गणना 11 – HCV & HOF

Hindi Contemporary Version

गणना 11:1-35

परिवादी इस्राएली

1अब इस्राएली कठिन परिस्थिति में याहवेह के सामने शिकायत करने लगे. जब याहवेह को उनका बड़बड़ाना सुनाई पड़ा, तब उनका क्रोध भड़क उठा और उनके बीच में याहवेह की आग जल उठी, परिणामस्वरूप छावनी के किनारे जल गए. 2लोगों ने मोशेह से विनती की और मोशेह ने याहवेह से विनती की, जिससे यह आग शांत हो गई. 3उन्होंने उस स्थान का नाम दिया ताबेराह11:3 ताबेराह अर्थ: जलना, क्योंकि उनके बीच याहवेह की आग जल उठी थी.

याहवेह की ओर से बटेरें

4इस्राएलियों के बीच में जो सम्मिश्र लोग मिस्र देश से साथ हो लिए थे, वे अन्य भोजन वस्तुओं की कामना करने लगे. उनके साथ मिलकर इस्राएल का घराना भी रोने और बड़बड़ाने लगा, “हमारे खाने के लिए कौन हमें मांस देगा! 5मिस्र देश में तो हमें बहुतायत से खाने के लिए मुफ़्त में मछलियां मिल जाती थीं. हमें वहां के खीरे, खरबूजे, कंद, प्याज तथा लहसुन स्मरण आ रहे हैं. 6यहां तो हमारा जी घबरा रहा है; अब तो यहां यह मन्‍ना ही मन्‍ना बचा रह गया है!”

7मन्‍ना का स्वरूप धनिया के बीज के समान तथा रंग मोती के समान था. 8लोग इसे इकट्ठा करने जाते थे, इसे चक्की में पीसते अथवा ओखली में कूट लिया करते थे. इसके बाद इसे बर्तन में उबाल कर इसके व्यंजन बना लिया करते थे. इसका स्वाद तेल में तले हुए पुए के समान था. 9रात में जब ओस पड़ती थी, सारे पड़ाव पर इसी के साथ मन्‍ना भी पड़ा करता था.

10मोशेह को इस्राएलियों का रोना सुनाई दे रहा था; हर एक गोत्र अपनी-अपनी छावनी के द्वार पर खड़ा हुआ था. याहवेह का क्रोध बहुत अधिक भड़क उठा. यह मोशेह के लिए चिंता का विषय हो गया. 11मोशेह ने याहवेह से विनती की, “आपने अपने दास से यह बुरा व्यवहार क्यों किया है? क्यों मुझ पर आपकी कृपादृष्टि न रही है, जो आपने इन सारे लोगों का भार मुझ पर लाद दिया है? 12क्या मैंने इन लोगों को गर्भ में धारण किया है? क्या मैंने इन्हें जन्म दिया है, जो आप मुझे यह आदेश दे रहे हैं ‘इन्हें अपनी गोद में लेकर चलो, जैसे माता अपने दूध पीते बच्‍चे को लेकर चलती है’ उस देश की ओर जिसे देने की प्रतिज्ञा आपने इनके पूर्वजों से की थी? 13इन सबके लिए मैं मांस कहां से लाऊं? वे लगातार मेरे सामने शिकायत कर कहते हैं, ‘हमें खाने के लिए मांस दो!’ 14मेरे लिए यह संभव नहीं कि मैं इन सबका भार अकेला उठाऊं; मेरे लिए यह असंभव बोझ सिद्ध हो रहा है. 15इसलिये यदि आपका व्यवहार मेरे प्रति यही रहेगा तथा मुझ पर आपकी कृपादृष्टि बनी है, तो आप इसी क्षण मेरे प्राण ले लीजिए ताकि मैं अपनी दुर्दशा का सामना करने के लिए जीवित ही न रहूं.”

16यह सुन याहवेह ने मोशेह को यह आज्ञा दी: “इस्राएल में से मेरे सामने सत्तर पुरनिये इकट्‍ठे करो. ये लोग ऐसे हों, जिन्हें तुम जानते हो, जो लोगों में से पुरनिये और अधिकारी हैं. इन्हें तुम मिलनवाले तंबू के सामने अपने साथ लेकर खड़े रहना. 17तब मैं वहां आकर तुमसे बातचीत करूंगा मैं तुम्हारे अंदर की आत्मा को उनके अंदर कर दूंगा. वे तुम्हारे साथ मिलकर इन लोगों का भार उठाएंगे; तब तुम अकेले इस बोझ को उठानेवाले न रह जाओगे.

18“लोगों को आज्ञा दो: ‘आनेवाले कल के लिए स्वयं को पवित्र करो. कल तुम्हें मांस का भोजन प्राप्‍त होगा; क्योंकि तुम्हारा रोना याहवेह द्वारा सुन लिया गया है. तुम कामना कर रहे थे, “कैसा होता यदि कोई हमें मांस का भोजन ला देता! हम मिस्र देश में ही भले थे!” याहवेह अब तुम्हें मांस का भोजन देंगे और तुम उसको खाओगे भी. 19तुम एक दिन नहीं, दो दिन नहीं, पांच दिन नहीं, दस दिन नहीं, बीस दिन नहीं, 20बल्कि एक पूरे महीने खाओगे, कि यह तुम्हारे नथुनों से बाहर निकलने लगेगा तथा स्वयं तुम्हारे लिए यह घृणित हो जाएगा; क्योंकि तुमने याहवेह को, जो तुम्हारे बीच में रहता है तुच्छ समझा. तुम उनके सामने यह कहते हुए रोते रहे: “हम मिस्र देश से क्यों निकलकर आए?” ’ ”

21किंतु मोशेह ने इस पर कहा, “जिन लोगों का यहां वर्णन हो रहा है, वे छः लाख पदयात्री हैं; फिर भी आप कह रहे हैं, ‘मैं उन्हें मांस का भोजन दूंगा, कि वे एक महीने तक इसको खाते रहें!’ 22क्या सारी भेड़-बकरियों एवं पशुओं का वध किया जाने पर भी इनके लिए काफ़ी होगा? क्या समुद्र की सारी मछलियों को इकट्ठा किया जाने पर भी इनके लिये काफ़ी होगा?”

23याहवेह ने मोशेह को उत्तर दिया, “क्या याहवेह का हाथ छोटा हो गया है? अब तो तुम यह देख ही लोगे कि तुम्हारे संबंध में मेरा वचन पूरा होता है या नहीं.”

24मोशेह बाहर गए तथा याहवेह के ये शब्द लोगों के सामने दोहरा दिए. इसके अलावा उन्होंने लोगों में से चुने हुए वे सत्तर भी अपने साथ लेकर उन्हें मिलनवाले तंबू के चारों ओर खड़ा कर दिया. 25तब याहवेह उस बादल में प्रकट हुए और मोशेह के सामने आए. याहवेह ने मोशेह पर रहनेवाले आत्मा की सामर्थ्य को लेकर उन सत्तर पर समा दिया, जब आत्मा उन सत्तर प्रधानों पर उतरा तब उन सत्तर ने भविष्यवाणी की, किंतु उन्होंने इसको दोबारा नहीं किया.

26किंतु इनमें से दो प्रधान अपने-अपने शिविरों में ही छूट गए थे; एक का नाम था एलदाद तथा अन्य का मेदाद, आत्मा उन पर भी उतरी. ये दोनों के नाम पुरनियों की सूची में थे, किंतु ये उन सत्तर के साथ मोशेह के बुलाने पर तंबू के निकट नहीं गए थे, इन्होंने अपने-अपने शिविरों में ही भविष्यवाणी की. 27एक युवक ने दौड़कर मोशेह को सूचना दी, “शिविरों में एलदाद एवं मेदाद भविष्यवाणी कर रहे हैं.”

28यह सुन नून का पुत्र यहोशू, जो बचपन से ही मोशेह का सहायक हो चुका था, कहने लगा, “मेरे गुरु मोशेह, उन्हें रोक दीजिए!”

29किंतु मोशेह ने उससे कहा, “क्या तुम मेरे लिए उनसे ईर्ष्या कर रहो? मेरी इच्छा है कि याहवेह अपने आत्मा को अपनी सारी प्रजा पर उतरने दें, तथा सभी भविष्यद्वक्ता हो जाएं!” 30इसके बाद मोशेह तथा इस्राएल के वे प्रधान अपने-अपने शिविरों को लौट गए.

31याहवेह की ओर से एक ऐसी प्रचंड आंधी आई, कि समुद्रतट से बटेरें आकर छावनी के निकट गिरने लगीं. इनका क्षेत्र छावनी के इस ओर एक दिन की यात्रा की दूरी तक तथा उस ओर एक दिन की यात्रा की दूरी तक; छावनी के चारों ओर था. ये बटेरें ज़मीन से लगभग एक मीटर की ऊंचाई तक उड़ती हुई पाई गईं. 32इन बटेरों को इकट्ठा करने में लोगों ने सारा दिन, सारी रात तथा अगला सारा दिन लगा दिया. जिस व्यक्ति ने कम से कम इकट्ठा किया था उसका माप था लगभग एक हज़ार छः सौ किलो. इन्हें लोगों ने सुखाने के उद्देश्य से फैला दिया. 33जब वह मांस उनके मुख में ही था, वे इसे चबा भी न पाए थे कि याहवेह का क्रोध इन लोगों के प्रति भड़क उठा और उन्होंने इन लोगों पर अत्यंत घोर महामारी ड़ाल दी. 34इसके फलस्वरूप वह स्थान किबरोथ-हत्ताआवह11:34 किबरोथ-हत्ताआवह अर्थ: लालसा की कब्रें नाम से मशहूर हो गया, क्योंकि उस स्थान पर इस्राएलियों ने अपने मृतकों को भूमि में गाड़ा था, जिन्होंने इस भोजन के लिए लालसा की थी.

35किबरोथ-हत्ताआवह से लोगों ने हाज़ोरौथ की ओर कूच किया तथा वे वहीं डेरा डाले रहे.

Hoffnung für Alle

4. Mose 11:1-35

Das Volk ist unzufrieden

1Die Israeliten waren wegen der Wanderung durch die Wüste unzufrieden und begannen, sich zu beklagen. Als der Herr das hörte, wurde er sehr zornig. Er ließ am Rand des Lagers ein Feuer ausbrechen, das Zelt um Zelt zerstörte. 2Die Israeliten rannten zu Mose und schrien um Hilfe. Da betete er für sie zum Herrn, und das Feuer erlosch. 3Den Ort nannte man Tabera (»Brand«).

4Doch das Jammern nahm kein Ende. Unter den Israeliten waren viele Fremde, die sich dem Volk angeschlossen hatten, als es Ägypten verließ. Sie forderten nun besseres Essen, und schon fingen auch die Israeliten wieder an zu klagen: »Niemand gibt uns Fleisch zu essen! 5In Ägypten war das anders! Da bekamen wir umsonst so viel Fisch, wie wir wollten, da gab es Gurken, Melonen, Lauch, Zwiebeln und Knoblauch. 6Aber hier haben wir nichts außer jeden Tag dieses Manna. Darauf ist uns der Appetit gründlich vergangen!«

7Das Manna bestand aus kleinen Körnern, ähnlich dem Koriandersamen, und sah aus wie Bedellion-Harz11,7 Vermutlich hatte es eine helle, durchscheinende Farbe.. 8-9Jede Nacht fiel es mit dem Tau auf das Lager. Die Israeliten sammelten es ein und zerkleinerten es mit Handmühlen oder Mörsern. Sie kochten es oder backten Fladenbrot davon, das wie Ölkuchen schmeckte.

Moses Klage

10Die israelitischen Familien saßen vor ihren Zelten und klagten. Mose ärgerte sich darüber, denn er wusste, dass sie erneut den Zorn des Herrn auf sich zogen. 11»Warum tust du mir das an?«, fragte er den Herrn. »Ich bin zwar dein Diener! Aber musst du mir wirklich die Verantwortung für dieses ganze Volk aufhalsen? Hast du denn kein Erbarmen mit mir? 12Bin ich etwa die Mutter dieser Menschen? Habe ich sie zur Welt gebracht? Oder bin ich ihr Pflegevater? Wie kannst du von mir verlangen, dass ich sie wie einen Säugling auf meinen Armen in das Land trage, das du ihren Vorfahren versprochen hast? 13Sie weinen und flehen mich an: ›Gib uns Fleisch zu essen!‹ Woher soll ich denn Fleisch für Hunderttausende von Menschen nehmen? 14Ich kann die Verantwortung für dieses Volk nicht länger allein tragen. Ich halte es nicht mehr aus! 15Wenn es so weitergehen soll, dann bring mich lieber gleich um! Ja, erspar mir dieses Elend, wenn dir etwas an mir liegt!«

Mose bekommt Hilfe

16Der Herr antwortete Mose: »Such unter den Sippenoberhäuptern von Israel siebzig Männer aus! Nimm Leute, die als zuverlässige Anführer des Volkes bekannt sind. Bring sie zum heiligen Zelt und stell dich mit ihnen dort auf! 17Dann will ich herabkommen und mit dir sprechen. Ich werde etwas von meinem Geist, der auf dir ruht, nehmen und auf sie legen. Sie sollen von nun an die Last mit dir teilen. Du musst die Verantwortung für das Volk nicht mehr allein tragen. 18Und dem Volk Israel sollst du sagen: ›Reinigt euch und macht euch bereit! Denn morgen wird euch der Herr Fleisch zu essen geben. Er hat euer Gejammer gehört, mit dem ihr ihm in den Ohren liegt. Er weiß, dass ihr Fleisch essen wollt und am liebsten wieder in Ägypten wärt! Nun, morgen werdet ihr Fleisch bekommen! 19Und das nicht nur ein, zwei Tage lang, auch nicht fünf oder zehn oder zwanzig Tage, 20nein, einen ganzen Monat lang, bis es euch zum Hals heraushängt und ihr euch davor ekelt! Denn ihr habt den Herrn, der mitten unter euch wohnt, verachtet und ihm bittere Vorwürfe gemacht, weil er euch aus Ägypten befreit hat.‹«

21Mose erwiderte: »Dieses Volk hat allein 600.000 wehrfähige Männer, und du willst uns Fleisch für einen ganzen Monat geben? 22Wie viele Schafe, Ziegen und Rinder sollen denn geschlachtet werden, damit es für alle reicht? Oder willst du alle Fische im Meer fangen, damit jeder etwas bekommt?«

23Der Herr entgegnete: »Traust du mir das etwa nicht zu? Du wirst bald sehen, ob ich mein Wort halte oder nicht!«

24Da berichtete Mose den Israeliten, was der Herr ihm aufgetragen hatte. Er suchte unter den Sippenoberhäuptern des Volkes siebzig Männer aus und befahl ihnen, sich im Halbkreis vor dem Heiligtum aufzustellen. 25Dann sahen sie, wie der Herr in der Wolke herabkam. Er sprach mit Mose und legte etwas von dem Geist, der auf Mose ruhte, auf die siebzig Männer. Im selben Augenblick begannen sie zu reden, was er ihnen eingab. Das geschah jedoch nur dieses eine Mal.

26Zwei der siebzig Männer, deren Namen Mose aufgeschrieben hatte, waren nicht zum heiligen Zelt gekommen, sondern im Lager geblieben. Der eine hieß Eldad, der andere Medad. Auch auf sie kam Gottes Geist, und auch sie begannen zu reden, was er ihnen eingab. 27Ein junger Mann lief zu Mose und meldete ihm: »Eldad und Medad führen sich mitten im Lager wie Propheten auf!«

28Das hörte Josua, der Sohn von Nun, ein Mann, der von Jugend an Mose gedient hatte. Er sagte zu Mose: »Verbiete es ihnen!« 29Doch Mose erwiderte: »Hast du Angst, dass mir jemand meinen Platz streitig macht? Ich wünschte, der Herr würde seinen Geist auf das ganze Volk legen und alle wären Propheten!« 30Dann ging er mit den Sippenoberhäuptern zurück ins Lager.

31Der Herr ließ einen starken Wind aufkommen und trieb gewaltige Schwärme Wachteln vom Meer herbei. Sie fielen in der Nähe des Lagers zu Boden und blieben im Umkreis von etwa 30 Kilometern bis zu einem Meter hoch liegen.11,31 Oder: Sie flogen etwa einen Meter über dem Boden, und zwar in einem Umkreis von 30 Kilometern rund um das Lager. 32Die Israeliten brauchten den ganzen Tag, die Nacht und auch noch den nächsten Tag, um die Vögel aufzulesen11,32 Oder: einzufangen.. Jeder hatte hinterher mindestens zehn große Körbe voll. Dann wurde das Fleisch der Vögel rings um das Lager ausgebreitet, damit es in der Sonne trocknen konnte.

33Doch kaum hatten die Israeliten sich die ersten Fleischstücke in den Mund geschoben, da entlud sich der Zorn des Herrn. Sehr viele starben 34zur Strafe für ihre Gier. Man begrub die Toten in der Nähe des Lagers und nannte den Ort Kibrot-Taawa (»Gräber der Gier«).

35Dann zog das Volk Israel weiter nach Hazerot und schlug dort sein Lager auf.