صوفر
1فَأَجَابَ صُوفَرُ النَّعْمَاتِيُّ: 2«إِنَّ خَوَاطِرِي، مِنْ جَرَّاءِ كَلامِكَ، تَحْفِزُنِي لِلْكَلامِ وَتُثِيرُنِي لِلرَّدِّ عَلَيْكَ. 3سَمِعْتُ تَوْبِيخاً يُعَيِّرُنِي، وَأَجَابَنِي رُوحٌ مِنْ فِطْنَتِي.
4أَمَا عَلِمْتَ هَذَا مُنْذُ الْقِدَمِ، مُنْذُ أَنْ خُلِقَ الإِنْسَانُ عَلَى الأَرْضِ، 5أَنَّ طَرَبَ الشِّرِّيرِ إِلَى حِينٍ، وَأَنَّ فَرَحَ الْفَاجِرِ إِلَى لَحْظَةٍ؟ 6مَهْمَا بَلَغَتْ كِبْرِيَاؤُهُ السَّمَاوَاتِ وَمَسَّتْ هَامَتُهُ الْغَمَامَ، 7فَإِنَّهُ سَيَبِيدُ كَبِرَازِهِ، فَيَتَسَاءَلُ الَّذِينَ يَعْرِفُونَهُ، مُنْدَهِشِينَ: أَيْنَ هُوَ؟ 8يَتَلاشَى كَحُلْمٍ وَلا يَبْقَى مِنْهُ أَثَرٌ، وَيَضْمَحِلُّ كَرُؤْيَا اللَّيْلِ، 9وَالْعَيْنُ الَّتِي أَبْصَرَتْهُ لَا تَعُودُ تَرَاهُ ثَانِيَةً، وَلا يُعَايِنُهُ مَكَانُهُ فِيمَا بَعْدُ. 10يَسْتَجْدِي أَوْلادُهُ مِنَ الْفُقَرَاءِ، وَتَرُدُّ يَدَاهُ ثَرْوَتَهُ المَسْلُوبَةَ. 11حَيَوِيَّةُ عِظَامِهِ تُدْفَنُ فِي عِزِّ قُوَّتِهِ، 12يَتَذَوَّقُ الشَّرَّ فَيَحْلُو فِي فَمِهِ، فَيُبْقِيهِ تَحْتَ لِسَانِهِ، 13وَيَمْقُتُ أَنْ يَقْذِفَهُ، بَلْ يَدَّخِرُهُ فِي فَمِهِ! 14فَيَتَحَوَّلُ طَعَامُهُ فِي أَمْعَائِهِ إِلَى مَرَارَةٍ كَالسُّمُومِ. 15وَيَتَقَيَّأُ مَا ابْتَلَعَهُ مِنْ أَمْوَالٍ، وَيَسْتَخْرِجُهَا اللهُ مِنْ جَوْفِهِ. 16لَقَدْ رَضَعَ سُمَّ الصِّلِّ، فَقَتَلَهُ لِسَانُ الأَفْعَى. 17لَنْ تَكْتَحِلَ عَيْنَاهُ بِمَرْأَى الأَنْهَارِ الْجَارِيَةِ، وَلا بِالْجَدَاوِلِ الْفَيَّاضَةِ بِالْعَسَلِ وَالزُّبْدِ. 18يَرُدُّ ثِمَارَ تَعَبِهِ وَلا يَبْلَعُهُ وَلا يَسْتَمْتِعُ بِكَسْبِ تِجَارَتِهِ. 19لأَنَّهُ هَضَمَ حَقَّ الْفُقَرَاءِ وَخَذَلَهُمْ وَسَلَبَ بُيُوتاً لَمْ يَبْنِهَا.
20وَإِذْ لَا يَعْرِفُ طَمَعُهُ قَنَاعَةً، فَإِنَّهُ لَنْ يَدَّخِرَ شَيْئاً يَسْتَمْتِعُ بِهِ. 21لَمْ يُبْقِ نَهَمُهُ عَلَى شَيْءٍ، لِذَلِكَ لَنْ يَدُومَ خَيْرُهُ. 22فِي وَفْرَةِ سِعَتِهِ يُصِيبُهُ الضَّنْكُ، وَتَحُلُّ بِهِ أَقْسَى الْكَوَارِثِ. 23وَعِنْدَمَا يَمْلأُ بَطْنَهُ يَنْفُثُ عَلَيْهِ اللهُ غَضَبَهُ الْحَارِقَ وَيُمْطِرُهُ عَلَيْهِ طَعَاماً لَهُ. 24إِنْ فَرَّ مِنْ آلَةِ حَرْبٍ مِنْ حَدِيدٍ، تَخْتَرِقْهُ قَوْسُ النُّحَاسِ. 25اخْتَرَقَتْهُ عَمِيقاً وَخَرَجَتْ مِنْ جَسَدِهِ، وَنَفَذَ حَدُّهَا اللّامِعُ مِنْ مَرَارَتِهِ، وَحَلَّ بِهِ رُعْبٌ. 26كُلُّ ظُلْمَةٍ تَتَرَبَّصُ بِذَخَائِرِهِ، وَتَأْكُلُهُ نَارٌ لَمْ تُنْفَخْ، وَتَلْتَهِمُ مَا بَقِيَ مِنْ خَيْمَتِهِ. 27تَفْضَحُ السَّمَاوَاتُ إِثْمَهُ، وَتَتَمَرَّدُ الأَرْضُ عَلَيْهِ، 28تَفْنَى مُدَّخَرَاتُ بَيْتِهِ وَتحْتَرِقُ فِي يَوْمِ غَضَبِ الرَّبِّ. 29هَذَا هُوَ الْمَصِيرُ الَّذِي يُعِدُّهُ اللهُ للأَشْرَارِ، وَالْمِيرَاثُ الَّذِي كَتَبَهُ اللهُ لَهُمْ».
न्याय-रास्ते पर कोई अपवाद नहीं
1तब नआमथवासी ज़ोफर ने कहना प्रारंभ किया:
2“मेरे विचारों ने मुझे प्रत्युत्तर के लिए प्रेरित किया
क्योंकि मेरा अंतर्मन उत्तेजित हो गया था.
3मैंने उस झिड़की की ओर ध्यान दिया,
जो मेरा अपमान कर रही थी इसका भाव समझकर ही मैंने प्रत्युत्तर का निश्चय किया है.
4“क्या आरंभ से तुम्हें इसकी वास्तविकता मालूम थी,
उस अवसर से जब पृथ्वी पर मनुष्य की सृष्टि हुई थी,
5अल्पकालिक ही होता है, दुर्वृत्त का उल्लास
तथा क्षणिक होता है पापिष्ठ का आनंद.
6भले ही उसका नाम आकाश तुल्य ऊंचा हो
तथा उसका सिर मेघों तक जा पहुंचा हो,
7वह कूड़े समान पूर्णतः मिट जाता है;
जिन्होंने उसे देखा था, वे पूछते रह जाएंगे, ‘कहां है वह?’
8वह तो स्वप्न समान टूट जाता है, तब उसे खोजने पर भी पाया नहीं जा सकता,
रात्रि के दर्शन समान उसकी स्मृति मिट जाती है.
9जिन नेत्रों ने उसे देखा था, उनके लिए अब वह अदृश्य है;
न ही वह स्थान, जिसके सामने वह बना रहता था.
10उसके पुत्रों की कृपा दीनों पर बनी रहती है
तथा वह अपने हाथों से अपनी संपत्ति लौटाता है.
11उसकी हड्डियां उसके यौवन से भरी हैं
किंतु यह शौर्य उसी के साथ धूल में जा मिलता है.
12“यद्यपि उसके मुख को अनिष्ट का स्वाद लग चुका है
और वह इसे अपनी जीभ के नीचे छिपाए रखता है,
13यद्यपि वह इसकी आकांक्षा करता रहता है,
वह अपने मुख में इसे छिपाए रखता है,
14फिर भी उसका भोजन उसके पेट में उथल-पुथल करता है;
वह वहां नाग के विष में परिणत हो जाता है.
15उसने तो धन-संपत्ति निगल रखी है, किंतु उसे उगलना ही होगा;
परमेश्वर ही उन्हें उसके पेट से बाहर निकाल देंगे.
16वह तो नागों के विष को चूस लेता है;
सर्प की जीभ उसका संहार कर देती है.
17वह नदियों की ओर दृष्टि नहीं कर पाएगा, उन नदियों की ओर,
जिनमें दूध एवं दही बह रहे हैं.
18वह अपनी उपलब्धियों को लौटाने लगा है, इसका उपभोग करना उसके लिए संभव नहीं है;
व्यापार में मिले लाभ का वह आनंद न ले सकेगा.
19क्योंकि उसने कंगालों पर अत्याचार किए हैं तथा उनका त्याग कर दिया है;
उसने वह घर हड़प लिया है, जिसका निर्माण उसने नहीं किया है.
20“इसलिये कि उसका मन विचलित था;
वह अपनी अभिलाषित वस्तुओं को अपने अधिकार में न रख सका.
21खाने के लिये कुछ भी शेष न रह गया;
तब अब उसकी समृद्धि अल्पकालीन ही रह गई है.
22जब वह परिपूर्णता की स्थिति में होगा तब भी वह संतुष्ट न रह सकेगा;
हर एक व्यक्ति, जो इस समय यातना की स्थिति में होगा, उसके विरुद्ध उठ खड़ा होगा.
23जब वह पेट भरके खा चुका होगा, परमेश्वर
अपने प्रचंड कोप को उस पर उंडेल देंगे,
तभी यह कोप की वृष्टि उस पर बरस पड़ेगी.
24संभव है कि वह लौह शस्त्र के प्रहार से बच निकले
किंतु कांस्यबाण तो उसे बेध ही देगा.
25यह बाण उसकी देह में से खींचा जाएगा, और यह उसकी पीठ की ओर से बाहर आएगा,
उसकी चमकदार नोक उसके पित्त से सनी हुई है.
वह आतंक से भयभीत है.
26घोर अंधकार उसकी संपत्ति की प्रतीक्षा में है.
अग्नि ही उसे चट कर जाएगी.
यह अग्नि उसके तंबू के बचे हुओं को भस्म कर जाएगी.
27स्वर्ग ही उसके पाप को उजागर करेगा;
पृथ्वी भी उसके विरुद्ध खड़ी होगी.
28उसके वंश का विस्तार समाप्त हो जाएगा,
परमेश्वर के कोप-दिवस पर उसकी संपत्ति नाश हो जाएगी.
29यही होगा परमेश्वर द्वारा नियत दुर्वृत्त का भाग, हां,
वह उत्तराधिकार, जो उसे याहवेह द्वारा दिया गया है.”