व्यवस्था 5 – HCV & NAV

Hindi Contemporary Version

व्यवस्था 5:1-33

दस आज्ञाओं का पुनरावर्तन

1फिर मोशेह ने सारे इस्राएल को बुलाकर कहा:

सुनो, इस्राएल, आज मैं तुम्हारे सामने ये विधियां और नियम इस उद्देश्य से पेश कर रहा हूं, कि तुम इन्हें सुनकर कर सावधानीपूर्वक इनका पालन करें. 2होरेब पर्वत पर याहवेह, हमारे परमेश्वर ने हमसे वाचा बांधी थी. 3यह वाचा याहवेह ने हमारे पूर्वज से नहीं, बल्कि हम सभी के साथ, जो आज यहां जीवित हैं, बांधी है. 4उस पर्वत पर याहवेह ने आग में होकर तुमसे आमने-सामने बातें की. 5उस अवसर पर मैं याहवेह और तुम्हारे बीच खड़ा हुआ था. तुम तो निकट आने के विचार से ही डर गए थे, तब मैं तुम्हारे लिए याहवेह की बातों को स्पष्ट करते हुए घोषित करता जा रहा था. आग के भय से तुम ऊपर नहीं जाना चाह रहे थे.

याहवेह ने कहा था:

6“मैं ही हूं याहवेह, तुम्हारा परमेश्वर, जिसने तुम्हें मिस्र देश के बंधन से छुड़ाया.

7“मेरे अलावा तुम किसी दूसरे को ईश्वर नहीं मानोगे.

8तुम अपने लिए न तो आकाश की, न पृथ्वी की, और न जल की किसी वस्तु की मूर्ति बनाना. 9न इनमें से किसी को दंडवत करना और न उसकी आराधना करना; मैं, याहवेह, जो तुम्हारा परमेश्वर हूं, जलन रखनेवाला परमेश्वर हूं, जो मुझे अस्वीकार करते हैं, मैं उनके पापों का प्रतिफल उनके बेटों, पोतों और परपोतों तक को दूंगा, 10किंतु उन हजारों पीढ़ियों पर, जिन्हें मुझसे प्रेम है तथा जो मेरे आदेशों का पालन करते हैं, अपनी करुणा प्रकट करता रहूंगा.

11तुम याहवेह, अपने परमेश्वर के नाम का गलत इस्तेमाल नहीं करोगे, क्योंकि याहवेह उस व्यक्ति को बिना दंड दिए नहीं छोड़ेंगे, जो याहवेह का नाम व्यर्थ में लेता है.

12शब्बाथ को पवित्र दिन के रूप में मानना, जैसा कि याहवेह, तुम्हारे परमेश्वर का आदेश है. 13छः दिन मेहनत करते हुए तुम अपने सारे काम पूरे कर लोगे, 14मगर सातवां दिन याहवेह तुम्हारे परमेश्वर का शब्बाथ है; इस दिन तुम कोई भी काम नहीं करोगे; तुम, तुम्हारे पुत्र-पुत्रियां, तुम्हारे पुरुष अथवा महिला सेवक न तुम्हारे गधे अथवा तुम्हारे सारे पशु अथवा तुम्हारे यहां रहनेवाले विदेशी, कि तुम्हारे सेवक-सेविकाएं भी तुम्हारे समान विश्राम कर सकें. 15तुम्हें याद रखना है कि तुम खुद मिस्र देश में दास थे और याहवेह, तुम्हारे परमेश्वर ने तुम्हें वहां से अपनी बलवंत भुजा बढ़ाकर निकाला है; इसलिये याहवेह, तुम्हारे परमेश्वर ने तुम्हें आदेश दिया है, कि शब्बाथ दिवस का पालन किया जाए.

16याहवेह, अपने परमेश्वर के आदेश के अनुसार अपने पिता अपनी माता का आदर करना, कि तुम लंबी आयु के हो जाओ और उस देश में तुम्हारा भला हो, जो याहवेह, तुम्हारे परमेश्वर तुम्हें दे रहे हैं.

17तुम मानव हत्या नहीं करना.

18तुम व्यभिचार नहीं करना.

19तुम चोरी नहीं करना.

20तुम अपने पड़ोसी के विरुद्ध झूठी गवाही नहीं देना.

21तुम अपने पड़ोसी की पत्नी का लालच नहीं करना, और न तुम अपने पड़ोसी के घर का, उसके खेत का, न किसी सेवक, सेविका का; अथवा उसके बैल अथवा गधे का; उसकी किसी भी वस्तु का लालच नहीं करना.”

22यह सब याहवेह ने उस पर्वत पर आग, बादल और गहरे अंधकार में से ऊंचे शब्द में तुम सभी से, अर्थात् इकट्ठी हुई महासभा से, कहे थे, इसमें उन्होंने और कुछ भी नहीं जोड़ा. इसके बाद उन्होंने यह सब दो पट्टियों पर उकेर कर मुझे दे दिया.

23और फिर, जब तुमने उस तमस में से वह स्वर सुना, जब वह पर्वत आग में धधक रहा था, तब तुम सभी गोत्रपिता और प्रधान मेरे पास आ गए, 24और तुमने मुझसे विनती की, “सुनिए, याहवेह, हमारे परमेश्वर ने हम पर अपना तेज, अपनी प्रभुता दिखा दी है, हमने आग के बीच से उनकी आवाज भी सुन ली है; आज हमने साक्षात देख लिया है, कि परमेश्वर मनुष्य से बातचीत करते हैं, फिर भी मनुष्य जीवित रह जाता है. 25मगर अब, क्या यह ज़रूरी है कि हमारी मृत्यु हो? क्योंकि यह प्रचंड आग हमें चट करने पर है; अब यदि हमें याहवेह, हमारे परमेश्वर का स्वर और अधिक सुनना पड़ जाए, तो हमारी मृत्यु तय है. 26क्योंकि, क्या यह कभी भी सुना गया है, कि किसी मनुष्य ने उस आग के बीच से जीवित परमेश्वर की आवाज सुनी हो, जिस प्रकार हमने सुनी और जीवित रह गया हो? 27आप ही पास जाकर सुन लीजिए, कि याहवेह हमारे परमेश्वर क्या कह रहे हैं; इसके बाद यहां लौटकर हमारे सामने वह बात दोहरा दीजिए, जो याहवेह हमारे परमेश्वर ने आपसे वहां कही है, हम वह सब सुनकर उसका पालन करेंगे.”

28याहवेह ने तुम्हारे द्वारा मेरे सामने रखा प्रस्ताव सुना, तब याहवेह ने मुझसे कहा, “मैंने इन लोगों द्वारा भेजा प्रस्ताव सुन लिया है, जो उन्होंने तुम्हारे सामने प्रस्तुत किया है. उनकी यह बात सही है. 29सही होगा कि उनमें ऐसी सच्चाई हो कि उनके हृदय में मेरे प्रति भय बना रहे, और वे हमेशा ही मेरे आदेशों का पालन करते रहें, कि उनका और उनकी संतान का सदा-सर्वदा भला ही होता रहे!

30“जाकर उन्हें आदेश दो, अपने-अपने शिविरों में लौट जाओ. 31मगर तुम यहां मेरे ही पास खड़े रहो, कि मैं तुम्हारे सामने वे सभी आदेश, नियम और विधियां स्पष्ट कर सकूं, जिनकी तुम्हें उन्हें शिक्षा देनी है, कि वे इनका उस देश में जाकर पालन कर सकें, जिस देश मैं उन्हें अधिकार करने के लिए दे रहा हूं.”

32तब तुम सावधानीपूर्वक उन सभी आदेशों का पालन करोगे, जिसका आदेश याहवेह, तुम्हारे परमेश्वर ने दिया है; न तो तुम दाएं मुड़ोगे, न बाएं. 33जो मार्ग याहवेह, तुम्हारे परमेश्वर ने तुम्हें दिखाया है, तुम सिर्फ उसी पर आगे बढ़ते जाओगे, कि तुम जीवित रह सको और तुम्हारा भला हो, कि तुम जिस देश पर अधिकार करोगे, उसमें तुम लंबी आयु के होते जाओ.

New Arabic Version

التثنية 5:1-33

الوصايا العشر

1وَاسْتَدْعَى مُوسَى جَمِيعَ الإِسْرَائِيلِيِّينَ وَقَالَ لَهُمْ: «اسْمَعُوا يَا بَنِي إِسْرَائِيلَ الشَّرَائِعَ وَالأَحْكَامَ الَّتِي أَتْلُوهَا عَلَيْكُمْ فِي هَذَا الْيَوْمِ، وَتَعَلَّمُوهَا وَاحْرِصُوا عَلَى مُمَارَسَتِهَا. 2قَطَعَ الرَّبُّ إِلَهُنَا مَعَنَا عَهْداً فِي جَبَلِ حُورِيبَ. 3لَيْسَ مَعَ آبَائِنَا قَطَعَ هَذَا الْعَهْدَ، إِنَّمَا مَعَنَا نَحْنُ الَّذِينَ هُنَا الْيَوْمَ جَمِيعاً أَحْيَاءُ، 4إِذْ تَكَلَّمَ الرَّبُّ مَعَنَا فِي الْجَبَلِ مِنْ وَسَطِ النَّارِ وَجْهاً لِوَجْهٍ. 5وَكُنْتُ أَنَا وَاقِفاً بَيْنَ الرَّبِّ وَبَيْنَكُمْ، لأَنَّكُمْ خِفْتُمْ مِنَ النَّارَ، فَلَمْ تَصْعَدُوا إِلَى الْجَبَلِ. فَقَالَ الرَّبُّ: 6أَنَا هُوَ الرَّبُّ إِلَهُكَ الَّذِي حَرَّرَكَ مِنْ سِجْنِ الْعُبُودِيَّةِ فِي دِيَارِ مِصْرَ. 7لَا يَكُنْ لَكَ آلِهَةٌ أُخْرَى أَمَامِي. 8لَا تَنْحَتْ لَكَ تِمْثَالاً، وَلا صُورَةً مَا مِمَّا فِي السَّمَاءِ وَمَا فِي الأَرْضِ وَمَا فِي الْمَاءِ تَحْتَ الأَرْضِ. 9لَا تَسْجُدْ لَهَا وَلا تَعْبُدْهَا، لأَنِّي أَنَا الرَّبُّ إِلَهُكَ إِلَهٌ غَيُورٌ، أَفْتَقِدُ مَعَاصِيَ الآبَاءِ فِي الأَبْنَاءِ حَتَّى الْجِيلِ الثَّالِثِ وَالرَّابِعِ مِنْ مُبْغِضِيَّ. 10وَأُحْسِنُ إِلَى أُلُوفٍ مِنْ مُحِبِّيَّ وَطَائِعِي وَصَايَايَ. 11لَا تَنْطِقْ بِاسْمِ الرَّبِّ إِلَهِكَ بَاطِلاً، لأَنَّ الرَّبَّ لَا يُبْرِئُ مَنْ يَنْطِقُ بِاسْمِهِ بَاطِلاً. 12احْفَظْ يَوْمَ السَّبْتِ مُقَدَّساً كَمَا أَوْصَاكَ الرَّبُّ إِلَهُكَ. 13سِتَّةَ أَيَّامٍ تَشْتَغِلُ وَتَقُومُ بِجَمِيعِ أَعْمَالِكَ، 14وَأَمَّا الْيَوْمُ السَّابِعُ فَيَكُونُ يَوْمَ رَاحَةٍ لِلرَّبِّ إِلَهِكَ، لَا تَقُومُ فِيهِ بِأَيِّ عَمَلٍ أَنْتَ وَابْنُكَ وَابْنَتُكَ وَعَبْدُكَ وَأَمَتُكَ وَثَوْرُكَ وَحِمَارُكَ وَكُلُّ بَهَائِمِكَ، وَالأَجْنَبِيُّ الْمُقِيمُ دَاخِلَ أَبْوَابِكَ، لِيَسْتَرِيحَ عَبْدُكَ وَأَمَتُكَ مِثْلَكَ. 15وَتَذَكَّرْ أَنَّكَ كُنْتَ عَبْداً فِي دِيَارِ مِصْرَ، فَأَطْلَقَكَ الرَّبُّ مِنْ هُنَاكَ بِقُدْرَةٍ فَائِقَةٍ وَقُوَّةٍ شَدِيدَةٍ، لِهَذَا أَوْصَاكَ الرَّبُّ إِلَهُكَ أَنْ تَرْتَاحَ فِي يَوْمِ السَّبْتِ. 16أَكْرِمْ أَبَاكَ وَأُمَّكَ كَمَا أَمَرَكَ الرَّبُّ إِلَهُكَ، فَتَطُولَ أَيَّامُكَ وَيَكُونَ لَكَ خَيْرٌ عَلَى الأَرْضِ الَّتِي يُوَرِّثُهَا لَكَ الرَّبُّ إِلَهُكَ. 17لَا تَقْتُلْ. 18لَا تَزْنِ. 19لَا تَسْرِقْ. 20لَا تَشْهَدْ عَلَى جَارِكَ شَهَادَةَ زُورٍ. 21لَا تَشْتَهِ امْرَأَةَ غَيْرِكَ وَلا بَيْتَهُ وَلا حَقْلَهُ وَلا عَبْدَهُ وَلا أَمَتَهُ وَلا ثَوْرَهُ وَلا حِمَارَهُ وَلا أَيَّاً مِمَّا لَهُ.

22إِنَّ الرَّبَّ قَدْ أَعْلَنَ بِصَوْتٍ عَظِيمٍ هَذِهِ الْكَلِمَاتِ لِكُلِّ جَمَاعَتِكُمْ فِي الْجَبَلِ مِنْ وَسَطِ النَّارِ وَالسَّحَابِ وَلَمْ يَزِدْ. وَنَقَشَهَا عَلَى لَوْحَيْنِ مِنْ حَجَرٍ وَأَعْطَانِي إِيَّاهَا.

23فَلَمَّا سَمِعْتُمُ الصَّوْتَ مِنْ وَسَطِ الظَّلامِ، وَالْجَبَلُ يَشْتَعِلُ بِالنَّارِ، أَقْبَلَ عَلَيَّ جَمِيعُ قَادَةِ أَسْبَاطِكُمْ وَشُيُوخِكُمْ، 24وَقَالُوا: قَدْ أَظْهَرَ الرَّبُّ لَنَا مَجْدَهُ وَعَظَمَتَهُ، وَسَمِعْنَا صَوْتَهُ مِنْ وَسَطِ النَّارِ، وَرَأَيْنَا فِي هَذَا الْيَوْمِ أَنَّ اللهَ يُخَاطِبُ الإِنْسَانَ فَلا يَمُوتُ. 25وَلَكِنِ الآنَ، إِنْ عُدْنَا نَسْمَعُ صَوْتَ الرَّبِّ إِلَهِنَا فَإِنَّ هَذِهِ النَّارَ الْعَظِيمَةَ تَلْتَهِمُنَا. فَلِمَاذَا نَمُوتُ؟ 26إِذْ أَيُّ بَشَرِيٍّ سَمِعَ صَوْتَ اللهِ الْحَيِّ يَتَكَلَّمُ مِنْ وَسَطِ النَّارِ مِثْلَنَا وَعَاشَ؟ 27فَتَقَدَّمْ أَنْتَ وَاسْتَمِعْ كُلَّ مَا يَنْطِقُ بِهِ الرَّبُّ إِلَهُنَا، وَخَاطِبْنَا بِجَمِيعِ مَا يُكَلِّمُكَ بِهِ، فَنَسْتَمِعَ وَنُطِيعَ. 28فَسَمِعَ الرَّبُّ حَدِيثَكُمْ حِينَ كَلَّمْتُمُونِي، وَقَالَ لِي: لَقَدْ سَمِعْتُ حَدِيثَ الشَّعْبِ الَّذِي كَلَّمُوكَ بِهِ. وَقَدْ أَحْسَنُوا فِي كُلِّ مَا قَالُوهُ. 29يَا لَيْتَ قَلْبَهُمْ يَظَلُّ مُتَعَلِّقاً بِي حَتَّى يَتَّقُونِي وَيُطِيعُوا جَمِيعَ وَصَايَايَ دَائِماً، لِكَيْ يَتَمَتَّعُوا هُمْ وَأَوْلادُهُمْ بِالْخَيْرِ إِلَى الأَبَدِ. 30اذْهَبْ وَقُلْ لَهُمْ: ارْجِعُوا إِلَى خِيَامِكُمْ. 31وَأَمَّا أَنْتَ فَامْثُلْ هُنَا أَمَامِي، فَأُكَلِّمَكَ بِجَمِيعِ الْوَصَايَا وَالشَّرَائِعِ وَالأَحْكَامِ لِتُعَلِّمَهَا لَهُمْ فَيَعْمَلُوا بِها فِي الأَرْضِ الَّتِي وَهَبْتُهَا لَهُمْ لِيَمْتَلِكُوهَا. 32فَاحْرِصُوا عَلَى الْعَمَلِ بِكُلِّ مَا أَمَرَكُمْ بِهِ الرَّبُّ إِلَهُكُمْ، لَا تَحِيدُوا يَمِيناً أَوْ شِمَالاً. 33وَاسْلُكُوا فِي كُلِّ الطَّرِيقِ الَّتِي أَوْصَاكُمْ بِها الرَّبُّ لِتَحْيَوْا وَتَزْدَهِرُوا وَتَمْكُثُوا طَوِيلاً فِي الأَرْضِ الَّتِي تَرِثُونَهَا.