स्तोत्र 58 – Hindi Contemporary Version HCV

Hindi Contemporary Version

स्तोत्र 58:1-11

स्तोत्र 58

संगीत निर्देशक के लिये. “अलतशख़ेथ” धुन पर आधारित. दावीद की मिकताम58:0 शीर्षक: शायद साहित्यिक या संगीत संबंधित एक शब्द गीत रचना.

1न्यायाधीशो, क्या वास्तव में तुम्हारा निर्णय न्याय संगत होता है?

क्या, तुम्हारा निर्णय वास्तव में निष्पक्ष ही होता है?

2नहीं, मन ही मन तुम अन्यायपूर्ण युक्ति करते रहते हो,

पृथ्वी पर तुम हिंसा परोसते हो.

3दुष्ट लोग जन्म से ही फिसलते हैं, गर्भ से ही;

परमेश्वर से झूठ बोलते हुए भटक जाते है.

4उनका विष विषैले सर्प का विष है,

उस बहरे सर्प के समान, जिसने अपने कान बंद कर रखे हैं.

5कि अब उसे संपेरे की धुन सुनाई न दे,

चाहे वह कितना ही मधुर संगीत प्रस्तुत करे.

6परमेश्वर, उनके मुख के भीतर ही उनके दांत तोड़ दीजिए;

याहवेह, इन सिंहों के दाढों को ही उखाड़ दीजिए!

7वे जल के जैसे बहकर विलीन हो जाएं;

जब वे धनुष तानें, उनके बाण निशाने तक नहीं पहुंचें.

8वे उस घोंघे के समान हो जाएं, जो सरकते-सरकते ही गल जाता है,

अथवा उस मृत जन्मे शिशु के समान, जिसके लिए सूर्य प्रकाश का अनुभव असंभव है.

9इसके पूर्व कि कंटीली झाड़ियों में लगाई अग्नि का ताप पकाने के पात्र तक पहुंचे,

वह जले अथवा अनजले दोनों ही को बवंडर में उड़ा देंगे.

10धर्मी के लिए ऐसा पलटा आनन्द-दायक होगा,

वह दुष्टों के रक्त में अपने पांव धोएगा.

11तब मनुष्य यह कह उठेंगे,

“निश्चय धर्मी उत्तम प्रतिफल प्राप्‍त करते हैं;

यह सत्य है कि परमेश्वर हैं और वह पृथ्वी पर न्याय करते हैं.”