मरकुस 4 – NCA & NVI-PT

New Chhattisgarhi Translation (नवां नियम छत्तीसगढ़ी)

मरकुस 4:1-41

बीज बोवइया के पटं‍तर

(मत्ती 13:1-9; लूका 4:4-8)

1यीसू ह फेर झील के तीर म उपदेस करन लगिस अऊ उहां अइसने भीड़ जुर गीस कि ओह झील म एक ठन डोंगा ऊपर चघके बईठिस अऊ भीड़ ह झील के तीर म रहय। 2ओह ओमन ला पटं‍तर म बहुंत अकन गोठ सिखोवन लगिस अऊ अपन उपदेस म कहिस, 3“सुनव, एक किसान ह बीज बोय बर निकरिस। 4बोवत बखत कुछू बीजा रसता के तीर म गिरिन अऊ चिरईमन आके ओला खा लीन। 5अऊ कुछू पथर्री भुइयां म गिरिन, जिहां ओमन ला बने माटी नइं मिलिस अऊ गहिरा माटी नइं मिले के कारन जल्दी जाम गीन। 6जब सूरज निकरिस, त ओमन मुरझा गीन अऊ जरी नइं धरे रहे के कारन सूख गीन। 7कुछू बीजा कंटिली झाड़ीमन म गिरिन अऊ झाड़ीमन बढ़के ओमन ला दबा दीन, जेकर कारन ओमन म फर नइं धरिन। 8पर कुछू बीजा बने भुइयां म गिरिन; ओमन जामिन अऊ बढ़के ओमन म फर धरिन।”

9तब यीसू ह कहिस, “जेकर कान हवय, ओह सुन ले।”

पटं‍तर के मतलब

(मत्ती 13:10-17; लूका 8:9-10)

10जब यीसू ह अकेला रिहिस, तब ओकर बारह चेला अऊ ओकर संग के मन ओकर ले पटं‍तर के बारे म पुछिन। 11ओह ओमन ला कहिस, “परमेसर के राज के भेद के समझ तुमन ला देय गे हवय, पर बाहिर वाले मन ला सब गोठ पटं‍तर म बोले जाथे। 12एकरसेति ‘भले ओमन देखंय अऊ सुनंय, पर ओमन झन समझंय; अइसने झन होवय कि ओमन पछताप करंय अऊ ओमन ला छेमा करे जावय।’4:12 यसायाह 6:9, 10

13तब यीसू ह ओमन ला कहिस, “का तुमन ए पटं‍तर ला नइं समझेव, तब आने पटं‍तरमन ला कइसने समझहू? 14बोवइया ह परमेसर के बचन ला बोथे। 15कुछू मनखेमन डहार के तीर म परे बीजा सहीं अंय; जब बचन ह बोय जाथे, तब तुरते सैतान ह आके ओमन म बोय गे बचन ला ले जाथे। 16आने मन ओ बीजा के सहीं अंय, जऊन ला पथर्री भुइयां ऊपर बोय जाथे; ओमन बचन ला सुनके तुरते आनंद सहित गरहन करथें। 17फेर अपन म जरी नइं धरे रहय के कारन, ओमन के बिसवास ह थोरकन समय बर रहिथे, अऊ जब बचन के सेति तकलीफ अऊ सतावा आथे, त ओमन तुरते बचन के मुताबिक चले बर बंद कर देथें। 18जऊन ला झाड़ीमन म बोय गीस, ओमन ए अंय – ओमन बचन ला सुनथें, 19पर संसार के चिंता, धन के लोभ अऊ आने चीजमन के ईछा ओमन म हमाके बचन ला दबा देथें अऊ ओमन फर नइं लानंय। 20अऊ जऊन ला बने भुइयां म बोय जाथे, ओमन ए अंय – ओमन बचन ला सुनके गरहन करथें अऊ फर लानथें – कोनो तीस गुना, कोनो साठ गुना अऊ कोनो सौ गुना।”

दीया के ठऊर

(लूका 8:16-18)

21यीसू ह ओमन ला कहिस, “का दीया ला ए खातिर लानथें कि काठा या खटिया के खाल्‍हे म मढ़ाय जावय? का ए खातिर नइं कि दीया ला दीवट ऊपर मढ़ाय जावय? 22काबरकि अइसने कोनो चीज छिपे नइं ए कि ओला परगट करे जावय, अऊ न कोनो चीज गुपत म हवय, कि ओला उजागर करे जावय। 23कहूं तुम्‍हर कान हवय, त सुनव।

24जऊन कुछू तुमन सुनथव, ओकर ऊपर बने करके बिचार करव। जऊन नापा म तुमन नापथव, ओहीच म तुम्‍हर बर घलो नापे जाही, बल्कि अऊ जादा। 25जेकर करा हवय, ओला अऊ दिये जाही, अऊ जेकर करा नइं ए, ओकर ले जऊन कुछू बांचे हवय, ओला घलो ले लिये जाही।”

बाढ़त बीजा के पटं‍तर

26यीसू ह ए घलो कहिस, “परमेसर के राज ह अइसने अय – एक मनखे ह बीजा ला भुइयां म बोथे। 27रात अऊ दिन, चाहे ओह सोवय या जागय, बीजा ह अपन-आप जामथे अऊ बाढ़थे अऊ ओह नइं जानय कि एह कइसने होईस? 28माटी ह आपे-आप फसल उपजाथे – पहिली पीका निकरथे, तब बाली, अऊ तब बालीमन म तियार होथे दाना। 29जतकी जल्दी दाना पाकथे, मनखे ह हंसिया लेके लुए के सुरू कर देथे, काबरकि एह लुवई के समय होथे।”

सरसों बीजा के पटं‍तर

(मत्ती 13:31-32; लूका 13:18-19)

30फेर यीसू ह कहिस, “हमन परमेसर के राज ला काकर सहीं ठहरई या कोन पटं‍तर म ओकर बखान करी? 31ओह सरसों के बीजा सहीं अय, जब एह बोए जाथे, त एह भुइयां म जम्मो बीजामन ले छोटे होथे। 32तभो ले लगाय के बाद एह बाढ़के, बारी म जम्मो साग-भाजी ले बड़े हो जाथे, अऊ ओकर अइसने बड़े-बड़े थांघामन निकरथें कि अकास के चिरईमन ओम बसेरा कर सकथें।”

33बचन ला समझाय खातिर, यीसू ह अइसने कतको पटं‍तर ओमन ला कहिस। 34बिगर पटं‍तर के ओह ओमन ला कुछू नइं कहत रिहिस। पर जब ओह अपन चेलामन संग अकेला रहय, त ओमन ला जम्मो गोठमन के मतलब ला साफ-साफ बतावय।

यीसू ह आंधी ला सांत करथे

(मत्ती 8:23-27; लूका 8:22-25)

35ओहीच दिन संझा के बखत, ओह अपन चेलामन ला कहिस, “आवव, हमन झील के ओ पार चली।” 36भीड़ ला पाछू छोंड़के, ओमन जइसने यीसू रिहिस वइसने ओला अपन संग डोंगा म ले गीन। उहां ओकर संग अऊ डोंगामन घलो रहंय। 37तब एक बड़े भारी आंधी आईस अऊ पानी के बड़े-बड़े लहरा उठिस, जेकर कारन पानी ह डोंगा म हमाय लगिस अऊ डोंगा ह बुड़े बर होवत रहय। 38यीसू ह डोंगा के पाछू म गद्दी ऊपर सोवत रहय। तब चेलामन ओला उठाके कहिन, “हे गुरू, का तोला कोनो फिकर नइं ए कि हमन पानी म बुड़त हवन?”

39ओह उठके आंधी ला दबकारिस अऊ पानी के लहरामन ला कहिस, “सांत हो जावव, थम जावव।” तब आंधी ह थम गीस अऊ एकदम सांत हो गीस।

40ओह अपन चेलामन ला कहिस, “काबर डर्रावत हवव? का तुमन ला अब घलो मोर ऊपर बिसवास नइं ए?”

41ओमन अब्‍बड़ डर्रा गे रिहिन अऊ एक-दूसर ला पुछन लगिन, “एह कोन ए कि आंधी अऊ पानी घलो एकर बात ला मानथें।”

Nova Versão Internacional

Marcos 4:1-41

A Parábola do Semeador

(Mt 13.1-23; Lc 8.1-15)

1Novamente Jesus começou a ensinar à beira-mar. Reuniu-se ao seu redor uma multidão tão grande que ele teve que entrar num barco e assentar-se nele. O barco estava no mar, enquanto todo o povo ficava na beira da praia. 2Ele lhes ensinava muitas coisas por parábolas, dizendo em seu ensino: 3“Ouçam! O semeador saiu a semear. 4Enquanto lançava a semente, parte dela caiu à beira do caminho, e as aves vieram e a comeram. 5Parte dela caiu em terreno pedregoso, onde não havia muita terra; e logo brotou, porque a terra não era profunda. 6Mas, quando saiu o sol, as plantas se queimaram e secaram, porque não tinham raiz. 7Outra parte caiu entre espinhos, que cresceram e sufocaram as plantas, de forma que ela não deu fruto. 8Outra ainda caiu em boa terra, germinou, cresceu e deu boa colheita, a trinta, sessenta e até cem por um”.

9E acrescentou: “Aquele que tem ouvidos para ouvir, ouça!”

10Quando ele ficou sozinho, os Doze e os outros que estavam ao seu redor lhe fizeram perguntas acerca das parábolas. 11Ele lhes disse: “A vocês foi dado o mistério do Reino de Deus, mas aos que estão fora tudo é dito por parábolas, 12a fim de que,

“ ‘ainda que vejam,

não percebam;

ainda que ouçam,

não entendam;

de outro modo,

poderiam converter-se

e ser perdoados!’4.12 Is 6.9,10

13Então Jesus lhes perguntou: “Vocês não entendem esta parábola? Como, então, compreenderão todas as outras? 14O semeador semeia a palavra. 15Algumas pessoas são como a semente à beira do caminho, onde a palavra é semeada. Logo que a ouvem, Satanás vem e retira a palavra nelas semeada. 16Outras, como a semente lançada em terreno pedregoso, ouvem a palavra e logo a recebem com alegria. 17Todavia, visto que não têm raiz em si mesmas, permanecem por pouco tempo. Quando surge alguma tribulação ou perseguição por causa da palavra, logo a abandonam. 18Outras ainda, como a semente lançada entre espinhos, ouvem a palavra; 19mas, quando chegam as preocupações desta vida, o engano das riquezas e os anseios por outras coisas sufocam a palavra, tornando-a infrutífera. 20Outras pessoas são como a semente lançada em boa terra: ouvem a palavra, aceitam-na e dão uma colheita de trinta, sessenta e até cem por um”.

A Candeia

(Lc 8.16-18)

21Ele lhes disse: “Quem traz uma candeia para ser colocada debaixo de uma vasilha ou de uma cama? Acaso não a coloca num lugar apropriado? 22Porque não há nada oculto, senão para ser revelado, e nada escondido, senão para ser trazido à luz. 23Se alguém tem ouvidos para ouvir, ouça!

24“Considerem atentamente o que vocês estão ouvindo”, continuou ele. “Com a medida com que medirem, vocês serão medidos; e ainda mais acrescentarão para vocês. 25A quem tiver, mais lhe será dado; de quem não tiver, até o que tem lhe será tirado”.

A Parábola da Semente

26Ele prosseguiu dizendo: “O Reino de Deus é semelhante a um homem que lança a semente sobre a terra. 27Noite e dia, estando ele dormindo ou acordado, a semente germina e cresce, embora ele não saiba como. 28A terra por si própria produz o grão: primeiro o talo, depois a espiga e, então, o grão cheio na espiga. 29Logo que o grão fica maduro, o homem lhe passa a foice, porque chegou a colheita”.

A Parábola do Grão de Mostarda

(Mt 13.31-35; Lc 13.18-21)

30Novamente ele disse: “Com que compararemos o Reino de Deus? Que parábola usaremos para descrevê-lo? 31É como um grão de mostarda, que é a menor semente que se planta na terra. 32No entanto, uma vez plantado, cresce e se torna uma das maiores plantas, com ramos tão grandes que as aves do céu podem abrigar-se à sua sombra”.

33Com muitas parábolas semelhantes Jesus lhes anunciava a palavra, tanto quanto podiam receber. 34Não lhes dizia nada sem usar alguma parábola. Quando, porém, estava a sós com os seus discípulos, explicava-lhes tudo.

Jesus Acalma a Tempestade

(Mt 8.23-27; Lc 8.22-25)

35Naquele dia, ao anoitecer, disse ele aos seus discípulos: “Vamos para o outro lado”. 36Deixando a multidão, eles o levaram no barco, assim como estava. Outros barcos também o acompanhavam. 37Levantou-se um forte vendaval, e as ondas se lançavam sobre o barco, de forma que este ia se enchendo de água. 38Jesus estava na popa, dormindo com a cabeça sobre um travesseiro. Os discípulos o acordaram e clamaram: “Mestre, não te importas que morramos?”

39Ele se levantou, repreendeu o vento e disse ao mar: “Aquiete-se! Acalme-se!” O vento se aquietou, e fez-se completa bonança.

40Então perguntou aos seus discípulos: “Por que vocês estão com tanto medo? Ainda não têm fé?”

41Eles estavam apavorados e perguntavam uns aos outros: “Quem é este que até o vento e o mar lhe obedecem?”