मत्ती 23 – NCA & HOF

New Chhattisgarhi Translation (नवां नियम छत्तीसगढ़ी)

मत्ती 23:1-39

सात ठन दुःख

(मरकुस 12:38-39; लूका 11:43, 46; 20:45-46)

1तब यीसू ह भीड़ के मनखे अऊ अपन चेलामन ला कहिस, 2“मूसा के कानून के गुरू अऊ फरीसी मन मूसा के कानून ला सिखोथें। 3एकरसेति, ओमन जऊन कुछू कहिथें ओला मानव अऊ करव। पर ओमन सहीं काम झन करव, काबरकि ओमन जइसने कहिथें वइसने नइं करंय। 4ओमन कानून के भारी बोझा ला बनाथें अऊ ओला मनखेमन के खांधा ऊपर लदक देथें, पर ओमन ह खुदे ओला टारे बर अपन अंगरी घलो उठाय नइं चाहंय।

5ओमन अपन जम्मो काम मनखेमन ला देखाय बर करथें। ओमन देखाय बर चाकर-चाकर ताबीज बनाके अपन बाहां अऊ माथा म पहिरथें अऊ अपन कपड़ा म लम्‍बा झालर लगवाथें23:5 ताबीज याने एक किसम के डिब्बा, जऊन म परमेसर के बचन के पद रहिथे।

6भोज मन म आदर के ठऊर अऊ सभा घरमन म खास जगह म बईठना ओमन ला बने लगथे। 7बजार म जोहार झोंकना अऊ मनखेमन के दुवारा गुरूजी कहवई ओमन ला बने लगथे।

8पर तुमन अपन ला गुरू झन कहावव, काबरकि तुम्‍हर सिरिप एक गुरू हवय, अऊ तुमन जम्मो झन भाई-भाई अव। 9धरती म कोनो ला अपन ददा झन कहव, काबरकि तुम्‍हर एके ददा हवय, जऊन ह स्‍वरग म हवय। 10तुमन अपन ला मालिक घलो झन कहावव, काबरकि तुम्‍हर एके मालिक हवय याने कि ‘मसीह’। 11जऊन ह तुमन जम्मो म बड़े अय, ओह तुम्‍हर सेवक बनय। 12जऊन ह अपन-आप ला बड़े बनाही, ओला छोटे करे जाही, अऊ जऊन ह अपन-आप ला छोटे बनाही, ओला बड़े करे जाही।

13हे ढोंगी, कानून के गुरू अऊ फरीसी मन, तुम्‍हर ऊपर हाय! तुमन मनखेमन बर स्‍वरग राज के दुवारी ला बंद कर देथव। न तो तुमन खुदे ओम जावव अऊ न ही ओमन ला जावन देवव, जऊन मन ओम जाय के कोसिस करथंय।

14हे ढोंगी, कानून के गुरू अऊ फरीसी मन, तुम्‍हर ऊपर हाय! तुमन बिधवामन के घर ला लूटथव अऊ देखाय बर लम्‍बा-लम्‍बा पराथना करथव। एकरसेति, तुमन ला जादा कठोर सजा मिलही।

15हे ढोंगी, कानून के गुरू अऊ फरीसी मन, तुम्‍हर ऊपर हाय! तुमन एक झन ला अपन बिसवास म लाने बर समुंदर अऊ धरती ऊपर फिरथव, अऊ जब ओह तुम्‍हर बिसवास म आ जाथे, त तुमन ओला अपन ले दू गुना नरक के लइका बना देथव।

16हे अंधरा अगुवामन, तुम्‍हर ऊपर हाय! तुमन कहिथव, ‘यदि कोनो मंदिर के कसम खाथे, त ओकर कुछू मतलब नइं होवय, पर यदि कोनो मंदिर के सोना के कसम खाथे, त ओह अपन कसम म बंध जाथे।’ 17हे अंधरा मुरुख मनखेमन! कते ह बड़े अय – सोना या फेर मंदिर जऊन ह ओ सोना ला पबितर बनाथे?23:17 निरगमन 40:9-11 18तुमन ए घलो कहिथव, ‘यदि कोनो बेदी के कसम खाथे, त ओकर कुछू मतलब नइं होवय, पर यदि कोनो बेदी म चघाय भेंट के कसम खाथे, त ओह अपन कसम म बंध जाथे।’ 19हे अंधरा मनखेमन! कते ह बड़े अय – भेंट या फेर बेदी जऊन ह ओ भेंट ला पबितर बनाथे? 20एकरसेति जऊन ह बेदी के कसम खाथे, ओह ओकर अऊ ओकर ऊपर रखे जम्मो चीज के कसम खाथे। 21अऊ जऊन ह मंदिर के कसम खाथे, ओह ओकर अऊ ओम रहइया के घलो कसम खाथे। 22अऊ जऊन ह स्‍वरग के कसम खाथे, ओह परमेसर के सिंघासन अऊ ओकर ऊपर बइठइया के घलो कसम खाथे।

23हे ढोंगी, कानून के गुरू अऊ फरीसी मन, तुम्‍हर ऊपर हाय! तुमन अपन मसाला जइसने कि पोदीना, सौंफ अऊ जीरा के दसवां भाग ला देथव,23:23 लैब्यवस्था 27:30 पर तुमन मूसा के कानून के जादा महत्‍व के बात जइसने कि नियाय, दया अऊ बिसवास के अनदेखी करथव।23:23 होसे 6:6; यिरमियाह 9:23 तुम्‍हर बर उचित अय कि ए काममन ला करव अऊ ओ दूसर काम के अनदेखी घलो झन करव। 24हे अंधरा अगुवामन! तुमन उड़इया छोटे कीरा ला तो छान लेथव, पर ऊंट ला लील लेथव।23:24 लैब्यवस्था 11:20-23, 40

25हे ढोंगी, कानून के गुरू अऊ फरीसी मन, तुम्‍हर ऊपर हाय! तुमन कटोरा अऊ थारी के बाहिर ला तो मांजथव, पर भीतर ले, ओमन ह लोभ अऊ लूट-खसोट ले छीने गय चीजमन ले भरे हवंय। 26हे अंधरा फरीसीमन हो! पहिली कटोरा अऊ थारी के भीतरी ला मांजव, तब ओमन के बाहिरी भाग घलो साफ होही।

27हे ढोंगी, कानून के गुरू अऊ फरीसी मन, तुम्‍हर ऊपर हाय! तुमन चूना पोताय कबर के सहीं अव, जऊन ह बाहिर ले तो सुघर दिखथे, पर भीतर ह मुरदा मनखेमन के हाड़ा अऊ जम्मो असुध चीज ले भरे रहिथे। 28ओही किसम ले, तुमन मनखेमन ला बाहिर ले धरमी दिखथव, पर भीतर ले तुमन ढोंग अऊ अधरम ले भरे हवव।

29हे ढोंगी, कानून के गुरू अऊ फरीसी मन, तुम्‍हर ऊपर हाय! तुमन अगमजानीमन के कबर ला बनाथव अऊ धरमीमन के कबर ला सजाथव, 30अऊ तुमन ए कहिथव, ‘यदि हमन अपन पुरखामन के जुग म होतेन, त हमन अगमजानीमन के हतिया करई म ओमन संग भागी नइं होतेन।’ 31ए किसम ले, तुमन खुदे मान लेथव कि तुमन ओमन के संतान अव, जऊन मन अगमजानीमन ला मार डारिन। 32तब तुमन अपन पुरखामन के छोंड़े पाप के घघरी ला भर देथव।

33हे सांपमन हो! हे करैत सांप के लइकामन हो! तुमन नरक के सजा ले कइसने बचहू। 34एकरसेति, मेंह तुम्‍हर करा अगमजानी, अऊ बुद्धिमान अऊ गुरूजी मन ला पठोवत हंव। ओम ले कतेक झन ला तुमन मार डारहू अऊ कुरुस ऊपर चघाहू; कतेक झन ला तुमन अपन सभा घर म कोर्रा म मारहू अऊ सहर-सहर म ओमन ला सताहू।23:34 लूका 11:49; यिरमियाह 25:4-5 35ए किसम ले, जम्मो धरमीमन के लहू, जऊन ह धरती ऊपर बोहाय हवय – धरमी हाबिल के लहू ले लेके बिरिकियाह के बेटा जकरयाह के लहू तक, जऊन ला तुमन मंदिर अऊ बेदी के बीच म मार डारेव; ए जम्मो के दोस तुम्‍हर ऊपर आही। 36मेंह तुमन ला सच कहत हंव – ए जम्मो बात, ए पीढ़ी के मनखेमन ऊपर होही।

37हे यरूसलेम सहर! हे यरूसलेम सहर! तेंह अगमजानीमन ला मार डारथस अऊ जऊन मन ला तोर करा पठोय जाथे, ओमन ला तेंह पथरा ले मारथस। मेंह कतेक बार चाहेंव कि तोर लइकामन ला वइसने संकेलंव, जइसने कुकरी ह अपन चियांमन ला अपन डेना खाल्‍हे संकेलथे, पर तेंह ए नइं चाहय। 38देख, तोर घर ह उजाड़ पड़े हवय। 39मेंह तोला कहथंव कि तेंह मोला तब तक फेर नइं देख सकस, जब तक कि तेंह ए नइं कहस, ‘धइन ए ओह, जऊन ह परभू के नांव म आथे।’ ”

Hoffnung für Alle

Matthäus 23:1-39

Die Heuchelei der Pharisäer und Schriftgelehrten

(Markus 12,38‒39; Lukas 20,45‒46)

1Dann sprach Jesus zu der Volksmenge und zu seinen Jüngern: 2»Die Schriftgelehrten und Pharisäer sind dazu eingesetzt, euch das Gesetz von Mose auszulegen.23,2 Wörtlich: Die Schriftgelehrten und Pharisäer haben sich auf den Lehrstuhl von Mose gesetzt. 3Richtet euch nach ihren Worten und tut alles, was sie euch sagen! Nehmt euch aber kein Beispiel an ihren Taten! Denn sie halten selbst nicht ein, was sie von den anderen verlangen.

4Sie denken sich schwere, fast unerträgliche Forderungen aus und bürden sie den Menschen auf, doch sie selbst rühren keinen Finger, um diese Lasten zu tragen. 5Mit allem, was sie tun, stellen sie sich zur Schau. Sie tragen besonders breite Gebetsriemen und an den Gewändern auffällig lange Quasten. 6Bei den Festen wollen sie die Ehrenplätze bekommen, und auch in der Synagoge sitzen sie am liebsten in der ersten Reihe. 7Es gefällt ihnen, wenn man sie auf der Straße ehrfurchtsvoll grüßt und ›Rabbi‹ nennt.

8Lasst ihr euch nicht so anreden! Nur Gott ist euer Meister, ihr seid untereinander alle Geschwister. 9Ihr sollt auch niemandem auf der Erde den Ehrentitel ›Vater‹ geben, denn nur einer ist euer Vater: Gott im Himmel. 10Ihr sollt euch auch nicht Lehrer nennen lassen, weil ihr nur einen Lehrer habt: Christus. 11Wer unter euch groß sein will, der soll allen anderen dienen.23,11 Oder: Der Bedeutendste von euch wird der sein, der allen anderen dient. 12Alle, die sich selbst ehren, werden gedemütigt werden. Wer sich aber selbst erniedrigt, wird geehrt werden.«

Frommer Schein

(Lukas 11,39‒51)

13»Wehe euch, ihr Schriftgelehrten und Pharisäer! Ihr Heuchler! Ihr versperrt anderen den Zugang zu Gottes himmlischem Reich. Denn ihr selbst geht nicht hinein, und die hineinwollen, hindert ihr auch noch daran.23,13 Andere Handschriften fügen hinzu: (Vers 14) Wehe euch, ihr Schriftgelehrten und Pharisäer! Ihr Heuchler! Gierig reißt ihr den Besitz der Witwen an euch, und eure langen Gebete sind nichts als Heuchelei. Dafür wird euch Gottes Urteil besonders hart treffen.

15Wehe euch, ihr Schriftgelehrten und Pharisäer! Ihr Heuchler! Ihr reist in der Welt herum, um nur einen einzigen Nichtjuden dafür zu gewinnen, eure Gesetze anzuerkennen. Und wenn ihr einen gefunden habt, dann wird er durch euch zu einem Anwärter auf die Hölle, der euch an Bosheit noch übertrifft.

16Wehe euch! Ihr wollt andere führen und seid doch selbst blind. So behauptet ihr: ›Beim Tempel Gottes schwören, das hat nichts zu bedeuten. Aber wer beim Gold im Tempel schwört, der muss seinen Eid halten.‹ 17Ihr blinden Narren! Was ist denn wichtiger: das Gold oder der Tempel, durch den das Gold erst geheiligt wird?

18Ihr sagt: ›Ein Eid, beim Altar geschworen, hat keine Bedeutung. Wer aber bei dem Opfer auf dem Altar schwört, der muss sein Versprechen halten.‹ 19Ihr Verblendeten! Was ist denn wichtiger: die Gabe auf dem Altar oder der Altar, der die Gabe erst zum Opfer werden lässt? 20Wer beim Altar schwört, der schwört bei allem, was darauf liegt. 21Wer beim Tempel schwört, der ruft Gott zum Zeugen an, der dort wohnt. 22Und wer beim Himmel schwört, der schwört bei dem Thron Gottes und damit bei Gott selbst, der auf diesem Thron sitzt.

23Wehe euch, ihr Schriftgelehrten und Pharisäer! Ihr Heuchler! Sogar von Küchenkräutern wie Minze, Dill und Kümmel gebt ihr Gott den zehnten Teil. Aber die viel wichtigeren Forderungen Gottes nach Gerechtigkeit, Barmherzigkeit und Treue23,23 Oder: Glaube. sind euch gleichgültig. Doch gerade darum geht es hier: das Wesentliche tun und das andere nicht unterlassen. 24Ihr aber entfernt jede kleine Mücke aus eurem Getränk, doch ganze Kamele schluckt ihr bedenkenlos hinunter. Andere wollt ihr führen, dabei seid ihr selbst blind.

25Wehe euch, ihr Schriftgelehrten und Pharisäer! Ihr Heuchler! Ihr wascht eure Becher und Schüsseln von außen ab, doch gefüllt sind sie mit dem, was ihr anderen in eurer Gier genommen habt. 26Ihr blinden Verführer, reinigt eure Becher erst einmal von innen, dann wird auch ihr Äußeres sauber sein.

27Wehe euch, ihr Schriftgelehrten und Pharisäer! Ihr Heuchler! Ihr seid wie die weiß getünchten Grabstätten23,27 Jüdische Gräber waren auffällig weiß gestrichen, um zu vermeiden, dass Menschen sie versehentlich berührten und sich dadurch verunreinigten.: Von außen erscheinen sie schön, aber innen ist alles voll stinkender Verwesung. 28Genauso ist es bei euch: Ihr steht vor den Leuten als solche da, die Gottes Willen tun, aber in Wirklichkeit seid ihr voller Auflehnung und Heuchelei.

29Wehe euch, ihr Schriftgelehrten und Pharisäer! Ihr Heuchler! Den verstorbenen Propheten baut ihr Denkmäler, und die Gräber derer, die nach Gottes Willen lebten, schmückt ihr. 30Dazu behauptet ihr noch: ›Wenn wir damals gelebt hätten, wir hätten die Propheten nicht umgebracht wie unsere Vorfahren.‹ 31Damit gebt ihr also selbst zu, dass ihr die Nachkommen der Prophetenmörder seid. 32Ja, weiter so, macht das Maß eurer Väter nur voll!

33Ihr Schlangenbrut! Wie wollt ihr der Hölle entrinnen, zu der Gott euch verurteilen wird? 34Deshalb hört her: Ich werde euch Propheten, weise Männer und Lehrer schicken. Einige von ihnen werdet ihr töten, ja sogar kreuzigen. Andere werdet ihr in euren Synagogen auspeitschen und sie von Stadt zu Stadt verfolgen. 35Darum werdet ihr auch zur Rechenschaft gezogen werden für den Mord an all jenen Menschen, die nach Gottes Willen gelebt haben, angefangen bei Abel bis zu Secharja, dem Sohn von Berechja, den ihr zwischen Tempel und Brandopferaltar ermordet habt.

36Ich versichere euch: Das Strafgericht für all diese Schuld wird noch über diese Generation hereinbrechen.«

Warnung an Jerusalem

(Lukas 13,34‒35)

37»Jerusalem! O Jerusalem! Du tötest die Propheten und steinigst die Boten, die Gott zu dir schickt. Wie oft schon wollte ich deine Bewohner um mich sammeln, so wie eine Henne ihre Küken unter ihre Flügel nimmt! Aber ihr habt es nicht gewollt. 38Und nun? Euer Tempel wird von Gott verlassen sein und völlig zerstört werden. 39Und ich sage euch: Mich werdet ihr erst dann wiedersehen, wenn ihr rufen werdet: ›Gepriesen sei, der im Auftrag des Herrn kommt!‹23,39 Psalm 118,26«