मत्ती 17 – NCA & HOF

New Chhattisgarhi Translation (नवां नियम छत्तीसगढ़ी)

मत्ती 17:1-27

यीसू के रूपान्‍तरन

(मरकुस 9:2-13; लूका 9:28-36)

1छै दिन के बाद यीसू ह पतरस, याकूब अऊ याकूब के भाई यूहन्ना ला अपन संग लीस अऊ ओमन ला अकेला एक ऊंचहा पहाड़ म ले गीस। 2उहां ओमन के आघू म यीसू के रूप ह बदल गीस। ओकर चेहरा ह सूरज सहीं चमकत रहय अऊ ओकर कपड़ा ह अंजोर सहीं पंडरा हो गीस। 3तब उहां चेलामन के आघू म मूसा अऊ एलियाह परगट होईन अऊ ओमन यीसू के संग गोठियावत रिहिन।

4पतरस ह यीसू ला कहिस, “हे परभू, एह बने बात अय कि हमन इहां हवन। यदि तोर ईछा हवय, त मेंह इहां तीन ठन तम्‍बू बनावत हंव – एक ठन तोर बर, एक मूसा बर अऊ एक एलियाह बर।”

5जब ओह गोठियावत रिहिस, त एक चमकिला बादर ह ओमन के ऊपर छा गीस, अऊ ओ बादर ले ए अवाज आईस, “एह मोर मयारू बेटा अय। मेंह एकर ले बहुंत खुस हवंव। एकर बात ला सुनव।”

6एला सुनके चेलामन मुहूं के भार भुइयां म गिरिन अऊ ओमन बहुंत डर्रा गीन। 7पर यीसू ह आईस अऊ ओमन ला छुके कहिस, “उठव, झन डर्रावव।” 8जब ओमन ऊपर देखिन, त ओमन ला यीसू के छोंड़ अऊ कोनो नइं दिखिस।

9जब ओमन पहाड़ ले उतरत रिहिन, त यीसू ह ओमन ला हुकूम दीस, “जब तक मनखे के बेटा ह मरे म ले नइं जी उठय, तब तक तुमन जऊन कुछू देखे हवव, ओ बात कोनो ला झन बतावव।”

10तब चेलामन ओकर ले पुछिन, “त फेर कानून के गुरूमन काबर कहिथें कि पहिली एलियाह के अवई जरूरी अय।”

11यीसू ह जबाब दीस, “एलियाह ह जरूर आवत हवय अऊ ओह जम्मो चीज ला ठीक करही। 12पर मेंह तुमन ला कहथंव कि एलियाह ह आ चुके हवय अऊ मनखेमन ओला नइं चिनहिन। पर ओमन जइसने चाहिन, वइसने ओकर संग मनमाना बरताव करिन।” 13तब चेलामन समझिन कि यीसू ह ओमन ले यूहन्ना बतिसमा देवइया के बारे म कहत रिहिस।

यीसू ह मिरगी के रोगी एक छोकरा ला चंगा करथे

(मरकुस 9:14-29; लूका 9:37-43)

14जब ओमन भीड़ करा आईन, त एक मनखे ह यीसू करा आईस अऊ ओकर आघू म माड़ी टेकके कहिस, 15“हे परभू! मोर बेटा ऊपर दया कर। ओला मिरगी आथे अऊ ओकर कारन बहुंत दुःख झेलथे। ओह अक्सर आगी या पानी म गिर जाथे। 16मेंह ओला तोर चेलामन करा लानेंव, पर ओमन ओला ठीक नइं कर सकिन।”

17यीसू ह कहिस, “हे अबिसवासी अऊ ढीठ मनखेमन! मेंह कब तक तुम्‍हर संग रहिहूं? कब तक मेंह तुम्‍हर सहत रहिहूं? लड़का ला इहां मोर करा लानव।” 18यीसू ह परेत आतमा ला दबकारिस अऊ ओह ओम ले निकर गीस, अऊ ओ छोकरा ह ओहीच बखत ठीक हो गीस।

19तब चेलामन यीसू करा अकेला म आईन अऊ पुछिन, “हमन ओला काबर नइं निकार सकेंन?”

20यीसू ह ओमन ला कहिस, “काबरकि तुम्‍हर बहुंत कम बिसवास हवय। मेंह तुमन ला सच कहत हंव कि यदि तुम्‍हर बिसवास ह सरसों के दाना के बरोबर घलो हवय, अऊ तुमन ए पहाड़ ले कहव, ‘इहां ले घुंच के उहां चले जा,’ त ओह घुंच जाही। तुम्‍हर बर कोनो घलो बात असंभव नइं होही। 21पर ए किसम के परेत आतमा ह सिरिप पराथना अऊ उपास के दुवारा निकरथे।”

22जब चेलामन गलील प्रदेस म जुरिन, त यीसू ह ओमन ला कहिस, “मनखे के बेटा ह मनखेमन के हांथ म पकड़वाय जाही। 23ओमन ओला मार डारहीं, पर तीसरा दिन ओह जी उठही।” एला सुनके चेलामन बहुंत उदास होईन।

मंदिर के लगान

24जब यीसू अऊ ओकर चेलामन कफरनहूम म आईन, त मंदिर के लगान लेवइयामन पतरस करा आईन अऊ पुछिन, “का तुम्‍हर गुरू ह मंदिर के लगान नइं पटावय?”

25ओह कहिस, “हव, ओह पटाथे।” जब पतरस ह घर के भीतर आईस, त ओकर पुछे के पहिली यीसू ह कहिस, “हे सिमोन, तेंह का सोचथस? ए धरती के राजामन काकर ले लगान लेथें? अपन खुद के बेटामन ले या आने मन ले?”

26पतरस ह कहिस, “आने मन ले।”

यीसू ह ओला कहिस, “तब तो बेटामन ला लगान पटाय बर नइं पड़य। 27पर हमन ओमन ला ठेस पहुंचाय नइं चाहथन, एकरसेति तेंह झील म जा अऊ अपन गरी ला खेल। जऊन मछरी पहिली फंसही, ओला पकड़बे अऊ ओकर मुहूं ला खोलबे, त तोला उहां एक ठन सिक्‍का मिलही। ओला लेके मोर अऊ तुम्‍हर तरफ ले ओमन ला लगान पटा देबे।”

Hoffnung für Alle

Matthäus 17:1-27

Die Jünger sehen Jesus in seiner Herrlichkeit

(Markus 9,2‒13; Lukas 9,28‒36)

1Sechs Tage später nahm Jesus Petrus, Jakobus und dessen Bruder Johannes mit auf einen hohen Berg. Sie waren dort ganz allein. 2Da wurde Jesus vor ihren Augen verwandelt: Sein Gesicht leuchtete wie die Sonne, und seine Kleider strahlten hell. 3Dann erschienen plötzlich Mose und Elia und redeten mit Jesus. 4Petrus rief: »Herr, wie gut, dass wir hier sind! Wenn du willst, werde ich hier drei Hütten bauen, eine für dich, eine für Mose und eine für Elia.« 5Noch während er redete, hüllte sie eine leuchtende Wolke ein, und aus der Wolke hörten sie eine Stimme: »Dies ist mein geliebter Sohn, über den ich mich von Herzen freue. Auf ihn sollt ihr hören.« 6Bei diesen Worten erschraken die Jünger zutiefst und warfen sich zu Boden. 7Aber Jesus kam zu ihnen, berührte sie und sagte: »Steht auf! Fürchtet euch nicht!« 8Und als sie aufblickten, sahen sie niemanden mehr außer Jesus.

9Während sie den Berg hinabstiegen, befahl Jesus ihnen: »Erzählt keinem, was ihr gesehen habt, bis der Menschensohn von den Toten auferstanden ist!«

10Da fragten ihn seine Jünger: »Weshalb behaupten die Schriftgelehrten denn, dass vor dem Ende erst noch Elia wiederkommen muss?« 11Jesus antwortete ihnen: »Sie haben recht! Zuerst kommt Elia, um alles vorzubereiten. 12Doch ich sage euch: Er ist bereits gekommen, aber man hat ihn nicht erkannt. Sie haben mit ihm gemacht, was sie wollten. Und auch der Menschensohn wird durch sie leiden müssen.« 13Nun verstanden die Jünger, dass er von Johannes dem Täufer sprach.

Die Ohnmacht der Jünger und die Vollmacht von Jesus

(Markus 9,14‒29; Lukas 9,37‒43)

14Als sie zu der Menschenmenge zurückgekehrt waren, kam ein Mann zu Jesus, fiel vor ihm auf die Knie 15und sagte: »Herr, hab Erbarmen mit meinem Sohn! Er hat schwere Anfälle und leidet furchtbar. Oft fällt er sogar ins Feuer oder ins Wasser. 16Ich habe ihn zu deinen Jüngern gebracht, aber sie konnten ihm nicht helfen.« 17Jesus rief: »Was seid ihr nur für eine ungläubige und verdorbene Generation! Wie lange soll ich noch bei euch sein und euch ertragen? Bringt den Jungen her zu mir!« 18Jesus bedrohte den Dämon, der den Jungen in seiner Gewalt hatte, und dieser verließ den Kranken. Vom selben Moment an war der Junge gesund.

19Als sie später unter sich waren, fragten die Jünger Jesus: »Weshalb konnten wir diesen Dämon nicht austreiben?« 20»Weil ihr nicht wirklich glaubt«, antwortete Jesus. »Ich versichere euch: Wenn euer Glaube nur so groß ist wie ein Senfkorn, könnt ihr zu diesem Berg sagen: ›Rücke von hier nach dort!‹, und es wird geschehen. Nichts wird euch dann unmöglich sein!17,20 Andere Handschriften fügen hinzu: (Vers 21) Solche Dämonen können nur durch Gebet und Fasten ausgetrieben werden. «

Jesus kündigt wieder seinen Tod und seine Auferstehung an

(Markus 9,30‒32; Lukas 9,43‒45)

22Eines Tages, als Jesus sich mit seinen Jüngern in Galiläa aufhielt, sagte er zu ihnen: »Der Menschensohn wird bald in der Gewalt der Menschen sein. 23Sie werden ihn töten. Aber am dritten Tag wird er auferstehen.« Da wurden seine Jünger sehr traurig.

Die Tempelsteuer

24Als Jesus und seine Jünger nach Kapernaum zurückkehrten, kamen die Steuereinnehmer des Tempels auf Petrus zu und fragten: »Zahlt euer Lehrer denn keine Tempelsteuer?« 25»Doch!«, antwortete Petrus und ging ins Haus. Noch bevor er etwas von dem Vorfall erzählen konnte, fragte Jesus ihn: »Was meinst du, Simon, von wem fordern die Könige dieser Erde Abgaben und Steuern? Von ihren eigenen Söhnen oder von ihren Untertanen?« 26»Von den Untertanen«, antwortete Petrus. Jesus erwiderte: »Dann sind die eigenen Söhne also davon befreit. 27Doch wir wollen ihnen keinen Anlass geben, sich über uns zu ärgern. Darum geh an den See und wirf die Angel aus. Dem ersten Fisch, den du fängst, öffne das Maul. Du wirst darin genau die Münze finden, die du für deine und meine Abgabe brauchst. Bezahle damit die Tempelsteuer!«