अय्योब 38 – HCV & NAV

Hindi Contemporary Version

अय्योब 38:1-41

अय्योब से परमेश्वर का संवाद

1तब स्वयं याहवेह ने तूफान में से अय्योब को उत्तर दिया:

2“कौन है वह, जो अज्ञानता के विचारों द्वारा

मेरी युक्ति को बिगाड़ रहा है?

3ऐसा करो अब तुम पुरुष के भाव कमर बांध लो;

तब मैं तुमसे प्रश्न करना प्रारंभ करूंगा,

तुम्हें इन प्रश्नों का उत्तर देना होगा.

4“कहां थे तुम, जब मैंने पृथ्वी की नींव डाली थी?

यदि तुममें कुछ भी समझ है, मुझे इसका उत्तर दो.

5यदि तुम्हें मालूम हो! तो मुझे बताओ, किसने पृथ्वी की नाप ठहराई है?

अथवा, किसने इसकी माप रेखाएं निश्चित की?

6किस पदार्थ पर इसका आधार स्थापित है?

किसने इसका आधार रखा?

7जब निशांत तारा सहगान में एक साथ गा रहे थे

तथा सभी स्वर्गदूत उल्लासनाद कर रहे थे, तब कहां थे तुम?

8“अथवा किसने महासागर को द्वारों द्वारा सीमित किया,

जब गर्भ से इसका उद्भव हो रहा था;

9जब मैंने इसके लिए मेघ परिधान निर्मित किया

तथा घोर अंधकार को इसकी मेखला बना दिया,

10तथा मैंने इस पर सीमाएं चिन्हित कर दीं तथा ऐसे द्वार बना दिए,

जिनमें चिटकनियां लगाई गईं;

11तथा मैंने यह आदेश दे दिया ‘तुम यहीं तक आ सकते हो, इसके आगे नहीं

तथा यहां आकर तुम्हारी वे सशक्त वाली तरंगें रुक जाएंगी’?

12“क्या तुमने अपने जीवन में प्रभात को यह आदेश दिया है,

कि वह उपयुक्त क्षण पर ही अरुणोदय किया करे,

13कि यह पृथ्वी के हर एक छोर तक प्रकट करे,

कि दुराचारी अपने-अपने छिपने के स्थान से हिला दिए जाएं?

14गीली मिट्टी पर मोहर लगाने समान परिवर्तन

जिसमें परिधान के सूक्ष्म भेद स्पष्ट हो जाते हैं.

15सूर्य प्रकाश की उग्रता दुर्वृत्तों को दुराचार से रोके रहती है,

मानो हिंसा के लिए उठी हुई उनकी भुजा तोड़ दी गई हो.

16“अच्छा, यह बताओ, क्या तुमने जाकर महासागर के स्रोतों का निरीक्षण किया है

अथवा सागर तल पर चलना फिरना किया है?

17क्या तुमने घोर अंधकार में जाकर

मृत्यु के द्वारों को देखा है?

18क्या तुम्हें ज़रा सा भी अनुमान है,

कि पृथ्वी का विस्तार कितना है, मुझे बताओ, क्या-क्या मालूम है तुम्हें?

19“कहां है प्रकाश के घर का मार्ग?

वैसे ही, कहां है अंधकार का आश्रय,

20कि तुम उन्हें यह तो सूचित कर सको,

कि कहां है उनकी सीमा तथा तुम इसके घर का मार्ग पहचान सको?

21तुम्हें वास्तव में यह मालूम है, क्योंकि तब तुम्हारा जन्म हो चुका होगा!

तब तो तुम्हारी आयु के वर्ष भी अनेक ही होंगे!

22“क्या तुमने कभी हिम के भंडार में प्रवेश किया है,

अथवा क्या तुमने कभी हिम के भण्डारगृह देखे हैं,

23उन ओलों को जिन्हें मैंने पीड़ा के समय के लिए रखा हुआ है

युद्ध तथा संघर्ष के दिनों के लिए?

24क्या तुम्हें मालूम है कि प्रकाश का विभाजन कहां है,

अथवा यह कि पृथ्वी पर पुरवाई कैसे बिखर जाती है?

25क्या तुम्हें मालूम है कि बड़ी बरसात के लिए धारा की नहर किसने काटी है,

अथवा बिजली की दिशा किसने निर्धारित की है,

26कि रेगिस्तान प्रदेश में पानी बरसायें,

उस बंजर भूमि जहां कोई नहीं रहता,

27कि उजड़े और बंजर भूमि की प्यास मिट जाए,

तथा वहां घास के बीजों का अंकुरण हो जाए?

28है कोई वृष्टि का जनक?

अथवा कौन है ओस की बूंदों का उत्पादक?

29किस गर्भ से हिम का प्रसव है?

तथा आकाश का पाला कहां से जन्मा है?

30जल पत्थर के समान कठोर हो जाता है

तथा इससे महासागर की सतह एक कारागार का रूप धारण कर लेती है.

31“अय्योब, क्या तुम कृतिका नक्षत्र के समूह को परस्पर गूंथ सकते हो,

अथवा मृगशीर्ष के बंधनों को खोल सकते हो?

32क्या तुम किसी तारामंडल को उसके निर्धारित समय पर प्रकट कर सकते हो

तथा क्या तुम सप्‍त ऋषि को दिशा-निर्देश दे सकते हो?

33क्या तुम आकाशमंडल के अध्यादेशों को जानते हो,

अथवा क्या तुम पृथ्वी पर भी वही अध्यादेश प्रभावी कर सकते हो?

34“क्या यह संभव है कि तुम अपना स्वर मेघों तक प्रक्षेपित कर दो,

कि उनमें परिसीमित जल तुम्हारे लिए विपुल वृष्टि बन जाए?

35क्या तुम बिजली को ऐसा आदेश दे सकते हो,

कि वे उपस्थित हो तुमसे निवेदन करें, ‘क्या आज्ञा है, आप आदेश दें’?

36किसने बाज पक्षी में ऐसा ज्ञान स्थापित किया है,

अथवा किसने मुर्गे को पूर्व ज्ञान की क्षमता प्रदान की है?

37कौन है वह, जिसमें ऐसा ज्ञान है, कि वह मेघों की गणना कर लेता है?

अथवा कौन है वह, जो आकाश के पानी के मटकों को झुका सकता है,

38जब धूल मिट्टी का ढेला बनकर कठोर हो जाती है,

तथा ये ढेले भी एक दूसरे से मिल जाते हैं?

39“अय्योब, क्या तुम सिंहनी के लिए शिकार करते हो,

शेरों की भूख को मिटाते हो

40जो अपनी कन्दरा में दुबकी बैठी है,

अथवा जो झाड़ियों में घात लगाए बैठी है?

41कौवों को पौष्टिक आहार कौन परोसता है,

जब इसके बच्‍चे परमेश्वर को पुकारते हैं,

तथा अपना भोजन खोजते हुए भटकते रहते हैं?

New Arabic Version

أيوب 38:1-41

الله يتكلم

1ثُمَّ قَالَ الرَّبُّ لأَيُّوبَ مِنَ الْعَاصِفَةِ: 2«مَنْ ذَا الَّذِي يُظْلِمُ الْقَضَاءَ بِكَلامٍ مُجَرَّدٍ مِنَ الْمَعْرِفَةِ؟ 3اشْدُدْ حَقَوَيْكَ كَرَجُلٍ لأَسْأَلَكَ فَتُجِيبَنِي 4أَيْنَ كُنْتَ عِنْدَمَا أَسَّسْتُ الأَرْضَ؟ أَخْبِرْنِي إِنْ كُنْتَ ذَا حِكْمَةٍ. 5مَنْ حَدَّدَ مَقَايِيسَهَا، إِنْ كُنْتَ حَقّاً تَعْرِفُ؟ أَوْ مَنْ مَدَّ عَلَيْهَا خَيْطَ الْقِيَاسِ؟ 6عَلَى أَيِّ شَيْءٍ اسْتَقَرَّتْ قَوَاعِدُهَا؟ وَمَنْ وَضَعَ حَجَرَ زَاوِيَتِهَا؟ 7بَيْنَمَا كَانَتْ كَوَاكِبُ السَّمَاءِ تَتَرَنَّمُ مَعاً وَمَلائِكَةُ اللهِ تَهْتِفُ بِفَرَحٍ.

8مَنْ حَجَزَ الْبَحْرَ بِبَوَّابَاتٍ، عِنْدَمَا انْدَفَقَ مِنْ رَحِمِ الأَرْضِ، 9حِينَ جَعَلْتُ السُّحُبَ لِبَاساً لَهُ وَالظُّلْمَةَ قِمَاطَهُ، 10عِنْدَمَا عَيَّنْتُ لَهُ حُدُوداً، وَأَثْبَتُّ بَوَّابَاتِهِ وَمَغَالِيقَهُ فِي مَوَاضِعِهَا، 11وَقُلْتُ لَهُ: إِلَى هُنَا تُخُومُكَ فَلا تَتَعَدَّاهَا، وَهُنَا يَتَوَقَّفُ عُتُوُّ أَمْوَاجِكَ؟

12هَلْ أَمَرْتَ مَرَّةً الصُّبْحَ فِي أَيَّامِكَ، وَأَرَيْتَ الْفَجْرَ مَوْضِعَهُ، 13لِيَقْبِضَ عَلَى أَكْنَافِ الأَرْضِ وَيَنْفُضَ الأَشْرَارَ مِنْهَا؟ 14تَتَشَكَّلُ كَطِينٍ تَحْتَ الْخَاتَمِ، وَتَبْدُو مَعَالِمُهَا كَمَعَالِمِ الرِّدَاءِ. 15يَمْتَنِعُ النُّورُ عَنِ الأَشْرَارِ، وَتَتَحَطَّمُ ذِرَاعُهُمُ الْمُرْتَفِعَةُ.

16هَلْ غُصْتَ إِلَى يَنَابِيعِ الْبَحْرِ، أَمْ دَلَفْتَ إِلَى مَقَاصِيرِ اللُّجَجِ؟ 17هَلِ اطَّلَعْتَ عَلَى أَبْوَابِ الْمَنِيَّةِ، أَمْ رَأَيْتَ بَوَّابَاتِ ظِلالِ الْمَوْتِ؟ 18هَلْ أَحَطْتَ بِعَرْضِ الأَرْضِ؟ أَخْبِرْنِي إِنْ كُنْتَ بِكُلِّ هَذَا عَلِيماً.

19أَيْنَ الطَّرِيقُ إِلَى مَقَرِّ النُّورِ، وَأَيْنَ مُسْتَقَرُّ الظُّلْمَةِ؟ 20حَتَّى تَقُودَهَا إِلَى تُخُومِهَا وَتَعْرِفَ سُبُلَ مَسْكَنِهَا؟ 21حَقّاً أَنْتَ تَعْرِفُهَا لأَنَّكَ آنَئِذٍ كُنْتَ قَدْ وُلِدْتَ وَعِشْتَ أَيَّاماً طَوِيلَةً!

22هَلْ دَخَلْتَ إِلَى مَخَازِنِ الثَّلْجِ، أَمْ رَأَيْتَ خَزَائِنَ الْبَرَدِ، 23الَّتِي ادَّخَرْتُهَا لأَوْقَاتِ الضِّيقِ، لِيَوْمِ الْمَعْرَكَةِ وَالْحَرْبِ؟ 24مَا هُوَ السَّبِيلُ إِلَى مَوْضِعِ انْتِشَارِ النُّورِ، أَوْ أَيْنَ تَتَوَزَّعُ الرِّيحُ الشَّرْقِيَّةُ عَلَى الأَرْضِ؟ 25مَنْ حَفَرَ قَنَوَاتٍ لِسُيُولِ الْمَطَرِ، وَمَمَرّاً لِلصَّوَاعِقِ، 26لِيُمْطِرَ عَلَى أَرْضٍ مُقْفِرَةٍ لَا إِنْسَانَ فِيهَا، 27لِيُرْوِيَ الأَرْضَ الْخَرِبَةَ، وَلِيَسْتَنْبِتَ الأَرْضَ عُشْباً؟

28هَلْ لِلْمَطَرِ أَبٌ؟ وَمَنْ أَنْجَبَ قَطَرَاتِ النَّدَى؟ 29وَمِنْ أَيِّ أَحْشَاءٍ خَرَجَ الْجَمَدُ، وَمَنْ وَلَدَ صَقِيعَ السَّمَاءِ؟ 30تَتَجَلَّدُ الْمِيَاهُ كَحِجَارَةٍ وَيَتَجَمَّدُ وَجْهُ الْغَمْرِ.

31هَلْ تَرْبِطُ سَلاسِلَ الثُّرَيَّا، أَمْ تَفُكُّ عُقَدَ الْجَوْزَاءِ؟ 32هَلْ تَهْدِي كَوَاكِبَ الْمَنَازِلِ فِي فُصُولِهَا، أَمْ تَهْدِي النَّعْشَ مَعَ بِنَاتِهِ؟ 33هَلْ تَعْرِفُ أَحْكَامَ السَّمَاوَاتِ، أَمْ أَسَّسْتَ سُلْطَتَهَا عَلَى الأَرْضِ؟ 34هَلْ تَرْفَعُ صَوْتَكَ آمِراً الْغَمَامَ فَيَغْمُرَكَ فَيْضُ الْمِيَاهِ؟ 35هَلْ فِي وُسْعِكَ أَنْ تُطْلِقَ الْبُرُوقَ فَتَمْضِيَ وَتَقُولَ لَكَ: هَا نَحْنُ طَوْعَ أَمْرِكَ؟ 36مَنْ أَضْفَى عَلَى الْغُيُومِ حِكْمَةً وَأَنْعَمَ عَلَى الضَّبَابِ بِالْفَهْمِ؟ 37مَنْ لَهُ الْحِكْمَةُ لِيُحْصِيَ النُّجُومَ، وَمَنْ يَصُبُّ الْمَاءَ مِنْ مَيَازِيبِ السَّمَاءِ، 38حِينَ يَتَلَبَّدُ التُّرَابُ وَتَتَمَاسَكُ كُتَلُ الطِّينِ؟

عجائب عالم الحيوان

39هَلْ تَصْطَادُ الْفَرِيسَةَ لِلَّبُؤَةِ، أَمْ تُشْبِعُ جُوعَ الأَشْبَالِ، 40حِينَ تَتَرَبَّصُ فِي الْعَرَائِنِ وَتَكْمُنُ فِي أَوْجَارِهَا؟ 41مَنْ يُزَوِّدُ الْغُرَابَ بِصَيْدِهِ إِذْ تَنْعَبُ فِرَاخُهُ مُسْتَغِيثَةً بِاللهِ، وَتَهِيمُ لاِفْتِقَارِهَا إِلَى الْقُوتِ؟