روما 7 – NAV & HCV

New Arabic Version

روما 7:1-25

التحرر من الناموس، والالتصاق بالمسيح

1أَيَخْفَى عَلَيْكُمْ أَيُّهَا الإِخْوَةُ وَأَنَا أُخَاطِبُ أُنَاساً يَعْرِفُونَ قَوَانِينَ الشَّرِيعَةِ أَنَّ لِلشَّرِيعَةِ سِيَادَةً عَلَى الإِنْسَانِ مَادَامَ حَيًّا؟ 2فَالْمَرْأَةُ الْمُتَزَوِّجَةُ تَرْبِطُهَا الشَّرِيعَةُ بِزَوْجِهَا مَادَامَ حَيًّا. وَلكِنْ، إِنْ مَاتَ الزَّوْجُ، فَالشَّرِيعَةُ تَحُلُّهَا مِنَ الارْتِبَاطِ بِهِ. 3وَلِذَلِكَ، فَمَادَامَ الزَّوْجُ حَيًّا، تُعْتَبَرُ زَانِيَةً إِنْ صَارَتْ إِلَى رَجُلٍ آخَرَ. وَلَكِنْ إِنْ مَاتَ الزَّوْجُ تَتَحَرَّرْ مِنَ الشَّرِيعَةِ، حَتَّى إِنَّهَا لَا تَكُونُ زَانِيَةً إِنْ صَارَتْ إِلَى رَجُلٍ آخَرَ.

4وَهكَذَا أَنْتُمْ أَيْضاً يَا إِخْوَتِي، فَإِنَّكُمْ بِجَسَدِ الْمَسِيحِ الَّذِي مَاتَ، قَدْ صِرْتُمْ أَمْوَاتاً بِالنِّسْبَةِ لِلشَّرِيعَةِ، لِكَيْ تَصِيرُوا لِآخَرَ، إِلَى الْمَسِيحِ نَفْسِهِ الَّذِي أُقِيمَ مِنْ بَيْنِ الأَمْوَاتِ، مِنْ أَجْلِ أَنْ نُثْمِرَ لِلهِ. 5فَعِنْدَمَا كُنَّا فِي الْجَسَدِ، كَانَتْ أَهْوَاءُ الْخَطَايَا الْمُعْلَنَةِ فِي الشَّرِيعَةِ عَامِلَةً فِي أَعْضَائِنَا لِكَيْ نُثْمِرَ لِلْمَوْتِ. 6أَمَّا الآنَ، فَقَدْ تَحَرَّرْنَا مِنَ الشَّرِيعَةِ، إِذْ مُتْنَا بِالنِّسْبَةِ لِمَا كَانَ يُقَيِّدُنَا، حَتَّى نَكُونَ عَبِيداً يَخْدِمُونَ وَفْقاً لِلنِّظَامِ الرُّوحِيِّ الْجَدِيدِ، لَا لِلنِّظَامِ الْحَرْفِيِّ الْعَتِيقِ.

الناموس والخطيئة

7إِذَنْ، مَاذَا نَقُولُ؟ هَلِ الشَّرِيعَةُ خَطِيئَةٌ؟ حَاشَا! وَلكِنِّي مَا عَرَفْتُ الْخَطِيئَةَ إِلّا بِالشَّرِيعَةِ. فَمَا كُنْتُ لأَعْرِفَ الشَّهْوَةَ لَوْلا قَولُ الشَّرِيعَةِ: «لا تَشْتَهِ!» 8وَلَكِنَّ الْخَطِيئَةَ اسْتَغَلَّتْ هَذِهِ الْوَصِيَّةَ فَأَثَارَتْ فِيَّ كُلَّ شَهْوَةٍ. فَلَوْلا الشَّرِيعَةُ، لَكَانَتْ الْخَطِيئَةُ مَيِّتَةٌ. 9أَمَّا أَنَا فَكُنْتُ مِنْ قَبْلُ عَائِشاً بِمَعْزِلٍ عَنِ الشَّرِيعَةِ؛ وَلَكِنْ لَمَّا جَاءَتِ الشَّرِيعَةُ عَاشَتِ الْخَطِيئَةُ، 10فَمُتُّ أَنَا. وَالْوَصِيَّةُ الْهَادِفَةُ إِلَى الْحَيَاةِ، صَارَتْ لِي مُؤَدِّيَةً إِلَى الْمَوْتِ. 11فَإِنَّ الْخَطِيئَةَ، إِذِ اسْتَغَلَّتِ الْوَصِيَّةَ، خَدَعَتْنِي وَقَتَلَتْنِي بِها. 12فَالشَّرِيعَةُ إِذَنْ مُقَدَّسَةٌ، وَالْوَصِيَّةُ مُقَدَّسَةٌ وَعَادِلَةٌ وَصَالِحَةٌ. 13فَهَلْ صَارَ مَا هُوَ صَالِحٌ مَوْتاً لِي؟ حَاشَا! وَلَكِنَّ الْخَطِيئَةَ، لِكَيْ تَظْهَرَ أَنَّهَا خَطِيئَةٌ، أَنْتَجَتْ لِيَ الْمَوْتَ بِمَا هُوَ صَالِحٌ، حَتَّى تَصِيرَ الْخَطِيئَةُ خَاطِئَةً جِدّاً بِسَبَبِ الْوَصِيَّةِ.

14فَإِنَّنَا نَعْلَمُ أَنَّ الشَّرِيعَةَ رُوحِيَّةٌ؛ وَأَمَّا أَنَا فَجَسَدِيٌّ بِيعَ عَبْداً لِلْخَطِيئَةِ. 15فَإِنَّ مَا أَفْعَلُهُ لَا أَمْلِكُ السَّيْطَرَةَ عَلَيْهِ: إِذْ لَا أَفْعَلُ مَا أُرِيدُهُ، وَإِنَّ مَا أُبْغِضُهُ فَإِيَّاهُ أَعْمَلُ. 16فَمَادُمْتُ أَعْمَلُ مَا لَا أُرِيدُهُ، فَإِنِّي أُصَادِقُ عَلَى صَوَابِ الشَّرِيعَةِ. 17فَالآنَ، إِذَنْ، لَيْسَ بَعْدُ أَنَا مَنْ يَفْعَلُ ذلِكَ، بَلِ الْخَطِيئَةُ الَّتِي تَسْكُنُ فِيَّ. 18لأَنَّنِي أَعْلَمُ أَنَّهُ فِيَّ، أَيْ فِي جَسَدِي، لَا يَسْكُنُ الصَّلاحُ: فَأَنْ أُرِيدَ الصَّلاحَ ذَلِكَ مُتَوَفِّرٌ لَدَيَّ؛ وَأَمَّا أَنْ أَفْعَلَهُ، فَذَلِكَ لَا أَسْتَطِيعُهُ. 19فَأَنَا لَا أَعْمَلُ الصَّلاحَ الَّذِي أُرِيدُهُ؛ وَإِنَّمَا الشَّرُّ الَّذِي لَا أُرِيدُهُ فَإِيَّاهُ أُمَارِسُ. 20وَلكِنْ، إِنْ كَانَ مَا لَا أُرِيدُهُ أَنَا إِيَّاهُ أَعْمَلُ، فَلَيْسَ بَعْدُ أَنَا مَنْ يَفْعَلُ ذَلِكَ، بَلِ الْخَطِيئَةُ الَّتِي تَسْكُنُ فِيَّ. 21إِذَنْ، أَجِدُ نَفْسِي، أَنَا الَّذِي يُرِيدُ أَنْ يَعْمَلَ مَا هُوَ صَالِحٌ، خَاضِعاً لِهَذَا النَّامُوسِ: 22أَنَّ لَدَيَّ الشَّرَّ. فَإِنَّنِي، وَفْقاً لِلإِنْسَانِ الْبَاطِنِ فِيَّ، أَبْتَهِجُ بِشَرِيعَةِ اللهِ. 23وَلكِنَّنِي أَرَى فِي أَعْضَائِي نَامُوساً آخَرَ يُحَارِبُ الشَّرِيعَةَ الَّتِي يُرِيدُهَا عَقْلِي، وَيَجْعَلُنِي أَسِيراً لِنَامُوسِ الْخَطِيئَةِ الْكَائِنِ فِي أَعْضَائِي. 24فَيَا لِي مِنْ إِنْسَانٍ تَعِيسٍ! مَنْ يُحَرِّرُنِي مِنْ جَسَدِ الْمَوْتِ هَذَا؟ 25أَشْكُرُ اللهَ بِيَسُوعَ الْمَسِيحِ رَبِّنَا! إِذَنْ، أَنَا نَفْسِي مِنْ حَيْثُ الْعَقْلِ، أَخْدِمُ شَرِيعَةَ اللهِ عَبْداً لَهَا؛ وَلَكِنَّنِي مِنْ حَيْثُ الْجَسَدِ، أَخْدِمُ نَامُوسَ الْخَطِيئَةِ عَبْداً لَهُ.

Hindi Contemporary Version

रोमियों 7:1-25

शिष्य व्यवस्था से नहीं मसीह से जुड़े हैं

1प्रिय भाई बहिनो, तुम जो व्यवस्था से परिचित हो, क्या तुम्हें यह मालूम नहीं कि किसी भी व्यक्ति पर व्यवस्था की प्रभुता उसी समय तक रहती है जब तक वह जीवित है? 2कानूनी तौर पर विवाहित स्त्री अपने पति से उसी समय तक बंधी रहती है जब तक उसका पति जीवित है, किंतु पति की मृत्यु होने पर वह कानूनी रूप से अपने पति से मुक्त हो जाती है. 3यदि अपने पति के जीवित रहते हुए वह किसी अन्य पुरुष से संबंध बनाती है तो वह व्यभिचारिणी कहलाती है किंतु अपने पति की मृत्यु के बाद वह कानूनी रूप से स्वतंत्र हो जाती है और अन्य पुरुष से विवाह करने पर व्यभिचारिणी नहीं कहलाती.

4इसलिये मेरे प्रिय भाई बहिनो, तुम भी मसीह के शरीर के द्वारा व्यवस्था के प्रति मरे हुए हो कि तुम अन्य से जुड़ जाओ—उनसे, जो मरे हुओं में से जीवित किए गए कि परमेश्वर के लिए हमारा जीवन फलदायी हो. 5जिस समय हम पाप के स्वभाव द्वारा नियंत्रित थे, पाप की लालसाएं, जो व्यवस्था द्वारा उत्तेजित की जाती थी, मृत्यु के फल के लिए हमारे अंगों में सक्रिय थी, 6किंतु अब हम उसके प्रति मरे सरीखे होकर, जिसने हमें बांध रखा था, व्यवस्था से स्वतंत्र कर दिए गए हैं कि हम व्यवस्था द्वारा स्थापित पुरानी रीति पर नहीं परंतु पवित्र आत्मा द्वारा एक नई रीति में सेवा करने लग जाएं.

व्यवस्था का उद्देश्य

7तब क्या इससे यह सिद्ध होता है कि व्यवस्था दोषी है? नहीं! बिलकुल नहीं! इसके विपरीत, व्यवस्था के बिना मेरे लिए पाप को पहचानना ही असंभव होता. मुझे लोभ के विषय में ज्ञान ही न होता यदि व्यवस्था यह आज्ञा न देता: लोभ मत करो. 8पाप ने ही आज्ञा के माध्यम से अच्छा अवसर मिलने पर मुझमें हर एक प्रकार का लालच उत्पन्‍न कर दिया. यही कारण है कि व्यवस्था के बिना पाप मृत है. 9एक समय था जब मैं व्यवस्था से स्वतंत्र अवस्था में जीवित था किंतु जब आज्ञा का आगमन हुआ, पाप जीवित हुआ 10और मेरी मृत्यु हो गई, और वह आज्ञा जिससे मुझे जीवित होना था, मेरी मृत्यु का कारण बनी 11क्योंकि पाप ने, आज्ञा में के अवसर का लाभ उठाते हुए मुझे भटका दिया और इसी के माध्यम से मेरी हत्या भी कर दी. 12इसलिये व्यवस्था पवित्र है और आज्ञा पवित्र, धर्मी और भली है.

13तब, क्या वह, जो भला है, मेरे लिए मृत्यु का कारण हो गया? नहीं! बिलकुल नहीं! भलाई के द्वारा पाप ने मुझमें मृत्यु उत्पन्‍न कर दी कि पाप को पाप ही के रूप में प्रदर्शित किया जाए तथा आज्ञा के द्वारा यह बहुत ही पापमय हो जाए.

14यह तो हमें मालूम ही है कि व्यवस्था आत्मिक है किंतु मैं हूं शारीरिक—पाप के दासत्व में पूरी तरह बिका हुआ! 15यह इसलिये कि यह मेरी समझ से हमेशा से परे है कि मैं क्या करता हूं—मैं वह नहीं करता, जो मैं करना चाहता हूं परंतु मैं वही करता हूं, जिससे मुझे घृणा है. 16इसलिये यदि मैं वही सब करता हूं, जो मुझे अप्रिय है, तो मैं व्यवस्था से सहमत हूं और स्वीकार करता हूं कि यह सही है. 17इसलिये अब ये काम मैं नहीं, मुझमें बसा हुआ पाप करता है. 18यह तो मुझे मालूम है कि मुझमें अर्थात् मेरे शरीर में अंदर छिपा हुआ ऐसा कुछ भी नहीं, जो उत्तम हो. अभिलाषा तो मुझमें है किंतु उसका करना मुझसे हो नहीं पाता. 19वह हित, जिसकी मुझमें अभिलाषा है, मुझसे करते नहीं बनता परंतु हो वह जाता है, जिसे मैं करना नहीं चाहता. 20तब यदि मैं वह करता हूं, जो मैं करना नहीं चाहता, तब वह मैं नहीं, परंतु मुझमें बसा हुआ पाप ही है, जो यह सब करता है.

21यहां मुझे इस सच का अहसास होता है कि जब भी मैं भलाई के लिए उतारू होता हूं, वहां मुझसे बुराई हो जाती है. 22मेरा भीतरी मनुष्यत्व तो परमेश्वर की व्यवस्था में प्रसन्‍न है 23किंतु मैं अपने शरीर के अंगों में एक दूसरी व्यवस्था देख रहा हूं. यह मेरे मस्तिष्क में मौजूद व्यवस्था के विरुद्ध लड़ती है. इसने मुझे पाप की व्यवस्था का, जो मेरे शरीर के अंगों में मौजूद है, बंदी बना रखा है. 24कैसी दयनीय स्थिति है मेरी! कौन मुझे मेरी इस मृत्यु के शरीर से छुड़ाएगा? 25धन्यवाद हो परमेश्वर का जो हमारे प्रभु येशु मसीह के द्वारा हमें छुड़ाते हैं!

एक ओर तो मैं स्वयं अपने मस्तिष्क में परमेश्वर की व्यवस्था का दास हूं किंतु दूसरी ओर अपने शरीर में अपने पाप के स्वभाव का.