अय्योब 30:1-31
“किंतु अब तो वे ही मेरा उपहास कर रहे हैं,
जो मुझसे कम उम्र के हैं,
ये वे ही हैं, जिनके पिताओं को मैंने इस योग्य भी न समझा था
कि वे मेरी भेडों के रक्षक कुत्तों के साथ बैठें.
वस्तुतः उनकी क्षमता तथा कौशल मेरे किसी काम का न था,
शक्ति उनमें रह न गई थी.
अकाल एवं गरीबी ने उन्हें कुरूप बना दिया है,
रात्रि में वे रेगिस्तान के कूड़े में जाकर
सूखी भूमि चाटते हैं.
वे झाड़ियों के मध्य से लोनिया साग एकत्र करते हैं,
झाऊ वृक्ष के मूल उनका भोजन है.
वे समाज से बहिष्कृत कर दिए गए हैं,
और लोग उन पर दुत्कार रहे थे, जैसे कि वे चोर थे.
परिणाम यह हुआ कि वे अब भयावह घाटियों में,
भूमि के बिलों में तथा चट्टानों में निवास करने लगे हैं.
झाड़ियों के मध्य से वे पुकारते रहते हैं;
वे तो कंटीली झाड़ियों के नीचे एकत्र हो गए हैं.
वे मूर्ख एवं अपरिचित थे,
जिन्हें कोड़े मार-मार कर देश से खदेड़ दिया गया था.
“अब मैं ऐसों के व्यंग्य का पात्र बन चुका हूं;
मैं उनके सामने निंदा का पर्याय बन चुका हूं.
उन्हें मुझसे ऐसी घृणा हो चुकी है, कि वे मुझसे दूर-दूर रहते हैं;
वे मेरे मुख पर थूकने का कोई अवसर नहीं छोड़ते.
ये दुःख के तीर मुझ पर परमेश्वर द्वारा ही छोड़े गए हैं,
वे मेरे सामने पूर्णतः निरंकुश हो चुके हैं.
मेरी दायीं ओर ऐसे लोगों की सन्तति विकसित हो रही है.
जो मेरे पैरों के लिए जाल बिछाते है,
वे मेरे विरुद्ध घेराबंदी ढलान का निर्माण करते हैं.
वे मेरे निकलने के रास्ते बिगाड़ते;
वे मेरे नाश का लाभ पाना चाहते हैं.
उन्हें कोई भी नहीं रोकता.
वे आते हैं तो ऐसा मालूम होता है मानो वे दीवार के सूराख से निकलकर आ रहे हैं;
वे तूफान में से लुढ़कते हुए आते मालूम होते हैं.
सारे भय तो मुझ पर ही आ पड़े हैं;
मेरा समस्त सम्मान, संपूर्ण आत्मविश्वास मानो वायु में उड़ा जा रहा है.
मेरी सुरक्षा मेघ के समान खो चुकी है.
“अब मेरे प्राण मेरे अंदर में ही डूबे जा रहे हैं;
पीड़ा के दिनों ने मुझे भयभीत कर रखा है.
रात्रि में मेरी हड्डियों में चुभन प्रारंभ हो जाती है;
मेरी चुभती वेदना हरदम बनी रहती है.
बड़े ही बलपूर्वक मेरे वस्त्र को पकड़ा गया है
तथा उसे मेरे गले के आस-पास कस दिया गया है.
परमेश्वर ने मुझे कीचड़ में डाल दिया है,
मैं मात्र धूल एवं भस्म होकर रह गया हूं.
“मैं आपको पुकारता रहता हूं,
किंतु आप मेरी ओर ध्यान नहीं देते.
आप मेरे प्रति क्रूर हो गए हैं;
आप अपनी भुजा के बल से मुझ पर वार करते हैं.
जब आप मुझे उठाते हैं, तो इसलिये कि मैं वायु प्रवाह में उड़ जाऊं;
तूफान में तो मैं विलीन हो जाता हूं;
अब तो मुझे मालूम हो चुका है, कि आप मुझे मेरी मृत्यु की ओर ले जा रहे हैं,
उस ओर, जहां अंत में समस्त जीवित प्राणी एकत्र होते जाते हैं.
“क्या वह जो, कूड़े के ढेर में जा पड़ा है,
सहायता के लिए हाथ नहीं बढ़ाता अथवा क्या नाश की स्थिति में कोई सहायता के लिए नहीं पुकारता.
क्या संकट में पड़े व्यक्ति के लिए मैंने आंसू नहीं बहाया?
क्या दरिद्र व्यक्ति के लिए मुझे वेदना न हुई थी?
जब मैंने कल्याण की प्रत्याशा की, मुझे अनिष्ट प्राप्त हुआ;
मैंने प्रकाश की प्रतीक्षा की, तो अंधकार छा गया.
मुझे विश्रान्ति नही है, क्योंकि मेरी अंतड़ियां उबल रही हैं;
मेरे सामने इस समय विपत्ति के दिन आ गए हैं.
मैं तो अब सांत्वना रहित, विलाप कर रहा हूं;
मैं सभा में खड़ा हुआ सहायता की याचना कर रहा हूं.
मैं तो अब गीदड़ों का भाई
तथा शुतुरमुर्गों का मित्र बनकर रह गया हूं.
मेरी खाल काली हो चुकी है;
ज्वर में मेरी हड्डियां गर्म हो रही हैं.
मेरा वाद्य अब करुण स्वर उत्पन्न कर रहा है,
मेरी बांसुरी का स्वर भी ऐसा मालूम होता है, मानो कोई रो रहा है.
अय्योब 31:1-40
“अपने नेत्रों से मैंने एक प्रतिज्ञा की है
कि मैं किसी कुमारी कन्या की ओर कामुकतापूर्ण दृष्टि से नहीं देखूंगा.
स्वर्ग से परमेश्वर द्वारा क्या-क्या प्रदान किया जाता है
अथवा स्वर्ग से सर्वशक्तिमान से कौन सी मीरास प्राप्त होती है?
क्या अन्यायी के लिए विध्वंस
तथा दुष्ट लोगों के लिए सर्वनाश नहीं?
क्या परमेश्वर के सामने मेरी जीवनशैली
तथा मेरे पैरों की संख्या स्पष्ट नहीं होती?
“यदि मैंने झूठ का आचरण किया है,
यदि मेरे पैर छल की दिशा में द्रुत गति से बढ़ते,
तब स्वयं परमेश्वर सच्चे तराजू पर मुझे माप लें
तथा परमेश्वर ही मेरी निर्दोषिता को मालूम कर लें.
यदि उनके पथ से मेरे पांव कभी भटके हों,
अथवा मेरे हृदय ने मेरी स्वयं की दृष्टि का अनुगमन किया हो,
अथवा कहीं भी मेरे हाथ कलंकित हुए हों.
तो मेरे द्वारा रोपित उपज अन्य का आहार हो जाए
तथा मेरी उपज उखाड़ डाली जाए.
“यदि मेरा हृदय किसी पराई स्त्री द्वारा लुभाया गया हो,
अथवा मैं अपने पड़ोसी के द्वार पर घात लगाए बैठा हूं,
तो मेरी पत्नी अन्य के लिए कठोर श्रम के लिए लगा दी जाए,
तथा अन्य पुरुष उसके साथ सोयें,
क्योंकि कामुकता घृण्य है,
और एक दंडनीय पाप.
यह वह आग होगी, जो विनाश के लिए प्रज्वलित होती है,
तथा जो मेरी समस्त समृद्धि को नाश कर देगी.
“यदि मैंने अपने दास-दासियों के
आग्रह को बेकार समझा है
तथा उनमें मेरे प्रति असंतोष का भाव उत्पन्न हुआ हो,
तब उस समय मैं क्या कर सकूंगा, जब परमेश्वर सक्रिय हो जाएंगे?
जब वह मुझसे पूछताछ करेंगे, मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगा?
क्या उन्हीं परमेश्वर ने, जिन्होंने गर्भ में मेरी रचना की है?
उनकी भी रचना नहीं की है तथा क्या हम सब की रचना एक ही स्वरूप में नहीं की गई?
“यदि मैंने दीनों को उनकी अभिलाषा से कभी वंचित रखा हो,
अथवा मैं किसी विधवा के निराश होने का कारण हुआ हूं,
अथवा मैंने छिप-छिप कर भोजन किया हो,
तथा किसी पितृहीन को भोजन से वंचित रखा हो.
मैंने तो पिता तुल्य उनका पालन पोषण किया है,
बाल्यकाल से ही मैंने उसका मार्गदर्शन किया है.
यदि मैंने अपर्याप्त वस्त्रों के कारण किसी का नाश होने दिया है,
अथवा कोई दरिद्र वस्त्रहीन रह गया हो.
ऐसों को तो मैं ऊनी वस्त्र प्रदान करता रहा हूं,
जो मेरी भेडों के ऊन से बनाए गए थे.
यदि मैंने किसी पितृहीन पर प्रहार किया हो,
क्योंकि नगर चौक में कुछ लोग मेरे पक्ष में हो गए थे,
तब मेरी बांह कंधे से उखड़ कर गिर जाए
तथा मेरी बांह कंधे से टूट जाए.
क्योंकि परमेश्वर की ओर से आई विपत्ति मेरे लिए भयावह है.
उनके प्रताप के कारण मेरा कुछ भी कर पाना असंभव है.
“यदि मेरा भरोसा मेरी धनाढ्यता पर हो
तथा सोने को मैंने, ‘अपनी सुरक्षा घोषित किया हो,’
यदि मैंने अपनी महान संपत्ति का अहंकार किया हो,
तथा इसलिये कि मैंने अपने श्रम से यह उपलब्ध किया है.
यदि मैंने चमकते सूरज को निहारा होता, अथवा उस चंद्रमा को,
जो अपने वैभव में अपनी यात्रा पूर्ण करता है,
तथा यह देख मेरा हृदय मेरे अंतर में इन पर मोहित हो गया होता,
तथा मेरे हाथ ने इन पर एक चुंबन कर दिया होता,
यह भी पाप ही हुआ होता, जिसका दंडित किया जाना अनिवार्य हो जाता,
क्योंकि यह तो परमेश्वर को उनके अधिकार से वंचित करना हो जाता.
“क्या मैं कभी अपने शत्रु के दुर्भाग्य में आनंदित हुआ हूं
अथवा उस स्थिति पर आनन्दमग्न हुआ हूं, जब उस पर मुसीबत टूट पड़ी?
नहीं! मैंने कभी भी शाप देते हुए अपने शत्रु की मृत्यु की याचना करने का पाप
अपने मुख को नहीं करने दिया.
क्या मेरे घर के व्यक्तियों की साक्ष्य यह नहीं है,
‘उसके घर के भोजन से मुझे संतोष नहीं हुआ?’
मैंने किसी भी विदेशी प्रवासी को अपने घर के अतिरिक्त अन्यत्र ठहरने नहीं दिया,
क्योंकि मेरे घर के द्वार प्रवासियों के लिए सदैव खुले रहते हैं.
क्या, मैंने अन्य लोगों के समान अपने अंदर में अपने पाप को छुपा रखा है;
अपने अधर्म को ढांप रखा है?
क्या, मुझे जनमत का भय रहा है?
क्या, परिजनों की घृणा मुझे डरा रही है?
क्या, मैं इसलिये चुप रहकर अपने घर से बाहर न जाता था?
(“उत्तम होती वह स्थिति, जिसमें कोई तो मेरा पक्ष सुनने के लिए तत्पर होता!
देख लो ये हैं मेरे हस्ताक्षर सर्वशक्तिमान ही इसका उत्तर दें;
मेरे शत्रु ने मुझ पर यह लिखित शिकायत की है.
इसका धारण मुझे कांधों पर करना होगा,
यह आरोप मेरे अपने सिर पर मुकुट के समान धारण करना होगा.
मैं तो परमेश्वर के सामने अपने द्वारा उठाए गए समस्त पैर स्पष्ट कर दूंगा;
मैं एक राजनेता की अभिवृत्ति उनकी उपस्थिति में प्रवेश करूंगा.)
“यदि मेरा खेत मेरे विरुद्ध अपना स्वर ऊंचा करता है
तथा कुंड मिलकर रोने लगते हैं,
यदि मैंने बिना मूल्य चुकाए उपज का उपभोग किया हो
अथवा मेरे कारण उसके स्वामियों ने अपने प्राण गंवाए हों,
तो गेहूं के स्थान पर कांटे बढ़ने लगें
तथा जौ के स्थान पर जंगली घास उग जाए.”
यहां अय्योब का वचन समाप्त हो गया.
अय्योब 32:1-22
एलिहू
तब इन तीनों ने ही अय्योब को प्रत्युत्तर देना छोड़ दिया, क्योंकि अय्योब स्वयं की धार्मिकता के विषय में अटल मत के थे. किंतु राम के परिवार के बुज़वासी बारकएल के पुत्र एलिहू का क्रोध भड़क उठा-उसका यह क्रोध अय्योब पर ही था, क्योंकि अय्योब स्वयं को परमेश्वर के सामने नेक प्रमाणित करने में अटल थे. इसके विपरीत अय्योब अपने तीनों मित्रों पर नाराज थे, क्योंकि वे उनके प्रश्नों के उत्तर देने में विफल रहे थे. अब तक एलिहू ने कुछ नहीं कहा था, क्योंकि वह उन सभी से कम उम्र का था. तब, जब एलिहू ने ध्यान दिया कि अन्य तीन प्रश्नों के उत्तर देने में असमर्थ थे, तब उसका क्रोध भड़क उठा.
तब बुज़वासी बारकएल के पुत्र एलिहू ने कहना प्रारंभ किया:
“मैं ठहरा कम उम्र का
और आप सभी बड़े;
इसलिये मैं झिझकता रहा
और मैंने अपने विचार व्यक्त नहीं किए.
मेरा मत यही था, ‘विचार वही व्यक्त करें,
जो वर्षों में मुझसे आगे हैं, ज्ञान की शिक्षा वे ही दें, जो बड़े हैं.’
वस्तुतः सर्वशक्तिमान की श्वास तथा परमेश्वर का आत्मा ही है,
जो मनुष्य में ज्ञान प्रगट करता है.
संभावना तो यह है कि बड़े में विद्वत्ता ही न हो,
तथा बड़े में न्याय की कोई समझ न हो.
“तब मैंने भी अपनी इच्छा प्रकट की ‘मेरी भी सुन लीजिए;
मैं अपने विचार व्यक्त करूंगा.’
सुनिए, अब तक मैं आप लोगों के वक्तव्य सुनता हुआ ठहरा रहा हूं,
आप लोगों के विचार भी मैंने सुन लिए हैं,
जो आप लोग घोर विचार करते हुए प्रस्तुत कर रहे थे.
मैं आपके वक्तव्य बड़े ही ध्यानपूर्वक सुनता रहा हूं. निःसंदेह ऐसा कोई भी न था
जिसने महोदय अय्योब के शब्दों का विरोध किया हो;
आप में से एक ने भी उनका उत्तर नहीं दिया.
अब यह मत बोलना, ‘हमें ज्ञान की उपलब्धि हो गई है;
मनुष्य नहीं, स्वयं परमेश्वर ही उनके तर्कों का खंडन करेंगे.’
क्योंकि अय्योब ने अपना वक्तव्य मेरे विरोध में लक्षित नहीं किया था,
मैं तो उन्हें आप लोगों के समान विचार से उत्तर भी न दे सकूंगा.
“वे निराश हो चुके हैं, अब वे उत्तर ही नहीं दे रहे;
अब तो उनके पास शब्द न रह गए हैं.
क्या उनके चुप रहने के कारण मुझे प्रतीक्षा करना होगा, क्योंकि अब वे वहां चुपचाप खड़े हुए हैं,
उत्तर देने के लिए उनके सामने कुछ न रहा है.
तब मैं भी अपने विचार प्रस्तुत करूंगा;
मैं भी वह सब प्रकट करूंगा, जो मुझे मालूम है.
विचार मेरे मन में समाए हुए हैं,
मेरी आत्मा मुझे प्रेरित कर रही है.
मेरा हृदय तो दाखमधु समान है, जिसे बंद कर रखा गया है,
ऐसा जैसे नये दाखरस की बोतल फटने ही वाली है.
जो कुछ मुझे कहना है, उसे कहने दीजिए, ताकि मेरे हृदय को शांति मिल जाए;
मुझे उत्तर देने दीजिए.
मैं अब किसी का पक्ष न लूंगा
और न किसी की चापलूसी ही करूंगा;
क्योंकि चापलूसी मेरे स्वभाव में नहीं है, तब यदि मैं यह करने लगूं,
मेरे रचयिता मुझे यहां से उठा लें.