die beiden Verbrecher, die mit ihm gekreuzigt worden waren.

Jesus stirbt am Kreuz

(Markus 15,33‒41; Lukas 23,44‒49; Johannes 19,28‒37)

45Am Mittag wurde es plötzlich im ganzen Land dunkel. Diese Finsternis dauerte drei Stunden. 46Gegen drei Uhr schrie Jesus laut: »Eli, Eli, lema sabachtani?« Das heißt: »Mein Gott, mein Gott, warum hast du mich verlassen?«27,46 Psalm 22,2

47Einige von den Umstehenden aber meinten: »Der ruft den Propheten Elia.« 48Einer von ihnen holte schnell einen Schwamm, tauchte ihn in Essigwasser und steckte ihn auf einen Stab, um Jesus davon trinken zu lassen. 49Aber die anderen sagten: »Lass doch! Wir wollen sehen, ob Elia kommt und ihm hilft.« 50Da schrie Jesus noch einmal laut auf und starb.

51Im selben Augenblick zerriss im Tempel der Vorhang vor dem Allerheiligsten von oben bis unten. Die Erde bebte, und die Felsen zerbarsten. 52Gräber öffneten sich, und viele Verstorbene, die nach Gottes Willen gelebt hatten, erwachten vom Tod. 53Nach der Auferstehung von Jesus verließen sie ihre Gräber, gingen in die heilige Stadt Jerusalem hinein und erschienen dort vielen Leuten.

54Der römische Hauptmann und die Soldaten, die Jesus bewachten, erschraken sehr bei diesem Erdbeben und allem, was sich sonst ereignete. Sie sagten: »Dieser Mann ist wirklich Gottes Sohn gewesen!«

55Viele Frauen aus Galiläa waren mit Jesus zusammen nach Jerusalem gekommen. Sie hatten für ihn gesorgt, und jetzt beobachteten sie das Geschehen aus der Ferne. 56Unter ihnen waren Maria aus Magdala und Maria, die Mutter von Jakobus und Josef, sowie die Mutter von Jakobus und Johannes, den beiden Söhnen von Zebedäus.

Jesus wird begraben

(Markus 15,42‒47; Lukas 23,50‒56; Johannes 19,38‒42)

57Am Abend kam ein reicher Mann aus Arimathäa. Er hieß Josef und war ein Jünger von Jesus. 58Er ging zu Pilatus und bat ihn um den Leichnam von Jesus. Pilatus befahl, diese Bitte zu erfüllen. 59Josef nahm den Toten, wickelte ihn in ein neues Leinentuch 60und legte ihn in eine unbenutzte Grabkammer, die er für sich selbst in einen Felsen hatte hauen lassen. Dann wälzte er einen großen Stein vor den Eingang des Grabes. 61Maria aus Magdala und die andere Maria blieben gegenüber vom Grab sitzen.

Die Wache am Grab

62Am nächsten Tag, es war der Sabbat, kamen die obersten Priester und die Pharisäer miteinander zu Pilatus 63und sagten: »Herr, uns ist eingefallen, dass dieser Verführer einmal behauptet hat: ›Drei Tage nach meinem Tod werde ich von den Toten auferstehen!‹ 64Lass darum das Grab bis zum dritten Tag bewachen, sonst stehlen seine Jünger noch den Leichnam und erzählen jedem, Jesus sei von den Toten auferstanden. Das aber wäre ein noch größerer Betrug.« 65»Ich will euch eine Wache geben«,27,65 Oder: Ihr habt doch selbst eine Wache. – So verstanden, weist Pilatus auf die Tempelwache hin, durch die sie das Grab selbst bewachen lassen konnten. antwortete Pilatus. »Geht und sichert das Grab, so gut ihr könnt!« 66Da versiegelten sie den Stein, der den Eingang des Grabes verschloss, und stellten Wachposten auf.