उत्पत्ति 43 – HCV & HOF

Hindi Contemporary Version

उत्पत्ति 43:1-34

मिस्र की दूसरी यात्रा

1देश में अब भी अकाल बहुत भयंकर था. 2जब उनके द्वारा मिस्र देश से लाया हुआ अन्‍न खत्म होने लगा, तब उनके पिता ने कहा, “जाओ, थोड़ा और अनाज खरीद कर लाओ.”

3किंतु यहूदाह ने उनसे कहा, “बड़ी गंभीरता पूर्वक उस प्रशासक ने हमें चेतावनी दी थी, ‘यदि तुम अपने साथ अपने भाई को न लाओ तो मुझे अपना मुख न दिखाना.’ 4अन्‍न मोल लेने हम तब ही वहां जायेंगे, जब आप हमारे साथ हमारे भाई को भी भेजेंगे. 5यदि आप उसे हमारे साथ नहीं भेजेंगे, तो हम भी नहीं जाएंगे. क्योंकि उस अधिपति ने कहा था, ‘मेरे सामने ही न आना, यदि तुम्हारा भाई तुम्हारे साथ न होगा.’ ”

6इस्राएल ने कहा, “क्यों तुम लोगों ने उसे यह बताकर मेरा अनर्थ कर दिया कि तुम्हारा एक भाई और भी है?”

7किंतु उन्होंने अपने पिता को यह बताया, “वह व्यक्ति ही हमसे हमारे विषय में तथा हमारे संबंधियों के विषय में पूछ रहा था, ‘क्या तुम्हारा पिता अब भी जीवित है? क्या तुम्हारा कोई अन्य भाई भी है?’ हम केवल उसके प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे. हमें क्या मालूम था कि वह हमसे ऐसा कहेंगे ‘अपने उस भाई को यहां ले आओ?’ ”

8यहूदाह ने अपने पिता इस्राएल से कहा, “इस लड़के को मेरे साथ भेज दीजिए, तब हम यहां से जाएंगे, ताकि अकाल में हमारी मृत्यु न हो जाए और आप, और हमारे बच्‍चे नहीं मरें और सब जीवित रह सकें. 9मैं इस लड़के की जवाबदारी अपने ऊपर लेता हूं; अगर उसे आपके पास लौटा न लाऊं, तो मैं सदा-सर्वदा आपका दोषी बना रहूंगा. 10यदि हम देरी न करते तो हम वहां दो बार जाकर आ गए होते.”

11यह सुन उनके पिता इस्राएल ने उनसे कहा, “अगर यही बात है, तो ठीक है, यही करो. लेकिन आप लोग अपने-अपने बोरों में उस व्यक्ति के लिए उपहार स्वरूप बलसान, मधु, गोंद, गन्धरस, पिस्ता तथा बादाम ले जाओ. 12दो गुणा रुपया भी ले जाओ और जो रुपया तुम्हारे बोरे में वहां से आया था वह भी वापस कर देना, शायद भूल हो गई होगी. 13अपने भाई को अपने साथ ले जाओ, देरी न करो. 14प्रार्थना है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर उस व्यक्ति के दिल में दया डाले ताकि वह तुम्हारे उस भाई बिन्यामिन को छोड़ दे. अगर बिछड़ना ही है, तो ऐसा ही होने दो.”

15तब उन्होंने उपहार, दो गुणा रुपया तथा अपने साथ बिन्यामिन को लिया और मिस्र के लिए रवाना हुए, और योसेफ़ के पास पहुंचे. 16जब योसेफ़ ने अपने भाइयों के साथ बिन्यामिन को देखा, तब उन्होंने अपने घर के सेवक से कहा, “इन लोगों को मेरे घर ले जाओ, एक पशु का वध कर भोजन तैयार करो. ये सभी दोपहर का भोजन मेरे साथ करेंगे.”

17सेवक से जैसा कहा गया उसने वैसा ही किया और इन भाइयों को योसेफ़ के घर पर ले गए. 18योसेफ़ के घर आकर सब डर गए. सबने सोचा, “जो रुपया हम सबके बोरे में था, वे हम लोगों को अपराधी सिद्ध करने लिए उनका उपयोग करेंगे. तब वे हम लोगों के गधों को ले लेंगे और हम लोगों को दास बनाएंगे.”

19इसलिये घर के पास आकर उन्होंने योसेफ़ के गृह सेवक से कहा, 20“महोदय, विश्वास कीजिए, जब हम पिछले बार भी मात्र अनाज खरीदने ही आये थे 21तब हमने धर्मशाला पहुंचकर अपने-अपने बोरे खोले, तो हमने देखा कि जो रुपया हमने यहां अनाज के लिए दिया था वह वापस हमारे बोरे में रखा गया; तब हम वह रुपया अपने साथ लाए हैं. 22दुबारा खरीदने के लिए भी रुपया लाए हैं. हमें कुछ भी नहीं पता कि किसने रुपया हमारे बोरों में रखा था.”

23उस सेवक ने उनसे कहा, “शांत हो जाइए, डरिये नहीं, आपके परमेश्वर, तुम्हारे पिता के परमेश्वर ने आपके बोरों में रुपया रखा होगा. मुझे तो रुपया मिल चुका है.” यह कहते हुए वह शिमओन को उनके पास बाहर लाए.

24जब सेवक उन्हें योसेफ़ के घर के भीतर ले गये, उसने उन्हें पांव धोने के लिए पानी दिया, सबने अपने पांव धोए, सेवक ने उनके गधों को चारा भी दिया. 25दोपहर में योसेफ़ के घर पहुंचने से पहले योसेफ़ को देने के लिए जो भेंट वे लाए थे उन्हें तैयार किया क्योंकि योसेफ़ इन सबके साथ खाना खाने आनेवाले थे.

26योसेफ़ के घर पहुंचते ही जो भेंट वे उनके लिए लाए थे उन्हें उनको दिया और प्रणाम किया. 27योसेफ़ ने सबका हाल पूछा और कहा, “क्या तुम्हारे बूढ़े पिता जिनके विषय में तुमने मुझे बताया था वह जीवित हैं?”

28उन्होंने कहा, “हमारे पिता ठीक हैं, अभी तक जीवित हैं.” और आदर के साथ सिर झुकाकर प्रणाम किया.

29तब योसेफ़ ने बिन्यामिन को देखा, योसेफ़ ने पूछा, “क्या यही तुम्हारा छोटा भाई है, जिसके विषय में तुमने मुझसे बताया था?” योसेफ़ ने कहा, “मेरे पुत्र, तुम पर परमेश्वर की कृपा बनी रहे.” 30यह कहकर योसेफ़ एकदम उठकर चले गए, क्योंकि अपने भाई को देखकर प्यार से उनकी आंखें भर आईं और एकांत में जाकर रोने लगे.

31वे अपना मुंह धोकर वापस बाहर आये और अपने आपको संभाला और कहा, “खाना परोसो.”

32योसेफ़ खाना खाने अलग बैठ गए और भाइयों को दूसरी ओर अलग बिठाया, क्योंकि मिस्री और इब्री एक साथ भोजन नहीं कर सकते. 33योसेफ़ के भाइयों को उनके सामने ही अपनी-अपनी आयु के क्रम से पंक्ति में बैठा गया; सबके पहले सबसे बड़ा, फिर उसका छोटा, फिर उसका छोटा. सभी भाई एक दूसरे को आश्चर्य से देखते रहे. 34योसेफ़ ने अपने लिए परोसे गए भोजन में से सबको दिया, लेकिन बिन्यामिन को पांच गुणा ज्यादा दिया गया. सबने योसेफ़ के साथ भरपेट खाया और पिया.

Hoffnung für Alle

1. Mose 43:1-34

Zweite Reise nach Ägypten

1Die Hungersnot in Kanaan wurde immer drückender. 2Bald war das Getreide aufgebraucht, das sie aus Ägypten mitgebracht hatten. »Geht wieder nach Ägypten und kauft etwas!«, bat Jakob seine Söhne. 3-5Juda erwiderte: »Der Mann hat uns ausdrücklich gesagt: ›Lasst euch nicht mehr hier blicken, außer ihr bringt euren Bruder mit!‹ Wir können also nur gehen und Getreide kaufen, wenn du Benjamin mit uns kommen lässt! Sonst hat unsere Reise keinen Sinn.« 6»Warum habt ihr dem Mann überhaupt erzählt, dass ihr noch einen Bruder habt? Musstet ihr mir das antun?«, fragte Jakob. 7»Der Mann hat sich genau nach unserer Familie erkundigt«, entgegneten sie. »Er wollte wissen, ob unser Vater noch lebt und ob wir noch einen Bruder haben. Konnten wir denn ahnen, dass er sagen würde: ›Bringt euren Bruder mit‹?« 8Juda schlug vor: »Vertrau mir den Jungen an! Dann können wir losziehen, und keiner von uns muss verhungern. 9Ich übernehme für ihn die volle Verantwortung. Wenn ich ihn dir nicht gesund zurückbringe, will ich mein Leben lang die Schuld dafür tragen! 10Wir könnten schon zweimal wieder hier sein, wenn wir nicht so lange gezögert hätten!«

11Da gab Jakob nach: »Wenn es sein muss, dann nehmt Benjamin mit. Bringt dem Mann etwas von den besten Erzeugnissen unseres Landes: kostbare Harze43,11 Wörtlich: Balsamharz, Tragakant und Ladanum., außerdem Honig, Pistazien und Mandeln. 12Nehmt doppelt so viel Geld mit, wie ihr braucht, und gebt den Betrag zurück, der oben in euren Säcken lag. Vielleicht war es ja nur ein Versehen. 13Macht euch mit Benjamin auf den Weg. 14Ich bete zum allmächtigen Gott, dass der ägyptische Herrscher Mitleid mit euch hat und Simeon und Benjamin freigibt. Und wenn ich meine Kinder verliere, dann muss es wohl so sein!«

15Die Brüder nahmen die Geschenke und den doppelten Geldbetrag und zogen mit Benjamin nach Ägypten. Dort meldeten sie sich bei Josef. 16Als Josef sah, dass Benjamin dabei war, sagte er zu seinem Hausverwalter: »Diese Männer werden heute Mittag mit mir essen. Führe sie in meinen Palast, schlachte ein Tier und bereite ein gutes Essen vor!«

17Als der Verwalter die Brüder aufforderte, ihm in Josefs Palast zu folgen, 18erschraken sie. »Sicher werden wir dort hineingeführt, weil das Geld in unseren Säcken war!«, dachten sie. »Jetzt werden sie uns überwältigen, die Esel wegnehmen und uns zu Sklaven machen!«

19Am Eingang zum Palast sagten sie zu dem Verwalter: 20»Bitte, Herr, wir waren schon einmal hier, um Getreide zu kaufen. 21Auf dem Rückweg übernachteten wir in einer Herberge. Als wir dort unsere Getreidesäcke öffneten, lag in jedem das Geld, mit dem wir bezahlt hatten. Jetzt haben wir es wieder mitgebracht, 22zusammen mit neuem Geld, um noch einmal Getreide zu kaufen. Wir können wirklich nicht sagen, wer das Geld in unsere Säcke getan hat!«

23»Macht euch keine Sorgen, es ist alles in Ordnung«, beruhigte sie der Hausverwalter. »Euer Gott muss es heimlich hineingelegt haben, denn ich habe euer Geld bekommen!«

Dann brachte er Simeon zu ihnen 24und führte sie in den Palast. Dort gab er ihnen Wasser, damit sie sich die Füße waschen konnten, und fütterte ihre Esel. 25Sie nutzten die Zeit, um ihre Geschenke für Josef zurechtzulegen; inzwischen hatten sie nämlich erfahren, dass sie mit ihm zu Mittag essen würden.

26Als Josef eintrat, überreichten sie ihm die Geschenke und warfen sich vor ihm nieder. 27Er erkundigte sich, wie es ihnen ging. »Was macht euer alter Vater, von dem ihr mir erzählt habt?«, fragte er. »Lebt er noch?« 28»Ja, Herr«, antworteten sie, »und es geht ihm gut.« Dann warfen sie sich erneut vor ihm nieder.

29Josef sah seinen Bruder Benjamin an, den Sohn seiner eigenen Mutter, und fragte: »Das ist also euer jüngster Bruder, von dem ihr mir erzählt habt? Gott segne dich!« 30Der Anblick Benjamins bewegte ihn so sehr, dass ihm die Tränen kamen. Er lief hinaus und weinte in seinem Zimmer. 31Dann wusch er sein Gesicht und ging wieder zurück. Mühsam beherrschte er sich und befahl seinen Dienern, das Essen aufzutragen.

32Josef hatte einen eigenen Tisch, die Brüder aßen an einem anderen, und an einem dritten saßen die Ägypter, die mit dabei waren. Ihre Religion verbot es den Ägyptern nämlich, mit den Hebräern an einem Tisch zu essen, weil sie dadurch unrein würden. 33Josefs Brüder saßen ihm gegenüber. Jeder hatte seinen Platz zugewiesen bekommen, und zwar genau nach der Reihenfolge ihres Alters. Sie blickten sich erstaunt an. 34Als Zeichen der besonderen Ehre ließ Josef ihnen von den Gerichten auftragen, die auf seinem Tisch standen. Benjamin bekam einen sehr großen Anteil – fünfmal so viel wie seine Brüder! Dazu tranken sie Wein. Es war eine fröhliche Feier.