मत्ती 19 – NCA & HOF

New Chhattisgarhi Translation (नवां नियम छत्तीसगढ़ी)

मत्ती 19:1-30

तलाक

(मरकुस 10:1-12)

1ए बातमन ला कहे के बाद, यीसू ह गलील प्रदेस ले चल दीस, अऊ यरदन नदी के ओ पार यहूदिया प्रदेस के सीमना म आईस। 2मनखेमन के एक बड़े भीड़ ह ओकर पाछू हो लीस, अऊ यीसू ह उहां बेमरहामन ला चंगा करिस।

3कुछू फरीसीमन यीसू ला परखे बर ओकर करा आईन अऊ ओमन यीसू ले पुछिन, “का कोनो भी कारन ले अपन घरवाली ला तियाग देवई कानून के मुताबिक सही अय?”

4यीसू ह जबाब दीस, “का तुमन परमेसर के बचन म नइं पढ़े हवव कि संसार के रचइया ह ओमन ला सुरूआत ले नर अऊ नारी करके बनाईस, 5अऊ कहिस, ‘एकरे कारन मनखे ह अपन दाई-ददा ला छोंड़के अपन घरवाली के संग रहिही, अऊ ओ दूनों एक तन होहीं।’ 6ओमन ह अब दू नइं पर एक तन अंय। एकरसेति जऊन ला परमेसर ह एक संग जोड़े हवय, ओला मनखे ह अलग झन करय।”

7ओमन यीसू ला कहिन, “त फेर मूसा ह ए हुकूम काबर देय हवय कि मनखे ह अपन घरवाली ला तियाग पतर देके ओला छोंड़ दे।”

8यीसू ह ओमन ला जबाब दीस, “तुम्‍हर हिरदय के कठोरता के कारन, मूसा ह तुमन ला अपन घरवाली ला तियागे के अनुमती दीस। पर सुरू ले अइसने नइं रिहिस। 9मेंह तुमन ला कहत हंव कि जऊन मनखे ह बेभिचार के छोंड़ कोनो आने कारन ले अपन घरवाली ला तियाग देथे, अऊ आने माईलोगन ले बिहाव कर लेथे, त ओह बेभिचार करथे।”

10चेलामन यीसू ला कहिन, “यदि मनखे के संबंध ह अपन घरवाली के संग अइसने अय, तब बिहाव नइं करई ठीक अय।”

11यीसू ह ओमन ला कहिस, “जम्मो मनखे ए सिकछा ला माने नइं सकंय, पर सिरिप ओहीच मन मान सकथें, जऊन मन ला ए बरदान दिये गे हवय। 12काबरकि कुछू हिजड़ामन हवंय, जऊन मन अपन दाई के पेट ले अइसने जनमे हवंय। कुछू झन ला मनखेमन हिजड़ा बना देय हवंय, पर कुछू मनखेमन स्‍वरग राज के खातिर बिहाव नइं करे हवंय। जऊन ह ए बात ला मान सकथे, ओला मानना चाही।”

यीसू अऊ छोटे लइकामन

(मरकुस 10:13-16; लूका 18:15-17)

13तब मनखेमन लइकामन ला यीसू करा लानिन ताकि यीसू ह ओमन ऊपर अपन हांथ रखय अऊ ओमन बर पराथना करय। पर चेलामन मनखेमन ला डांटिन।

14यीसू ह कहिस, “लइकामन ला मोर करा आवन दव, अऊ ओमन ला झन रोकव काबरकि स्‍वरग के राज ह अइसने मनखेमन बर अय।” 15अऊ ओह लइकामन ऊपर अपन हांथ रखिस अऊ उहां ले चल दीस।

एक धनी जवान

(मरकुस 10:17-31; लूका 18:18-30)

16एक मनखे ह यीसू करा आईस अऊ पुछिस, “हे गुरू, मेंह का भलई के काम करंव कि मोला परमेसर के संग सदाकाल के जिनगी मिलय?”

17यीसू ह ओला कहिस, “तेंह मोर ले भलई के बारे म काबर पुछथस? सिरिप एके झन ह बने अय। यदि तेंह जिनगी म जाय चाहथस, त हुकूममन ला माने कर।”

18ओ मनखे ह पुछिस, “कोन हुकूममन ला?” यीसू ह कहिस, “हतिया झन कर, बेभिचार झन कर, चोरी झन कर, लबारी गवाही झन दे, 19अपन दाई अऊ ददा के आदर कर, अऊ अपन पड़ोसी ला अपन सहीं मया कर।”

20ओ जवान ह यीसू ला कहिस, “ए जम्मो बात ला मेंह मानत आवत हंव। मोर म अऊ कोन बात के कमी हवय?”

21यीसू ह ओला कहिस, “यदि तेंह सिद्ध बने चाहत हस, त जा; अपन जायदाद ला बेंच अऊ गरीबमन म बांट दे, अऊ तोला स्‍वरग म धन मिलही। तब आ अऊ मोर पाछू हो ले।”

22जब ए बात ला ओ जवान ह सुनिस, त ओह उदास होके उहां ले चल दीस, काबरकि ओह अब्‍बड़ धनवान रिहिस।

23तब यीसू ह अपन चेलामन ला कहिस, “मेंह तुमन ला सच कहत हंव – धनवान मनखे के स्‍वरग राज म जाना कठिन अय। 24मेंह तुमन ला फेर कहत हंव कि परमेसर के राज म धनवान मनखे के जाय के बनिस‍पत सुई के छेदा म ले ऊंट के निकर जवई सरल अय।”

25ए बात ला सुनके चेलामन अब्‍बड़ चकित होईन अऊ कहिन, “तब काकर उद्धार हो सकथे?”

26यीसू ह ओमन कोति देखिस अऊ कहिस, “ए बात ह मनखे के दुवारा संभव नो हय, पर परमेसर के दुवारा जम्मो बात ह संभव अय।”

27तब पतरस ह यीसू ला कहिस, “देख, हमन तो जम्मो कुछू ला छोंड़के तोर पाछू हो ले हवन। त हमन ला का मिलही?”

28यीसू ह ओमन ला कहिस, “मेंह तुमन ला सच कहत हंव कि नवां संसार म, जब मनखे के बेटा ह महिमा के अपन सिंघासन म बईठही, त तुमन जऊन मन मोर पाछू चलत हव, बारह सिंघासन म बईठहू अऊ इसरायल के बारह गोत्र के नियाय करहू। 29अऊ जऊन कोनो मोर खातिर अपन घर-दुवार या भाई या बहिनी या ददा या दाई या लइका या खेतखार ला छोंड़ देय हवय, ओह सौ गुना पाही अऊ ओह सदाकाल के जिनगी के अधिकारी होही। 30पर कतको झन जऊन मन पहिली हवंय, ओमन आखिरी म हो जाहीं, अऊ कतको मनखे जऊन मन आखिरी म हवंय, ओमन पहिली हो जाहीं।”

Hoffnung für Alle

Matthäus 19:1-30

Auf dem Weg nach Jerusalem

(Kapitel 19–20)

Die Frage nach der Ehescheidung

(Markus 10,1‒12; Lukas 16,18)

1Nachdem Jesus das alles gesagt hatte, verließ er Galiläa und kam in das Gebiet von Judäa östlich des Jordan. 2Eine große Menschenmenge folgte ihm dorthin, und er heilte ihre Kranken.

3Da kamen einige Pharisäer zu Jesus, weil sie ihm eine Falle stellen wollten. Sie fragten ihn: »Darf sich ein Mann von seiner Frau aus jedem beliebigen Grund scheiden lassen?«

4Jesus antwortete: »Habt ihr denn nicht gelesen, was in der Heiligen Schrift steht? Da heißt es doch, dass Gott am Anfang die Menschen als Mann und Frau schuf 5und sagte: ›Ein Mann verlässt seine Eltern und verbindet sich so eng mit seiner Frau, dass die beiden eins sind mit Leib und Seele.‹19,5 1. Mose 2,24 6Sie sind also eins und nicht länger zwei voneinander getrennte Menschen. Und was Gott zusammengefügt hat, das soll der Mensch nicht scheiden.«

7»Doch weshalb«, fragten sie weiter, »hat Mose dann vorgeschrieben, dass der Mann seiner Frau eine Scheidungsurkunde geben soll, wenn er sie wegschicken will?«19,7 Vgl. 5. Mose 24,1. 8Jesus antwortete: »Mose erlaubte es, dass ihr euch von euren Frauen scheiden lasst, weil er euer hartes Herz kannte. Am Anfang ist es jedoch anders gewesen. 9Ich sage euch: Wer sich von seiner Frau trennt und eine andere heiratet, der begeht Ehebruch, es sei denn, seine Frau hat ihn betrogen19,9 Wörtlich: es sei denn wegen Unzucht.

10Da sagten die Jünger zu Jesus: »Wenn das mit der Ehe so ist, dann heiratet man besser gar nicht!« 11Jesus antwortete: »Nicht jeder kann begreifen, was ich jetzt sage, sondern nur die, denen Gott das Verständnis dafür gibt. 12Manche sind von Geburt an zur Ehe unfähig19,12 Wörtlich: von Geburt an zeugungsunfähig. – Das griechische Wort spricht von Eunuchen, die für ihre Zeugungsunfähigkeit und eben auch Ehelosigkeit bekannt waren. Vgl. »Eunuch« in den Sacherklärungen.; andere werden es durch menschlichen Eingriff. Und es gibt Menschen, die verzichten von sich aus auf die Ehe, um sich Gottes himmlischem Reich ganz zur Verfügung zu stellen. Wer das begreift, der richte sich danach!«

Jesus und die Kinder

(Markus 10,13‒16; Lukas 18,15‒17)

13Eines Tages brachte man Kinder zu Jesus, damit er ihnen die Hände auflegte und für sie betete. Aber die Jünger fuhren sie an und wollten sie wegschicken. 14Doch Jesus sagte: »Lasst die Kinder zu mir kommen und haltet sie nicht zurück, denn Menschen wie ihnen gehört Gottes himmlisches Reich.« 15Er legte ihnen die Hände auf und segnete sie. Danach zog er weiter.

Die Reichen und das Reich Gottes

(Markus 10,17‒31; Lukas 18,18‒30)

16Ein junger Mann kam mit der Frage zu Jesus: »Lehrer, was muss ich Gutes tun, um das ewige Leben zu bekommen?« 17Jesus entgegnete: »Wieso fragst du mich nach dem Guten? Es gibt nur einen, der gut ist, und das ist Gott. Wenn du den Weg gehen willst, der zum Leben führt, dann befolge seine Gebote.« 18»Welche denn?«, fragte der Mann, und Jesus antwortete: »Du sollst nicht töten! Du sollst nicht die Ehe brechen! Du sollst nicht stehlen! Sag nichts Unwahres über deinen Mitmenschen! 19Ehre deinen Vater und deine Mutter, und liebe deinen Mitmenschen wie dich selbst.«19,19 2. Mose 20,12‒16; 3. Mose 19,18 20»An all das habe ich mich gehalten. Was fehlt mir noch?«, wollte der junge Mann wissen.

21Jesus antwortete: »Wenn du vollkommen sein willst, dann geh, verkaufe alles, was du hast, und gib das Geld den Armen. Damit wirst du im Himmel einen Reichtum gewinnen, der niemals verloren geht. Und dann komm und folge mir nach!« 22Als der junge Mann das hörte, ging er traurig weg, denn er besaß ein großes Vermögen.

23Da sagte Jesus zu seinen Jüngern: »Ich versichere euch: Ein Reicher hat es sehr schwer, in Gottes himmlisches Reich zu kommen. 24Ja, eher geht ein Kamel durch ein Nadelöhr, als dass ein Reicher in Gottes Reich kommt.« 25Darüber waren die Jünger entsetzt und fragten: »Wer kann dann überhaupt gerettet werden?« 26Jesus sah sie an und sagte: »Für Menschen ist es unmöglich, aber für Gott ist alles möglich!«

27Jetzt fragte Petrus: »Aber wie ist es nun mit uns? Wir haben doch alles aufgegeben und sind mit dir gegangen. Was werden wir dafür bekommen?« 28Jesus antwortete: »Ich versichere euch: Wenn Gott die Welt neu macht und der Menschensohn in all seiner Herrlichkeit auf dem Thron sitzen wird, dann werdet ihr ebenfalls auf zwölf Thronen sitzen und die zwölf Stämme Israels richten, weil ihr mir nachgefolgt seid. 29Jeder, der sein Haus, seine Geschwister, seine Eltern, seine Kinder oder seinen Besitz zurücklässt, um mir zu folgen, wird dies alles hundertfach zurückerhalten und das ewige Leben empfangen.

30Viele, die jetzt einen großen Namen haben, werden dann unbedeutend sein. Und andere, die heute die Letzten sind, werden dort zu den Ersten gehören.«