विलापगीत 3 – Hindi Contemporary Version HCV

Hindi Contemporary Version

विलापगीत 3:1-66

1मैं वह व्यक्ति हूं,

जिसने याहवेह के कोप-दण्ड में पीड़ा का साक्षात अनुभव किया है.

2उन्होंने हकालते हुए मुझे घोर अंधकार में डाल दिया है

कहीं थोड़ा भी प्रकाश दिखाई नहीं देता;

3निश्चयतः बार-बार, सारे दिन

उनका कठोर हाथ मेरे विरुद्ध सक्रिय बना रहता है.

4मेरा मांस तथा मेरी त्वचा गलते जा रहे हैं

और उन्होंने मेरी अस्थियों को तोड़ दिया है.

5उन्होंने मुझे पकड़कर कष्ट

एवं कड़वाहट में लपेट डाला है.

6उन्होंने मुझे इस प्रकार अंधकार में रहने के लिए छोड़ दिया है

मानो मैं दीर्घ काल से मृत हूं.

7उन्होंने मेरे आस-पास दीवार खड़ी कर दी है, कि मैं बचकर पलायन न कर सकूं;

उन्होंने मुझे भारी बेड़ियों में बांध रखा है.

8मैं सहायता की दोहाई अवश्य देता हूं,

किंतु वह मेरी पुकार को अवरुद्ध कर देते हैं.

9उन्होंने मेरे मार्गों को पत्थर लगाकर बाधित कर दिया है;

उन्होंने मेरे मार्गों को विकृत बना दिया है.

10वह एक ऐसा रीछ है, ऐसा सिंह है,

जो मेरे लिए घात लगाए हुए बैठा है,

11मुझे भटका कर मुझे टुकड़े-टुकड़े कर डाला

और उसने मुझे निस्सहाय बना छोड़ा है.

12उन्होंने अपना धनुष चढ़ाया

तथा मुझे अपने बाणों का लक्ष्य बना लिया.

13अपने तरकश से बाण लेकर

उन्होंने उन बाणों से मेरा हृदय बेध दिया.

14सभी के लिए अब तो मैं उपहास पात्र हूं;

सारे दिन उनके व्यंग्य-बाण मुझ पर छोड़े जाते हैं.

15उन्होंने मुझे कड़वाहट से भर दिया है

उन्होंने मुझे नागदौने से सन्तृप्‍त कर रखा है.

16उन्होंने मुझे कंकड़ों पर दांत चलाने के लिए विवश कर दिया है;

मुझे भस्म के ढेर में जा छिपने के लिए विवश कर दिया है.

17शांति ने मेरी आत्मा का साथ छोड़ दिया है;

मुझे तो स्मरण ही नहीं रहा कि सुख-आनन्द क्या होता है.

18इसलिये मुझे यही कहना पड़ रहा है,

“न मुझमें धैर्य शेष रहा है और न ही याहवेह से कोई आशा.”

19स्मरण कीजिए मेरी पीड़ा और मेरी भटकन,

वह नागदौन तथा वह कड़वाहट.

20मेरी आत्मा को इसका स्मरण आता रहता है,

मेरा मनोबल शून्य हुआ जा रहा है.

21मेरी आशा मात्र इस स्मृति के

आधार पर जीवित है:

22याहवेह का करुणा-प्रेम3:22 करुणा-प्रेम मूल में ख़ेसेद इस हिब्री शब्द का अर्थ में अनुग्रह, दया, प्रेम, करुणा ये सब शामिल हैं, के ही कारण हम भस्म नही होते!

कभी भी उनकी कृपा का ह्रास नहीं होता.

23प्रति प्रातः वे नए पाए जाते हैं;

महान है आपकी विश्वासयोग्यता.

24मेरी आत्मा इस तथ्य की पुष्टि करती है, “याहवेह मेरा अंश हैं;

इसलिये उनमें मेरी आशा रखूंगा.”

25याहवेह के प्रिय पात्र वे हैं, जो उनके आश्रित हैं,

वे, जो उनके खोजी हैं;

26उपयुक्त यही होता है कि हम धीरतापूर्वक

याहवेह द्वारा उद्धार की प्रतीक्षा करें.

27मनुष्य के लिए हितकर यही है

कि वह आरंभ ही से अपना जूआ उठाए.

28वह एकाकी हो शांतिपूर्वक इसे स्वीकार कर ले,

जब कभी यह उस पर आ पड़ता है.

29वह अपना मुख धूलि पर ही रहने दे—

आशा कभी मृत नहीं होती.

30वह अपना गाल उसे प्रस्तुत कर दे, जो उस प्रहार के लिए तैयार है,

वह समस्त अपमान स्वीकार कर ले.

31प्रभु का परित्याग

चिरस्थायी नहीं हुआ करता.

32यद्यपि वह पीड़ा के कारण तो हो जाते हैं, किंतु करुणा का सागर भी तो वही हैं,

क्योंकि अथाह होता है उनका करुणा-प्रेम.

33पीड़ा देना उनका सुख नहीं होता

न ही मनुष्यों को यातना देना उनका आनंद होता है.

34पृथ्वी के समस्त

बंदियों का दमन,

35परम प्रधान की उपस्थिति

में न्याय-वंचना,

36किसी की न्याय-दोहाई में

की गई विकृति में याहवेह का समर्थन कदापि नहीं होता?

37यदि स्वयं प्रभु ने कोई घोषणा न की हो,

तो किसमें यह सामर्थ्य है, कि जो कुछ उसने कहा है, वह पूरा होगा?

38क्या यह तथ्य नहीं कि अनुकूल अथवा प्रतिकूल,

जो कुछ घटित होता है, वह परम प्रधान के बोलने के द्वारा ही होता है?

39भला कोई जीवित मनुष्य

अपने पापों के दंड के लिए परिवाद कैसे कर सकता है?

40आइए हम अपनी नीतियों का परीक्षण करें

तथा अपने याहवेह की ओर लौट चलें:

41आइए हम अपने हृदय एवं अपनी बांहें परमेश्वर की ओर उन्मुख करें

तथा अपने हाथ स्वर्गिक परमेश्वर की ओर उठाएं:

42“हमने अपराध किए हैं, हम विद्रोही हैं,

आपने हमें क्षमा प्रदान नहीं की है.

43“आपने स्वयं को कोप में भरकर हमारा पीछा किया;

निर्दयतापूर्वक हत्यायें की हैं.

44आपने स्वयं को एक मेघ में लपेट रखा है,

कि कोई भी प्रार्थना इससे होकर आप तक न पहुंच सके.

45आपने हमें राष्ट्रों के मध्य कीट

तथा कूड़ा बना छोड़ा है.

46“हमारे सभी शत्रु बेझिझक

हमारे विरुद्ध निंदा के शब्द उच्चार रहे हैं.

47आतंक, जोखिम, विनाश

तथा विध्वंस हम पर आ पड़े हैं.”

48मेरी प्रजा के इस विनाश के कारण

मेरे नेत्रों के अश्रुप्रवाह नदी सदृश हो गए हैं.

49बिना किसी विश्रान्ति

मेरा अश्रुपात होता रहेगा,

50जब तक स्वर्ग से

याहवेह इस ओर दृष्टिपात न करेंगे.

51अपनी नगरी की समस्त पुत्रियों की नियति ने

मेरे नेत्रों को पीड़ित कर रखा है.

52उन्होंने, जो अकारण ही मेरे शत्रु हो गए थे,

पक्षी सदृश मेरा अहेर किया है.

53उन्होंने तो मुझे गड्ढे में झोंक

मुझ पर पत्थर लुढ़का दिए हैं;

54जब जल सतह मेरे सिर तक पहुंचने लगी,

मैं विचार करने लगा, अब मैं मिट जाऊंगा.

55गड्ढे से मैंने,

याहवेह आपकी दोहाई दी.

56आपने मेरी इस दोहाई सुन ली है:

“मेरी विमुक्ति के लिए की गई मेरी पुकार की ओर से,

अपने कान बंद न कीजिए.”

57जब मैंने आपकी दोहाई दी, आप निकट आ गए;

आपने आश्वासन दिया, “डरो मत.”

58प्रभु आपने मेरा पक्ष लेकर;

मेरे जीवन को सुरक्षा प्रदान की है.

59याहवेह, आपने वह अन्याय देख लिया है, जो मेरे साथ किया गया है.

अब आप मेरा न्याय कीजिए!

60उनके द्वारा लिया गया बदला आपकी दृष्टि में है,

उनके द्वारा रचे गए सभी षड़्‍यंत्र आपको ज्ञात हैं.

61याहवेह, आपने उनके द्वारा किए गए व्यंग्य सुने हैं,

उनके द्वारा रचे गए सभी षड़्‍यंत्र आपको ज्ञात हैं—

62मेरे हत्यारों के हृदय में सारे दिन जो विचार उभरते हैं

होंठों से निकलते हैं, मेरे विरुद्ध ही होते हैं.

63आप ही देख लीजिए, उनका उठना-बैठना,

मैं ही हूं उनका व्यंग्य-गीत.

64याहवेह, उनके कृत्यों के अनुसार,

उन्हें प्रतिफल तो आप ही देंगे.

65आप उनके हृदय पर आवरण डाल देंगे,

उन पर आपका शाप प्रभावी हो जाएगा!

66याहवेह, आप अपने स्वर्गलोक से

उनका पीछा कर उन्हें नष्ट कर देंगे.