أيوب 6 – NAV & HCV

Ketab El Hayat

أيوب 6:1-30

أيوب

1فَأَجَابَ أَيُّوبُ: 2«لَوْ أَمْكَنَ وَضْعُ حُزْنِي وَمُصِيبَتِي فِي مِيزَانٍ، 3إِذَنْ لَكَانَا أَثْقَلَ مِنْ رَمْلِ الْبَحْرِ، لِهَذَا أَلْغُو بِكَلامِي. 4لأَنَّ سِهَامَ الْقَدِيرِ نَاشِبَةٌ فِيَّ، وَرُوحِي تَشْرَبُ مِنْ سُمِّهَا، وَأَهْوَالَ اللهِ مُصْطَفَّةٌ ضِدِّي. 5أَيَنْهَقُ الْحِمَارُ الْوَحْشِيُّ عَلَى مَا لَدَيْهِ مِنْ عُشْبٍ، أَمْ يَخُورُ الثَّوْرُ عَلَى مَا لَدَيْهِ مِنْ عَلَفٍ؟ 6أَيُمْكِنُ أَنْ يُؤْكَلَ مَا لَا طَعْمَ لَهُ مِنْ غَيْرِ مِلْحٍ، أَمْ أَنَّ هُنَاكَ مَذَاقاً لِبَيَاضِ الْبَيْضَةِ؟ 7لَقَدْ عَافَتْ نَفْسِي أَنْ تَمَسَّهُ لأَنَّ مِثْلَ هَذَا الطَّعَامِ يُسْقِمُنِي.

8آهِ! لَيْتَ طِلْبَتِي تُسْتَجَابُ وَيُحَقِّقُ اللهُ رَجَائِي، 9فَيَرْضَى اللهُ أَنْ يَسْحَقَنِي وَيَمُدَّ يَدَهُ وَيَسْتَأْصِلَنِي، 10فَتَبْقَى لِي تَعْزِيَةٌ وَبَهْجَةٌ أَنَّنِي فِي خِضَمِّ آلامِي لَمْ أَجْحَدْ كَلامَ الْقُدُّوسِ. 11مَا هِيَ قُوَّتِي حَتَّى أَنْتَظِرَ؟ وَمَا هُوَ مَصِيرِي حَتَّى أَتَصَبَّرَ؟ 12أَقُوَّةُ الْحِجَارَةِ قُوَّتِي؟ أَمْ لَحْمِي مِنْ نُحَاسٍ؟ 13حَقّاً لَمْ تَعُدْ لَدَيَّ قُوَّةٌ لأُغِيثَ نَفْسِي، وَكُلُّ عَوْنٍ قَدْ أُقْصِيَ عَنِّي.

14الإِنْسَانُ الْمَكْرُوبُ يَحْتَاجُ إِلَى وَفَاءِ أَصْدِقَائِهِ، حَتَّى لَوْ تَخَلَّى عَنْ خَشْيَةِ الْقَدِيرِ. 15قَدْ غَدَرَ بِي إِخْوَانِي كَسَيْلٍ انْقَطَعَ مَاؤُهُ، وَكَمِيَاهِ الأَوْدِيَةِ الْعَابِرَةِ، 16الَّتِي عَكَّرَهَا الْبَرَدُ حَيْثُ يَخْتَفِي فِيهَا الْجَلِيدُ، 17فَتَتَلاشَى فِي فَصْلِ الْجَفَافِ، وَتَخْتَفِي مِنْ مَكَانِهَا عِنْدَ اشْتِدَادِ الْحَرِّ، 18فَتَحِيدُ الْقَوَافِلُ عَنْ طَرِيقِهَا وَتُوْغِلُ فِي التِّيهِ فَتَهْلِكُ. 19بَحَثَتْ عَنْهَا قَوَافِلُ تَيْمَاءَ، وَقَوَافِلُ سَبَأَ رَجَتِ الْعُثُورَ عَلَيْهَا. 20اعْتَرَتْهُمُ الْخَيْبَةُ لأَنَّهُمْ أَمَّلُوا فِيهَا، وَعِنْدَمَا أَقْبَلُوا إِلَيْهَا اسْتَبَدَّ بِهِمِ الْخَجَلُ. 21وَالآنَ قَدْ أَصْبَحْتُمْ مِثْلَهَا. أَبْصَرْتُمْ بَلِيَّتِي فَفَزَعْتُمْ. 22هَلْ طَلَبْتُ مِنْكُمْ شَيْئاً، أَوْ سَأَلْتُكُمْ أَنْ تَرْشُوا مِنْ مَالِكُمْ مِنْ أَجْلِي؟ 23هَلْ قُلْتُ: أَنْقِذُونِي مِنْ قَبْضَةِ الْخَصْمِ، أَوِ افْدُونِي مِنْ نِيرِ الْعُتَاةِ؟

24عَلِّمُونِي فَأَسْكُتَ، وَأَفْهِمُونِي مَا ضَلَلْتُ فِيهِ. 25مَا أَشَدَّ وَقْعَ قَوْلِ الْحَقِّ، وَلَكِنْ عَلَى مَاذَا يُبَرْهِنُ تَوْبِيخُكُمْ؟ 26أَتَبْغُونَ مُقَارَعَةَ كَلامِي بالْحُجَّةِ، وَكَلِمَاتُ الْبَائِسِ تَذْهَبُ أَدْرَاجَ الرِّيَاحِ؟ 27أَنْتُمْ تُلْقُونَ الْقُرْعَةَ حَتَّى عَلَى الْيَتِيمِ، وَتُسَاوِمُونَ عَلَى الصَّدِيقِ. 28وَالآنَ تَلَطَّفُوا بِالنَّظَرِ إِلَيَّ لأَنَّنِي لَنْ أَكْذِبَ عَلَيْكُمْ. 29ارْجِعُوا، لَا تَكُونُوا حَائِرِينَ، فَإِنَّ أَمَانَتِي مُعَرَّضَةٌ لِلاتِّهَامِ. 30أَفِي لِسَانِي ظُلْمٌ، أَمْ مَذَاقِي لَا يُمَيِّزُ مَا هُوَ فَاسِدٌ؟

Hindi Contemporary Version

अय्योब 6:1-30

मित्रों से अय्योब की निराशा

1यह सुन अय्योब ने यह कहा:

2“कैसा होता यदि मेरी पीड़ा मापी जा सकती,

इसे तराजू में रखा जाता!

3तब तो इसका माप सागर तट की बालू से अधिक होता.

इसलिये मेरे शब्द मूर्खता भरे लगते हैं.

4क्योंकि सर्वशक्तिमान के बाण मुझे बेधे हुए हैं,

उनका विष रिसकर मेरी आत्मा में पहुंच रहा है.

परमेश्वर का आतंक आक्रमण के लिए मेरे विरुद्ध खड़ा है!

5क्या जंगली गधा घास के सामने आकर रेंकता है?

क्या बछड़ा अपना चारा देख रम्भाता है?

6क्या किसी स्वादरहित वस्तु का सेवन नमक के बिना संभव है?

क्या अंडे की सफेदी में कोई भी स्वाद होता है?

7मैं उनका स्पर्श ही नहीं चाहता;

मेरे लिए ये घृणित भोजन-समान हैं.

8“कैसा होता यदि मेरा अनुरोध पूर्ण हो जाता

तथा परमेश्वर मेरी लालसा को पूर्ण कर देते,

9तब ऐसा हो जाता कि परमेश्वर मुझे कुचलने के लिए तत्पर हो जाते,

कि वह हाथ बढ़ाकर मेरा नाश कर देते!

10किंतु तब भी मुझे तो संतोष है,

मैं असह्य दर्द में भी आनंदित होता हूं,

क्योंकि मैंने पवित्र वचनों के आदेशों का विरोध नहीं किया है.

11“क्या है मेरी शक्ति, जो मैं आशा करूं?

क्या है मेरी नियति, जो मैं धैर्य रखूं?

12क्या मेरा बल वह है, जो चट्टानों का होता है?

अथवा क्या मेरी देह की रचना कांस्य से हुई है?

13क्या मेरी सहायता का मूल मेरे अंतर में निहित नहीं,

क्या मेरी विमुक्ति मुझसे दूर हो चुकी?

14“जो अपने दुःखी मित्र पर करुणा नहीं दिखाता,

वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर के प्रति श्रद्धा छोड़ देता है.

15मेरे भाई तो जलधाराओं समान विश्वासघाती ही प्रमाणित हुए,

वे जलधाराएं, जो विलीन हो जाती हैं,

16जिनमें हिम पिघल कर जल बनता है

और उनका जल छिप जाता है.

17वे जलहीन शांत एवं सूनी हो जाती हैं,

वे ग्रीष्मऋतु में अपने स्थान से विलीन हो जाती हैं.

18वे अपने रास्ते से भटक जाते हैं;

उसके बाद वे मरुभूमि में विलीन हो जाती हैं.

19तेमा के यात्री दल उन्हें खोजते रहे,

शीबा के यात्रियों ने उन पर आशा रखी थी.

20उन पर भरोसा कर उन्हें पछतावा हुआ;

वे वहां पहुंचे और निराश हो गए.

21अब स्थिति यह है, कि तुम इन्हीं जलधाराओं के समान हो चुके हो;

तुम आतंक को देखकर डर जाते हो.

22क्या मैंने कभी यह आग्रह किया है, ‘कुछ तो दे दो मुझे, अथवा,

अपनी संपत्ति में से कुछ देकर मुझे मुक्त करा लो,

23अथवा, शत्रु के बंधन से मुझे मुक्त करा लो,

इस उपद्रव करनेवाले व्यक्ति के अधिकार से मुझे छुड़ा लो?’

24“मुझे शिक्षा दीजिए, मैं चुप रहूंगा;

मेरी त्रुटियां मुझ पर प्रकट कर दीजिए.

25सच्चाई में कहे गए उद्गार कितने सुखदायक होते हैं!

किंतु आपके विवाद से क्या प्रकट होता है?

26क्या तुम्हारा अभिप्राय मेरे कहने की निंदा करना है,

निराश व्यक्ति के उद्गार तो निरर्थक ही होते हैं?

27तुम तो पितृहीनों के लिए चिट्ठी डालोगे

तथा अपने मित्र को ही बेच दोगे.

28“अब कृपा करो और मेरी ओर देखो.

फिर देखना कि क्या मैं तुम्हारे मुख पर झूठ बोल सकूंगा?

29अब कोई अन्याय न होने पाए;

छोड़ दो यह सब, मैं अब भी सत्यनिष्ठ हूं.

30क्या मेरी जीभ अन्यायपूर्ण है?

क्या मुझमें बुराई और अच्छाई का बोध न रहा?