مراثي إرميا 1 – NAV & HCV

Ketab El Hayat

مراثي إرميا 1:1-22

1كَيْفَ أَصْبَحَتِ الْمَدِينَةُ الآهِلَةُ بِالسُّكَّانِ مَهْجُورَةً وَحِيدَةً؟ صَارَتْ كَأَرْمَلَةٍ! هَذِهِ الَّتِي كَانَتْ عَظِيمَةً بَيْنَ الأُمَمِ. السَّيِّدَةُ بَيْنَ الْمُدُنِ صَارَتْ تَحْتَ الْجِزْيَةِ! 2تَبْكِي بِمَرَارَةٍ فِي اللَّيْلِ، وَدُمُوعُهَا تَنْهَمِرُ عَلَى خَدَّيْهَا. لَا مُعَزِّيَ لَهَا بَيْنَ مُحِبِّيهَا. غَدَرَ بِها جَمِيِعُ خِلّانِهَا وَأَصْبَحُوا لَهَا أَعْدَاءَ. 3سُبِيَتْ يَهُوذَا إِلَى الْمَنْفَى بَعْدَ كُلِّ مَا عَانَتْهُ مِنْ ذُلٍّ وَعُبُودِيَّةٍ، فَأَقَامَتْ بَيْنَ الأُمَمِ شَقِيَّةً، وَأَدْرَكَهَا مُطَارِدُوهَا فِي خِضَمِّ ضِيقَاتِهَا. 4تَنُوحُ الطُّرُقُ الْمُفْضِيَةُ إِلَى صِهْيَوْنَ، لأَنَّهَا أَقْفَرَتْ مِنَ الْقَادِمِينَ إِلَى الأَعْيَادِ! تَهَدَّمَتْ بَوَّابَاتُهَا جَمِيعاً. كَهَنَتُهَا يَتَنَهَّدُونَ؛ عَذَارَاهَا مُتَحَسِّرَاتٌ وَهِيَ تُقَاسِي مُرَّ الْعَذَابِ. 5أَصْبَحَ أَعْدَاؤُهَا سَادَةً، وَنَجَحَ مُضَايِقُوهَا، لأَنَّ الرَّبَّ أَشْقَاهَا بِسَبَبِ خَطَايَاهَا الْمُتَكَاثِرَةِ. قَدْ ذَهَبَ أَوْلادُهَا إِلَى السَّبْيِ أَمَامَ الْعَدُوِّ. 6تَعَرَّتْ بِنْتُ صِهْيَوْنَ مِنْ كُلِّ بَهَائِهَا، وَغَدَا أَشْرَافُهَا كَأَيَائِلَ شَارِدَةٍ مِنْ غَيْرِ مَرْعَى. فَرُّوا بِقُوَّةٍ خَائِرَةٍ أَمَامَ الْمُطَارِدِ. 7تَذَكَّرَتْ أُورُشَلِيمُ فِي أَيَّامِ شَقَائِهَا وَمِحْنَتِهَا جَمِيعَ مَا كَانَتْ تَتَمَتَّعُ بِهِ مِنْ مُشْتَهَيَاتٍ فِي حِقَبِهَا الْغَابِرَةِ. عِنْدَمَا وَقَعَ شَعْبُهَا فِي قَبْضَةِ الْعَدُوِّ لَمْ يَكُنْ لَهَا مُسْعِفٌ، رَآهَا الْعَدُوُّ صَرِيعَةً وَسَخِرَ لِهَلاكِهَا.

8ارْتَكَبَتْ أُورُشَلِيمُ خَطِيئَةً نَكْرَاءَ فَأَصْبَحَتْ رَجِسَةً. جَمِيعُ مُكَرِّمِيهَا يَحْتَقِرُونَهَا لأَنَّهُمْ شَهِدُوا عُرْيَهَا، أَمَّا هِيَ فَتَنَهَّدَتْ وَتَرَاجَعَتِ الْقَهْقَرِيَّ. 9قَدْ عَلِقَ رِجْسُهَا بِذُيُولِهَا. لَمْ تَذْكُرْ آخِرَتَهَا، لِهَذَا كَانَ سُقُوطُهَا رَهِيباً، وَلا مُعَزِّيَ لَهَا. انْظُرْ يَا رَبُّ إِلَى شَقَائِي لأَنَّ الْعَدُوَّ قَدِ انْتَصَرَ. 10امْتَدَّتْ يَدُ الْعَدُوِّ إِلَى كُلِّ ذَخَائِرِهَا، وَأَبْصَرَتِ الأُمَمَ يَنْتَهِكُونَ حُرْمَةَ مَقَادِسِهَا. هَؤُلاءِ الَّذِينَ حَظَرْتَ عَلَيْهِمْ أَنْ يَدْخُلُوا فِي جَمَاعَتِكَ. 11شَعْبُهَا كُلُّهُ يَتَنَهَّدُ وَهُوَ يَبْحَثُ عَنِ الْقُوتِ. قَدْ قَايَضُوا ذَخَائِرَهُمْ بِالطَّعَامِ لإِنْعَاشِ النَّفْسِ الْخَائِرَةِ. (وَقَالَتْ:) «انْظُرْ يَا رَبُّ وَتَأَمَّلْ كَيْفَ أَصْبَحْتُ مُحْتَقَرَةً».

12أَلا يَعْنِيكُمْ هَذَا يَا جَمِيعَ عَابِرِي الطَّرِيقِ؟ تَأَمَّلُوا وَانْظُرُوا، هَلْ مِنْ أَلَمٍ كَأَلَمِي الَّذِي ابْتَلانِي بِهِ الرَّبُّ فِي يَوْمِ احْتِدَامِ غَضَبِهِ؟ 13مِنَ الْعَلاءِ صَبَّ نَاراً فِي عِظَامِي فَسَرَتْ فِيهَا. نَصَبَ شَرَكاً لِقَدَمَيَّ فَرَدَّنِي إِلَى الْوَرَاءِ. جَعَلَنِي أَطْلالاً أَئِنُّ طُولَ النَّهَارِ. 14شَدَّ مَعَاصِيَّ إِلَى نِيرٍ، وَبِيَدِهِ حَبَكَهَا، فَنَاءَ بِها عُنُقِي. أَوْهَنَ الرَّبُّ قُوَايَ وَأَسْلَمَنِي إِلَى يَدٍ لَا طَاقَةَ لِي عَلَى مُقَاوَمَتِهَا.

15بَدَّدَ الرَّبُّ جَمِيعَ جَبَابِرَتِي فِي وَسَطِي، وَأَلَّبَ عَلَيَّ حَشْداً مِنْ أَعْدَائِي لِيَسْحَقُوا شُبَّانِي. دَاسَ الرَّبُّ الْعَذْرَاءَ بِنْتَ صِهْيَوْنَ كَمَا يُدَاسُ الْعِنَبُ فِي الْمِعْصَرَةِ. 16عَلَى هَذِهِ كُلِّهَا أَبْكِي. عَيْنَايَ، عَيْنَايَ تَفِيضَانِ بِالدُّمُوعِ، إِذِ ابْتَعَدَ عَنِّي كُلُّ مُعَزٍّ يُنْعِشُ نَفْسِي. هَلَكَ أَبْنَائِي لأَنَّ الْعَدُوَّ قَدْ ظَفِرَ.

17تَمُدُّ صِهْيَوْنُ يَدَيْهَا تَلْتَمِسُ مُعَزِّياً، وَلَكِنْ عَلَى غَيْرِ طَائِلٍ. قَدْ أَمَرَ الرَّبُّ أَنْ يَكُونَ مُضَايِقُو يَعْقُوبَ هُمْ جِيرَانُهُ الَّذِينَ حَوْلَهُ. قَدْ أَصْبَحَتْ أُورُشَلِيمُ رِجْساً بَيْنَهُمْ. 18الرَّبُّ حَقّاً عَادِلٌ، وَأَنَا قَدْ تَمَرَّدْتُ عَلَى أَمْرِهِ. فَاسْتَمِعُوا يَا جَمِيعَ الشُّعُوبِ وَاشْهَدُوا وَجَعِي. قَدْ ذَهَبَ عَذَارَايَ وَشُبَّانِي إِلَى السَّبْيِ. 19دَعَوْتُ مُحِبِّيَّ فَخَدَعُونِي. فَنِيَ كَهَنَتِي وَشُيُوخِي فِي الْمَدِينَةِ وَهُمْ يَنْشُدُونَ قُوتاً لإِحْيَاءِ نُفُوسِهِمْ. 20انْظُرْ يَا رَبُّ فَإِنِّي فِي ضِيقَةٍ. أَحْشَائِي جَائِشَةٌ وَقَلْبِي مُتَلاطِمٌ فِي دَاخِلِي، لأَنِّي أَكْثَرْتُ التَّمَرُّدَ. هَا السَّيْفُ يُثْكِلُ فِي الْخَارِجِ وَفِي الْبَيْتِ يَسُودُ الْمَوْتُ.

21قَدْ سَمِعُوا تَنَهُّدِي فَلَمْ يَكُنْ مِنْ مُعَزٍّ لِي. جَمِيعُ أَعْدَائِي عَرَفُوا بِبَلِيَّتِي فَشَمِتُوا بِمَا فَعَلْتَ بِي. أَسْرِعْ بِيَوْمِ الْعِقَابِ الَّذِي تَوَعَّدْتَ بِهِ فَيَصِيرُوا مِثْلِي. 22لِيَأْتِ كُلُّ شَرِّهِمْ أَمَامَكَ فَتُعَاقِبَهُمْ كَمَا عَاقَبْتَنِي عَلَى كُلِّ ذُنُوبِي، لأَنَّ تَنَهُّدَاتِي كَثِيرَةٌ وَقَلْبِي مَغْشِيٌّ عَلَيْهِ.

Hindi Contemporary Version

विलापगीत 1:1-22

1कैसी अकेली रह गई है,

यह नगरी जिसमें कभी मनुष्यों का बाहुल्य हुआ करता था!

कैसा विधवा के सदृश स्वरूप हो गया है इसका,

जो राष्ट्रों में सर्वोत्कृष्ट हुआ करती थी!

जो कभी प्रदेशों के मध्य राजकुमारी थी

आज बंदी बन चुकी है.

2रात्रि में बिलख-बिलखकर रोती रहती है,

अश्रु उसके गालों पर सूखते ही नहीं.

उसके अनेक-अनेक प्रेमियों में

अब उसे सांत्वना देने के लिए कोई भी शेष न रहा.

उसके सभी मित्रों ने उससे छल किया है;

वस्तुतः वे तो अब उसके शत्रु बन बैठे हैं.

3यहूदिया के निर्वासन का कारण था

उसकी पीड़ा तथा उसका कठोर दासत्व.

अब वह अन्य राष्ट्रों के मध्य में ही है;

किंतु उसके लिए अब कोई विश्राम स्थल शेष न रह गया;

उसकी पीड़ा ही की स्थिति में वे जो उसका पीछा कर रहे थे,

उन्होंने उसे जा पकड़ा.

4ज़ियोन के मार्ग विलाप के हैं,

निर्धारित उत्सवों के लिए कोई भी नहीं पहुंच रहा.

समस्त नगर प्रवेश द्वार सुनसान हैं,

पुरोहित कराह रहे हैं,

नवयुवतियों को घसीटा गया है,

नगरी का कष्ट दारुण है.

5आज उसके शत्रु ही अध्यक्ष बने बैठे हैं;

आज समृद्धि उसके शत्रुओं के पक्ष में है.

क्योंकि याहवेह ने ही उसे पीड़ित किया है.

क्योंकि उसके अपराध असंख्य थे.

उसके बालक उसके देखते-देखते ही शत्रु द्वारा

बंधुआई में ले जाए गए हैं.

6ज़ियोन की पुत्री से

उसके वैभव ने विदा ले ली है.

उसके अधिकारी अब उस हिरण-सदृश हो गए हैं,

जिसे चरागाह ही प्राप्‍त नहीं हो रहा;

वे उनके समक्ष, जो उनका पीछा कर रहे हैं,

बलहीन होकर भाग रहे हैं.

7अब इन पीड़ा के दिनों में, इन भटकाने के दिनों में

येरूशलेम को स्मरण आ रहा है वह युग,

जब वह अमूल्य वस्तुओं की स्वामिनी थी.

जब उसके नागरिक शत्रुओं के अधिकार में जा पड़े,

जब सहायता के लिए कोई भी न रह गया.

उसके शत्रु बड़े ही संतोष के भाव में उसे निहार रहे हैं,

वस्तुतः वे उसके पतन का उपहास कर रहे हैं.

8येरूशलेम ने घोर पाप किया है

परिणामस्वरूप वह अशुद्ध हो गई.

उन सबको उससे घृणा हो गई, जिनके लिए वह सामान्य थी,

क्योंकि वे उसकी निर्लज्जता के प्रत्यक्षदर्शी हैं;

वस्तुतः अब तो वही कराहते हुए

अपना मुख फेर रही है.

9उसकी गंदगी तो उसके वस्त्रों में थी;

उसने अपने भविष्य का कोई ध्यान न रखा.

इसलिये उसका पतन ऐसा घोर है;

अब किसी से भी उसे सांत्वना प्राप्‍त नहीं हो रही.

“याहवेह, मेरी पीड़ा पर दृष्टि कीजिए,

क्योंकि जय शत्रु की हुई है.”

10शत्रु ने अपनी भुजाएं उसके समस्त गौरव की

ओर विस्तीर्ण कर रखी है;

उसके देखते-देखते जनताओं ने

उसके पवित्र स्थान में बलात प्रवेश कर लिया है,

उस पवित्र स्थान में,

जहां प्रवेश आपकी सभा तक के लिए वर्जित था.

11उसके सभी नागरिक कराहते हुए

भोजन की खोज कर रहे हैं;

वे अपनी मूल्यवान वस्तुओं का विनिमय भोजन के लिए कर रहे हैं,

कि उनमें शक्ति का संचार हो सके.

“याहवेह, देखिए, ध्यान से देखिए,

क्योंकि मैं घृणा का पात्र हो चुकी हूं.”

12“तुम सभी के लिए, जो इस मार्ग से होकर निकल जाते हो, क्या यह तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं?

खोज करके देख लो.

कि कहीं भी क्या मुझ पर आई वेदना जैसी देखी गई है,

मुझे दी गई वह दारुण वेदना,

जो याहवेह ने अपने उग्र कोप के दिन

मुझ पर प्रभावी कर दी है?

13“उच्च स्थान से याहवेह ने मेरी अस्थियों में अग्नि लगा दी,

यह अग्नि उन पर प्रबल रही.

मेरे पैरों के लिए याहवेह ने जाल बिछा दिया

और उन्होंने मुझे लौटा दिया.

उन्होंने मुझे सारे दिन के लिए,

निर्जन एवं मनोबल विहीन कर दिया है.

14“मेरे अपराध मुझ पर ही जूआ बना दिए गए हैं;

उन्हें तो याहवेह ने गूंध दिया है.

वे मेरे गले पर आ पड़े हैं,

मेरे बल को उन्होंने विफल कर दिया है.

याहवेह ने मुझे उनके अधीन कर दिया है,

मैं जिनका सामना करने में असमर्थ हूं.

15“प्रभु ने मेरे सभी शूर योद्धाओं को

अयोग्य घोषित कर दिया है;

जो हमारी सेना के अंग थे,

उन्होंने मेरे विरुद्ध एक ऐसा दिन निर्धारित कर दिया है जब वह मेरे युवाओं को कुचल देंगे.

प्रभु ने यहूदिया की कुंवारी कन्या को ऐसे कुचल दिया है,

जैसे रसकुंड में द्राक्षा कुचली जाती है.

16“यही सब मेरे रोने का कारण हैं

और मेरे नेत्रों से हो रहा अश्रुपात बहता है.

क्योंकि मुझसे अत्यंत दूर है सांत्वना देनेवाला,

जिसमें मुझमें नवजीवन संचार करने की क्षमता है.

मेरे बालक अब निस्सहाय रह गए हैं,

क्योंकि शत्रु प्रबल हो गया है.”

17ज़ियोन ने अपने हाथ फैलाए हैं,

कोई भी नहीं, जो उसे सांत्वना दे सके.

याकोब के संबंध में याहवेह का आदेश प्रसारित हो चुका है,

कि वे सभी जो याकोब के आस-पास बने रहते हैं, वस्तुतः वे उसके शत्रु हैं;

उनके मध्य अब येरूशलेम

एक घृणित वस्तु होकर रह गया है.

18“याहवेह सच्चा हैं,

फिर भी विद्रोह तो मैंने उनके आदेश के विरुद्ध किया है.

अब सभी लोग यह सुन लें;

तथा मेरी इस वेदना को देख लें.

मेरे युवक एवं युवतियां

बंधुआई में जा चुके हैं.

19“मैंने अपने प्रेमियों को पुकारा,

किंतु उन्होंने मुझे धोखा दे दिया.

मेरे पुरोहित एवं मेरे पूर्वज

नगर में ही नष्ट हो चुके हैं,

जब वे स्वयं अपनी खोई शक्ति की पुनःप्राप्‍ति के

उद्देश्य से भोजन खोज रहे थे.

20“याहवेह, मेरी ओर दृष्टि कीजिए!

क्योंकि मैं पीड़ा में डूबी हुई हूं,

अत्यंत प्रचंड है मेरी आत्मा की वेदना,

अपने इस विकट विद्रोह के कारण मेरे अंतर में मेरा हृदय अत्यंत व्यग्र है.

बाहर तो तलवार संहार में सक्रिय है;

यहां आवास में मानो मृत्यु व्याप्‍त है.

21“उन्होंने मेरी कराहट सुन ली है,

कोई न रहा जो मुझे सांत्वना दे सके.

मेरे समस्त शत्रुओं तक मेरे इस विनाश का समाचार पहुंच चुका है;

आपने जो किया है, उस पर वे आनंद मनाते हैं.

उत्तम तो यह होता कि आप उस दिन का सूत्रपात कर देते जिसकी आप पूर्वघोषणा कर चुके हैं,

कि मेरे शत्रु मेरे सदृश हो जाते.

22“उनकी समस्त दुष्कृति आपके समक्ष प्रकट हो जाए;

आप उनके साथ वही व्यवहार करें,

जैसा आपने मेरे साथ किया है

मेरे समस्त अपराध के परिणामस्वरूप.

गहन है मेरी कराहट

तथा शून्य रह गया है मेरा मनोबल.”