مزمور 31 – NAV & HCV

Ketab El Hayat

مزمور 31:1-24

الْمَزْمُورُ الْحَادِي وَالثَّلاثُونَ

لِقَائِدِ الْمُنْشِدِينَ، مَزْمُورٌ لِدَاوُدَ

1يَا رَبُّ، إِلَيْكَ الْتَجَأْتُ فَلَا تَدَعْنِي أَخِيبُ مَدَى الدَّهْرِ. بِعَدْلِكَ نَجِّنِي. 2أَدِرْ أُذُنَكَ نَحْوِي وَأَنْقِذْنِي سَرِيعاً. كُنْ لِي صَخْرَةً تَحْمِينِي وَمَعْقِلاً حَصِيناً يُخَلِّصُنِي، 3إِذْ إِنَّكَ صَخْرَتِي وَقَلْعَتِي. وَمِنْ أَجْلِ اسْمِكَ تَقُودُنِي وَتَهْدِينِي. 4أَطْلِقْنِي مِنَ الشَّبَكَةِ الَّتِي أَخْفَاهَا الأَشْرَارُ لِي، لأَنَّكَ أَنْتَ مَلْجَأِي. 5فِي يَدِكَ أَسْتَوْدِعُ رُوحِي. فَدَيْتَنِي أَيُّهَا الرَّبُّ إِلَهَ الْحَقِّ. 6لَقَدْ أَبْغَضْتُ الْمُتَعَبِّدِينَ لِلأَصْنَامِ الْبَاطِلَةِ. أَمَّا أَنَا فَعَلَى الرَّبِّ تَوَكَّلْتُ. 7أَفْرَحُ وَأَبْتَهِجُ بِرَحْمَتِكَ لأَنَّكَ قَدْ نَظَرْتَ إِلَى مَذَلَّتِي، وَعَرَفْتَ أَلَمَ نَفْسِي الْمُبَرِّحَ. 8لَمْ تُسَلِّمْنِي إِلَى قَبْضَةِ الْعَدُوِّ بَلْ أَوْقَفْتَنِي فِي أَرْضٍ فَسِيحَةٍ.

9ارْحَمْنِي يَا رَبُّ فَأَنَا فِي ضِيقٍ: كَلَّتْ عَيْنَايَ غَمّاً، وَاعْتَلَّتْ نَفْسِي وَدَخِيلَتِي أَيْضاً. 10لأَنَّ حَيَاتِي قَدْ فَنِيَتْ بِالْحُزْنِ وَسِنِي حَيَاتِي بِالتَّنَهُّدِ. خَارَتْ قُوَايَ مِنْ قَصَاصِ إِثْمِي. 11صِرْتُ مُحْتَقَراً مِنْ كُلِّ أَعْدَائِي وَمَصْدَرَ رُعْبٍ لِجِيرَانِي. الَّذِينَ يَرَوْنَنِي فِي الشَّارِعِ يَتَهَرَّبُونَ مِنِّي. 12صِرْتُ مَنْسِيًّا كَمَا لَوْ كُنْتُ مَيْتاً، وَأَصْبَحْتُ كَإِنَاءٍ مُحَطَّمٍ، 13لأَنِّي سَمِعْتُ الْمَذَمَّةَ مِنْ كَثِيرِينَ، حَتَّى بَاتَ الْخَوْفُ يُطَوِّقُنِي، إذْ يَتَآمَرُونَ جَمِيعاً عَلَيَّ، عَازِمِينَ عَلَى قَتْلِي.

14غَيْرَ أَنِّي يَا رَبُّ عَلَيْكَ تَوَكَّلْتُ، وَقُلْتُ: أَنْتَ إِلَهِي، 15آجَالِي فِي يَدِكَ. نَجِّنِي مِنْ يَدِ أَعْدَائِي وَمِنْ مُطَارِدِيَّ. 16لِيُشْرِقْ وَجْهُكَ عَلَى عَبْدِكَ وَخَلِّصْنِي بِرَحْمَتِكَ. 17لَا تَدَعْنِي يَا رَبُّ أَخْزَى، فَإِنِّي دَعَوْتُكَ. لِيَخْزَ الأَشْرَارُ وَلْيَنْزِلُوا إِلَى هُوَّةِ الْمَوْتِ وَيَسْكُتُوا إِلَى الأَبَدِ. 18لِتَخْرَسِ الشِّفَاهُ الْكَاذِبَةُ، النَّاطِقَةُ بِكِبْرِيَاءَ وَازْدِرَاءٍ وَوَقَاحَةٍ عَلَى الصِّدِّيقِ.

19يَا رَبُّ، مَا أَعْظَمَ صَلاحَكَ الَّذِي ذَخَرْتَهُ لِخَائِفِيكَ، وَأَظْهَرْتَهُ لِلْوَاثِقِينَ بِكَ عَلَى مَرْأَى جَمِيعِ الْبَشَرِ، 20فَإِنَّكَ تَصُونُهُمْ فِي خِبَاءِ حَضْرَتِكَ، فِي مَأْمَنٍ مِنْ مُؤَامَرَاتِ النَّاسِ. فِي خَيْمَةٍ وَاقِيَةٍ تَحْرُسُهُمْ مِنْ لَدْغَاتِ أَلْسُنِ خُصُومِهِمْ. 21مُبَارَكٌ الرَّبُّ لأَنَّهُ أَحَاطَنِي بِرَحْمَتِهِ الْعَجِيبَةِ وَكَأَنِّي فِي مَدِينَةٍ مُحَصَّنَةٍ. 22تَسَرَّعْتُ فِي رُعْبِي وَقُلْتُ: «قَدْ تَخَلَّى الرَّبُّ عَنِّي» وَلَكِنَّكَ سَمِعْتَ صَوْتَ تَضَرُّعِي عِنْدَمَا اسْتَغَثْتُ بِكَ.

23أَحِبُّوا الرَّبَّ يَا جَمِيعَ أَتْقِيَائِهِ، فَإِنَّ الرَّبَّ يَحْفَظُ الأُمَنَاءَ، وَيُجَازِي بِعَدْلِهِ الْمُتَكَبِّرِينَ أَشَدَّ الْجَزَاءِ. 24لِتَتَقَوَّ وَلْتَتَشَجَّعْ قُلُوبُكُمْ يَا جَمِيعَ الْمُنْتَظِرِينَ الرَّبَّ.

Hindi Contemporary Version

स्तोत्र 31:1-24

स्तोत्र 31

संगीत निर्देशक के लिये. दावीद का एक स्तोत्र.

1याहवेह, मैंने आप में ही शरण ली है;

मुझे कभी लज्जित न होने दीजिए;

अपनी धार्मिकता के कारण हे परमेश्वर, मेरा बचाव कीजिए.

2मेरी पुकार सुनकर,

तुरंत मुझे छुड़ा लीजिए;

मेरी आश्रय-चट्टान होकर मेरे उद्धार का,

दृढ़ गढ़ बनकर मेरी रक्षा कीजिए.

3इसलिये कि आप मेरी चट्टान और मेरा गढ़ हैं,

अपनी ही महिमा के निमित्त मेरे मार्ग में अगुवाई एवं संचालन कीजिए.

4मुझे उस जाल से बचा लीजिए जो मेरे लिए बिछाया गया है,

क्योंकि आप ही मेरा आश्रय-स्थल हैं.

5अपनी आत्मा मैं आपके हाथों में सौंप रहा हूं;

याहवेह, सत्य के परमेश्वर, आपने ही मुझे मुक्त किया है.

6मुझे घृणा है व्यर्थ प्रतिमाओं के उपासकों से;

किंतु मेरी, आस्था है याहवेह में.

7मैं हर्षित होकर आपके करुणा-प्रेम31:7 करुणा-प्रेम ख़ेसेद इस हिब्री शब्द का अर्थ में अनुग्रह, दया, प्रेम, करुणा ये शामिल हैं में उल्‍लसित होऊंगा,

आपने मेरी पीड़ा पर ध्यान दिया

और मेरे प्राण की वेदना को पहचाना है.

8आपने मुझे शत्रु के हाथों में नहीं सौंपा

और आपने मेरे पैरों को एक विशाल स्थान पर स्थापित किया है31:8 अर्थात् “मुझे स्वतंत्र चलने फिरने की स्थिति प्रदान की”.

9याहवेह, मुझ पर अनुग्रह कीजिए, मैं इस समय संकट में हूं;

शोक से मेरी आंखें धुंधली पड़ चुकी हैं,

मेरे प्राण तथा मेरी देह भी शिथिल हो चुकी है.

10वेदना में मेरा जीवन समाप्‍त हुआ जा रहा है;

आहें भरते-भरते मेरी आयु नष्ट हो रही है;

अपराधों ने मेरी शक्ति को खत्म कर दिया है,

मेरी हड्डियां तक जीर्ण हो चुकी हैं.

11विरोधियों के कारण,

मैं अपने पड़ोसियों के सामने घृणास्पद बन गया हूं,

मैं अपने परिचितों के सामने भयास्पद बन गया हूं,

सड़क पर मुझे देख वे छिपने लगते हैं.

12उन्होंने मुझे ऐसे भुला दिया है मानो मैं एक मृत पुरुष हूं;

मैं वैसा ही व्यर्थ हो गया हूं जैसे एक टूटा पात्र.

13अनेकों का फुसफुस करना मैं सुन रहा हूं;

“आतंक ने मुझे चारों ओर से घेर लिया है!”

वे मेरे विरुद्ध सम्मति रच रहे हैं,

वे मेरे प्राण लेने के लिए तैयार हो गए हैं.

14किंतु याहवेह, मैंने आप पर भरोसा रखा है;

यह मेरी साक्षी है, “आप ही मेरे परमेश्वर हैं.”

15मेरा जीवन आपके ही हाथों में है;

मुझे मेरे शत्रुओं से छुड़ा लीजिए,

उन सबसे मेरी रक्षा कीजिए, जो मेरा पीछा कर रहे हैं.

16अपने मुखमंडल का प्रकाश अपने सेवक पर चमकाईए;

अपने करुणा-प्रेम के कारण मेरा उद्धार कीजिए.

17याहवेह, मुझे लज्जित न होना पड़े,

मैं बार-बार आपको पुकारता रहा हूं;

लज्जित हों दुष्ट और अधोलोक हो उनकी नियति,

जहां जाकर वे चुपचाप हो जाएं.

18उनके झूठ भाषी ओंठ मूक हो जाएं,

क्योंकि वे घृणा एवं घमण्ड से प्रेरित हो,

धर्मियों के विरुद्ध अहंकार करते रहते हैं.

19कैसी महान है आपकी भलाई,

जो आपने अपने श्रद्धालुओं के निमित्त आरक्षित रखी है,

जो आपने अपने शरणागतों के लिए

सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित की है.

20अपनी उपस्थिति के आश्रय-स्थल में आप उन्हें

मनुष्यों के षड़्‍यंत्रों से सुरक्षा प्रदान करते हैं;

अपने आवास में आप उन्हें शत्रुओं के झगड़ालू जीभ से

सुरक्षा प्रदान करते हैं.

21स्तुत्य हैं, याहवेह!

जब शत्रुओं ने मुझे घेर लिया था,

उन्होंने मुझ पर अपना करुणा-प्रेम प्रदर्शित किया.

22घबराहट में मैं कह उठा था,

“मैं आपकी दृष्टि से दूर हो चुका हूं!”

किंतु जब मैंने सहायता के लिए आपको आवाज दी

तब आपने मेरी पुकार सुन ली.

23याहवेह के सभी भक्तो, उनसे प्रेम करो!

सच्चे लोगों को याहवेह सुरक्षा प्रदान करते हैं,

किंतु अहंकारी को पूरा-पूरा दंड.

24तुम सभी, जिन्होंने याहवेह पर भरोसा रखा है,

दृढ़ रहते हुए साहसी बनो.