यशायाह 37 – HCV & HOF

Hindi Contemporary Version

यशायाह 37:1-38

हिज़किय्याह द्वारा सहायता की याचना

1जब राजा हिज़किय्याह ने यह सब सुना, उसने अपने वस्त्र फाड़ दिए, टाट पहन लिया और याहवेह के भवन में चला गया. 2राजा ने गृह प्रबंधक एलियाकिम, सचिव शेबना, पुरनियों और पुरोहितों को, जो टाट धारण किए हुए थे, आमोज़ के पुत्र भविष्यद्वक्ता यशायाह के पास भेजा. 3उन्होंने जाकर यशायाह से विनती की, “हिज़किय्याह की यह विनती है, ‘आज का दिन संकट, फटकार और अपमान का दिन है. प्रसव का समय आ पहुंचा है मगर प्रसूता में प्रसव के लिए शक्ति ही नहीं रह गई. 4संभव है याहवेह, आपके परमेश्वर राबशाकेह37:4 राबशाकेह अर्थात् मैदान के सेनापति द्वारा कहे गए सभी शब्द सुन लें, जो उसके स्वामी, अश्शूर के राजा ने जीवित परमेश्वर की निंदा में उससे कहलवाए थे. संभव है इन शब्दों को सुनकर याहवेह, आपके परमेश्वर उसे फटकार लगाएं. इसलिये कृपा कर यहां प्रजा के बचे हुओं के लिए आकर प्रार्थना कीजिए.’ ”

5जब राजा हिज़किय्याह के सेवक यशायाह के पास पहुंचे, 6यशायाह ने उनसे कहा, “अपने स्वामी से कहना, ‘याहवेह का संदेश यह है, उन शब्दों के कारण जो तुमने सुने हैं, जिनके द्वारा अश्शूर के राजा के सेवकों ने मेरी निंदा की है, तुम डरना मत. 7तुम देख लेना मैं उसमें एक ऐसी आत्मा ड़ाल दूंगा कि उसे उड़ते-उड़ते समाचार सुनाई देने लगेंगे और वह अपने देश को लौट जाएगा और ऐसा कुछ करूंगा कि वह अपने ही देश में तलवार का कौर हो जाएगा.’ ”

8जब प्रमुख सेनापति अपने देश लौटा, उसने पाया कि अश्शूर राजा लाकीश छोड़कर जा चुका था और वह लिबनाह से युद्ध कर रहा था.

9जब सेनहेरीब ने कूश के राजा तिरहाकाह से यह सुना कि वह तुमसे युद्ध करने निकल पड़ा है तब उसने अपने दूत हिज़किय्याह के पास यह कहकर भेजा: 10“तुम यहूदिया के राजा हिज़किय्याह से यह कहना, ‘जिस परमेश्वर पर तुम भरोसा करते हो, वह तुमसे यह प्रतिज्ञा करते हुए छल न करने पाए, कि येरूशलेम अश्शूर के राजा के अधीन नहीं किया जाएगा. 11तुम यह सुन ही चुके हो, कि अश्शूर के राजाओं ने सारे राष्ट्रों को कैसे नाश कर दिया है. क्या तुम बचकर सुरक्षित रह सकोगे? 12जब मेरे पूर्वजों ने गोज़ान, हारान, रेत्सेफ़ और तेलास्सार में एदेन की प्रजा को खत्म कर डाला था, क्या उनके देवता उनको बचा सके थे? 13कहां है हामाथ का राजा, अरपाद का राजा, सेफरवाइम नगर का राजा और हेना और इव्वाह के राजा?’ ”

मंदिर में हिज़किय्याह की प्रार्थना

14इसके बाद हिज़किय्याह ने उन पत्र ले आनेवाले दूतों से वह पत्र लेकर उसे पढ़ा और याहवेह के भवन को चला गया और उस पत्र को खोलकर याहवेह के सामने रख दिया. 15हिज़किय्याह ने याहवेह से यह प्रार्थना की: 16“सर्वशक्तिमान याहवेह, इस्राएल के परमेश्वर, आप, जो करूबों से भी ऊपर सिंहासन पर विराजमान हैं. परमेश्वर आप ही ने स्वर्ग और पृथ्वी को बनाया. 17अपने कान मेरी ओर कीजिए, याहवेह, मेरी प्रार्थना सुन लीजिए. अपनी आंखें खोल दीजिए और याहवेह, देख लीजिए और उन शब्दों को सुन लीजिए, जो सेनहेरीब ने जीवित परमेश्वर का मज़ाक उड़ाते हुए कहे हैं.

18“याहवेह, यह सच है कि अश्शूर के राजाओं ने राष्ट्रों को और उनकी भूमि को उजाड़ कर छोड़ा हैं. 19और उनके देवताओं को आग में डाल दिया है, सिर्फ इसलिये कि वे देवता थे ही नहीं, वे तो सिर्फ मनुष्य के बनाए हुए थे, सिर्फ लकड़ी और पत्थर. इसलिये वे नाश कर दिए गए. 20अब, हे याहवेह, हमारे परमेश्वर, हमें उनके हाथ से बचा ताकि पूरी पृथ्वी को यह मालूम हो जाए कि याहवेह, केवल आप ही परमेश्वर हैं.”

सेनहेरीब का पतन

21तब आमोज़ के पुत्र यशायाह ने हिज़किय्याह को यह संदेश भेजा: “याहवेह, इस्राएल का परमेश्वर यों कहते हैं; इसलिये कि तुमने अश्शूर के राजा सेनहेरीब के संबंध में मुझसे विनती की. 22उसके विरुद्ध कहे गए याहवेह के शब्द ये है:

“ज़ियोन की कुंवारी

कन्या ने तुम्हें तुच्छ समझा है, तुम्हारा मज़ाक उड़ाया है.

येरूशलेम की पुत्री

तुम्हारी पीठ पीछे सिर हिलाती है.

23तुमने किसका अपमान और निंदा की है?

किसके विरुद्ध तुमने आवाज ऊंची की है?

और किसके विरुद्ध तुम्हारी दृष्टि घमण्ड़ से उठी है?

इस्राएल के महा पवित्र की ओर!

24तुमने अपने दूतों के द्वारा

याहवेह की निंदा की है.

तुमने कहा,

‘अपने रथों की बड़ी संख्या लेकर

मैं पहाड़ों की ऊंचाइयों पर चढ़ आया हूं,

हां, लबानोन के दुर्गम, दूर के स्थानों तक;

मैंने सबसे ऊंचे देवदार के पेड़ काट गिराए हैं,

इसके सबसे उत्तम सनोवरों को भी;

मैंने इसके दूर-दूर के घरों में प्रवेश किया,

हां, इसके घने वनों में भी.

25मैंने कुएं खोदे

और परदेश का जल पिया,

अपने पांवों के तलवों से

मैंने मिस्र की सभी नदियां सुखा दीं.’

26“ ‘क्या तुमने सुना नहीं?

इसका निश्चय मैंने बहुत साल पहले कर लिया था?

इसकी योजना मैंने बहुत पहले ही बना ली थी,

जिसको मैं अब पूरा कर रहा हूं,

कि तुम गढ़ नगरों को

खंडहरों का ढेर बना दो.

27तब जब नगरवासियों का बल जाता रहा,

उनमें निराशा और लज्जा फैल गई.

वे मैदान की वनस्पति

और जड़ी-बूटी के समान हरे हो गए.

वैसे ही, जैसे छत पर उग आई घास बढ़ने के पहले ही मुरझा जाती है.

28“ ‘मगर तुम्हारा उठना-बैठना मेरी दृष्टि में है,

तुम्हारा भीतर आना और बाहर जाना भी

और मेरे विरुद्ध तुम्हारा तेज गुस्सा भी!

29मेरे विरुद्ध तुम्हारे तेज गुस्से के कारण

और इसलिये कि मैंने तुम्हारे घमण्ड़ के विषय में सुन लिया है,

मैं तुम्हारी नाक में अपनी नकेल डालूंगा

और तुम्हारे मुख में लगाम

और तब मैं तुम्हें मोड़कर उसी मार्ग पर चलाऊंगा

जिससे तुम आए थे.’

30“तब तुम्हारे लिए यह चिन्ह होगा:

“इस साल तुम्हारा भोजन उस उपज का होगा, जो अपने आप उगती है;

अगले साल वह, जो इसी से उपजेगी;

तीसरे साल तुम बीज बोओगे, उपज काटोगे,

अंगूर के बगीचे लगाओगे और उनके फल खाओगे.

31तब यहूदाह गोत्र का बचा हुआ भाग दोबारा अपनी जड़ें भूमि में

गहरे जा मजबूत करता जाएगा और ऊपर वृक्ष फलवंत होता जाएगा.

32क्योंकि येरूशलेम से एक बचा हुआ भाग ही विकसित होगा,

और ज़ियोन पर्वत से भागे हुए लोग.

सेनाओं के याहवेह अपनी जलन के कारण ऐसा करेंगे.

33“इसलिये अश्शूर के राजा के बारे में याहवेह का यह संदेश है:

“वह न तो इस नगर में प्रवेश करेगा,

न वह वहां बाण चलाएगा.

न वह इसके सामने ढाल लेकर आएगा

और न ही वह इसकी घेराबंदी के लिए ढलान ही बना पाएगा.

34वह तो उसी मार्ग से लौट जाएगा जिससे वह आया था.

वह इस नगर में प्रवेश ही न करेगा.”

यह याहवेह का संदेश है.

35“क्योंकि अपनी और अपने सेवक दावीद की

महिमा के लिए मैं इसके नगर की रक्षा करूंगा!”

36उसी रात ऐसा हुआ कि याहवेह के एक स्वर्गदूत ने अश्शूरी सेना के शिविर में जाकर एक लाख पचासी हज़ार सैनिकों को मार दिया. सुबह जागने पर लोगों ने पाया कि सारे सैनिक मर चुके थे. 37यह होने पर अश्शूर का राजा सेनहेरीब अपने देश लौट गया और नीनवेह नगर में रहने लगा.

38एक बार, जब वह अपने देवता निसरोक के भवन में उसकी उपासना कर रहा था, उसी के पुत्रों, अद्राम्मेलेख और शारेज़र ने तलवार से उस पर वार किया और वे अरारात प्रदेश में जाकर छिप गए. उसके स्थान पर उसके पुत्र एसारहद्दन ने शासन करना शुरू किया.

Hoffnung für Alle

Jesaja 37:1-38

Der Herr ermutigt Hiskia

(2. Könige 19,1‒7)

1Als König Hiskia das hörte, zerriss auch er seine Kleider und hüllte sich in ein Trauergewand. Dann ging er in den Tempel des Herrn. 2Den Palastverwalter Eljakim, den Hofsekretär Schebna und einige führende Priester schickte er in Trauergewändern zum Propheten Jesaja, dem Sohn von Amoz. 3»Wir haben dir etwas von Hiskia auszurichten«, begannen sie. »Er lässt dir sagen: Heute ist ein schrecklicher Tag, die Assyrer haben uns schwer beleidigt. Das ist die Strafe für unsere Sünden. Die Lage ist so ernst wie bei einer Geburt, wenn die Mutter keine Kraft mehr hat, ihr Kind zu gebären. 4Doch vielleicht hat der Herr, dein Gott, alle Lästerungen des Rabschake gehört. Der Gesandte des assyrischen Königs hat den lebendigen Gott verhöhnt! Sicher hat der Herr seine Worte gehört und bestraft ihn dafür. O Jesaja, bete für uns, bete für die Überlebenden!«

5Als sie Hiskias Botschaft ausgerichtet hatten, 6gab Jesaja ihnen gleich eine Antwort für den König mit: »So spricht der Herr: Hab keine Angst vor den Drohungen, die du gehört hast. Lass dich nicht einschüchtern, wenn die Boten des assyrischen Königs über mich lästern! 7Ich will ihn dazu bringen, dass er seine Truppen von hier abzieht. Er wird ein Gerücht hören und darüber so beunruhigt sein, dass er umgehend in sein Land zurückkehrt. Dort lasse ich ihn durch das Schwert umkommen.«

Sanheribs Drohungen – Hiskias Gebet

(2. Könige 19,8‒19; 2. Chronik 32,17)

8Der Rabschake kehrte zu König Sanherib zurück, der inzwischen wieder von Lachisch aufgebrochen war und nun die Stadt Libna belagerte.

9Sanherib hörte, der äthiopische König Tirhaka sei mit einem Heer unterwegs, um die Assyrer anzugreifen. Da schickte er noch einmal eine Gesandtschaft zu König Hiskia und ließ ihm einen Brief überbringen. 10»Überschätze deinen Gott nicht«, hieß es darin, »lass dich nicht von ihm täuschen, wenn er dir sagt: ›Jerusalem wird nicht fallen, der assyrische König kann die Stadt nicht einnehmen!‹ 11Du weißt doch, wie die assyrischen Könige gegen ihre Feinde vorgehen: Ihre Länder verwüsten sie, und die Bewohner metzeln sie nieder. Und da solltest gerade du verschont bleiben? 12Wurden denn Städte wie Gosan, Haran oder Rezef von ihren Göttern beschützt? Wie war es mit den Leuten von Eden, die in Telassar wohnten? Kein Gott half ihnen, als meine Vorgänger sie vernichteten! 13Und wo sind heute die Könige von Hamat und Arpad, Sefarwajim, Hena und Awa?«

14Die Boten überbrachten Hiskia das Schreiben. Er las es und ging damit in den Tempel. Dort breitete er den Brief vor dem Herrn aus 15und begann zu beten:

16»Allmächtiger Gott, du Gott Israels, der du über den Keruben thronst, du allein bist Gott über alle Königreiche der Welt. Himmel und Erde hast du geschaffen. 17Herr, erhöre mich! Sieh doch, wie schlimm es um uns steht! Höre, wie Sanherib dich, den lebendigen Gott, verhöhnt. 18Es ist wahr, Herr: Die assyrischen Könige haben die Länder aller ihrer Feinde verwüstet. 19Sie haben deren Götter ins Feuer geworfen, denn es waren ja keine lebendigen Götter, sondern nur Figuren aus Holz oder Stein, von Menschen gemacht. Darum konnten die Assyrer sie verbrennen. 20Nun bitte ich dich, Herr, unser Gott: Rette uns aus der Gewalt des assyrischen Königs! Alle Länder der Erde sollen erkennen, dass du allein der Herr bist!«

Gottes Antwort auf den Spott des assyrischen Königs

(2. Könige 19,20‒37; 2. Chronik 32,20‒21)

21Da schickte Jesaja, der Sohn von Amoz, einen Boten zu König Hiskia, der ihm sagen sollte: »So spricht der Herr, der Gott Israels: Ich habe dein Gebet wegen Sanherib gehört. 22Höre nun, was ich zum König von Assyrien sage:

Die Stadt Zion hat bloß Verachtung und Spott für dich übrig! Ganz Jerusalem schüttelt den Kopf über dich. 23Weißt du überhaupt, wen du verhöhnt und gelästert hast? Weißt du, mit wem du dich angelegt hast? Mit dem heiligen Gott Israels! 24Durch deine Boten hast du mich, den Herrn, verspottet. Du prahlst:

›Mit meinen vielen Streitwagen habe ich die Berge bezwungen, bis zum höchsten Gipfel des Libanon bin ich vorgestoßen. Seine mächtigen Zedern habe ich gefällt und die schönsten Zypressen abgeholzt. Ich erreichte seine entlegensten Höhen und drang in jedes Dickicht seiner Wälder vor. 25Wo es kein Wasser gab, habe ich mir Brunnen gegraben, um daraus zu trinken. Und auch die Nilarme in Ägypten waren kein Hindernis für mich: Unter meinen Schritten trockneten sie aus.‹

26Du König von Assyrien, weißt du es denn nicht? Womit du jetzt prahlst, das habe ich schon in grauer Vorzeit geplant, seit langem ist es vorbereitet! Nur darum habe ich zugelassen, dass du befestigte Städte einreißt und sie in Trümmerhaufen verwandelst. 27Ihre Einwohner waren machtlos gegen dich, du hast Schrecken und Schande über sie gebracht. Sie waren wie junges Grün auf dem Feld, wie zartes Gras auf Lehmdächern, das im heißen Ostwind verdorrt. 28Ich kenne dich ganz genau. Ich weiß, ob du sitzt oder stehst. Ich sehe, wann du kommst und wann du gehst. Ich weiß auch, wie du gegen mich wütest. 29Dein Prahlen habe ich gehört. Weil du so gegen mich tobst, will ich dir einen Ring durch die Nase ziehen und meinen Zaum ins Maul legen. Dann treibe ich dich den Weg wieder zurück, den du gekommen bist.

30Dir, Hiskia, gebe ich ein Zeichen, an dem du erkennen kannst, dass ich mein Versprechen halte: In diesem und im nächsten Jahr müsst ihr von dem leben, was auf euren Feldern von allein nachwächst. Doch im übernächsten Jahr könnt ihr wieder säen und ernten, Weinberge anlegen und ihre Früchte essen wie früher. 31Die Bewohner von Juda, die diese schwere Zeit überstehen, werden in Frieden in ihrer Heimat leben können wie Pflanzen, die Wurzeln schlagen und Frucht bringen. 32Denn in Jerusalem wird ein Rest meines Volkes übrig bleiben und vom Berg Zion aus das Land wieder bevölkern. Ich, der Herr, der allmächtige Gott, sorge dafür und verfolge leidenschaftlich mein Ziel.

33Ich sage dir auch, was mit dem assyrischen König geschehen wird: Seine Truppen werden Jerusalem mit keinem Fuß betreten. Sie werden keinen einzigen Pfeil abschießen und nicht im Schutz ihrer Schilde gegen die Stadtmauer anstürmen. Nicht einmal einen Belagerungswall werden sie aufschütten. 34Die Assyrer werden Jerusalem nicht stürmen, sondern auf demselben Weg abziehen, den sie gekommen sind. Darauf gebe ich, der Herr, mein Wort. 35Um meiner Ehre willen beschütze ich diese Stadt. Ich rette sie, weil ich es meinem Diener David versprochen habe.«

36Da ging der Engel des Herrn in das Lager der Assyrer und tötete 185.000 Soldaten. Am nächsten Morgen war alles mit Leichen übersät.

37Da ließ Sanherib zum Aufbruch blasen, zog seine Truppen ab und kehrte nach Assyrien zurück. Er blieb in der Hauptstadt Ninive. 38Eines Tages, als er im Tempel seines Gottes Nisroch betete, stachen ihn seine Söhne Adrammelech und Sarezer mit dem Schwert nieder. Die beiden flohen in das Land Ararat, und Asarhaddon, ein anderer Sohn von Sanherib, wurde sein Nachfolger.