स्तोत्र 38:1-11
स्तोत्र 38
दावीद का एक स्तोत्र. अभ्यर्थना.
याहवेह, अपने क्रोध में मुझे न डांटिए
और न अपने कोप में मुझे दंड दीजिए.
क्योंकि आपके बाण मुझे लग चुके हैं,
और आपके हाथ के बोझ ने मुझे दबा रखा है.
आपके प्रकोप ने मेरी देह को स्वस्थ नहीं छोड़ा;
मेरे ही पाप के परिणामस्वरूप मेरी हड्डियों में अब बल नहीं रहा.
मैं अपने अपराधों में डूब चुका हूं;
एक अतिशय बोझ के समान वे मेरी उठाने की क्षमता से परे हैं.
मेरे घाव सड़ चुके हैं, वे अत्यंत घृणास्पद हैं
यह सभी मेरी पापमय मूर्खता का ही परिणाम है.
मैं झुक गया हूं, दुर्बलता के शोकभाव से अत्यंत नीचा हो गया हूं;
सारे दिन मैं विलाप ही करता रहता हूं.
मेरी कमर में जलती-चुभती-सी पीड़ा हो रही है;
मेरी देह अत्यंत रुग्ण हो गई है.
मैं दुर्बल हूं और टूट चुका हूं;
मैं हृदय की पीड़ा में कराह रहा हूं.
प्रभु, आपको यह ज्ञात है कि मेरी आकांक्षा क्या है;
मेरी आहें आपसे छुपी नहीं हैं.
मेरे हृदय की धड़कने तीव्र हो गई हैं, मुझमें बल शेष न रहा;
यहां तक कि मेरी आंखों की ज्योति भी जाती रही.
मेरे मित्र तथा मेरे साथी मेरे घावों के कारण मेरे निकट नहीं आना चाहते;
मेरे संबंधी मुझसे दूर ही दूर रहते हैं.