أيوب 34 – NAV & HCV

Ketab El Hayat

أيوب 34:1-37

1وَأَضَافَ أَلِيهُو قَائِلاً: 2«اسْتَمِعُوا إِلَى أَقْوَالِي أَيُّهَا الْحُكَمَاءُ، وَأَصْغُوا إِلَيَّ يَا ذَوِي الْمَعْرِفَةِ، 3لأَنَّ الأُذُنَ تُمَحِّصُ الأَقْوَالَ كَمَا يَتَذَوَّقُ الْحَنَكُ الطَّعَامَ. 4لِنَتَدَاوَلْ فِيمَا بَيْنَنَا لِنُمَيِّزَ مَا هُوَ أَصْوَبُ لَنَا، وَنَتَعَلَّمَ مَعاً مَا هُوَ صَالِحٌ.

5يَقُولُ أَيُّوبُ: ’إِنِّي بَارٌّ، وَلَكِنَّ اللهَ قَدْ تَنَكَّرَ لِحَقِّي، 6وَمَعَ أَنِّي مُحِقٌّ فَأَنَا أُدْعَى كَاذِباً، وَمَعَ أَنِّي بَرِيءٌ فَإِنَّ سَهْمَهُ أَصَابَنِي بِجُرْحٍ مُسْتَعْصٍ‘. 7فَمَنْ هُوَ نَظِيرُ أَيُّوبَ الَّذِي يَجْرَعُ الْهُزْءَ كَالْمَاءِ، 8يُوَاظِبُ عَلَى مُعَاشَرَةِ فَاعِلِي الإِثْمِ، وَيَأْتَلِفُ مَعَ الأَشْرَارِ، 9لأَنَّهُ يَقُولُ: لَا يَنْتَفِعُ الإِنْسَانُ شَيْئاً مِنْ إِرْضَاءِ اللهِ.

10لِذَلِكَ أَصْغُوا إِلَيَّ يَا ذَوِي الْفَهْمِ: حَاشَا لِلهِ أَنْ يَرْتَكِبَ شَرّاً أَوْ لِلْقَدِيرِ أَنْ يَقْتَرِفَ خَطَأً، 11لأَنَّهُ يُجَازِي الإِنْسَانَ بِمُوْجِبِ أَعْمَالِهِ، وَبِمُقْتَضَى طَرِيقِهِ يُحَاسِبُهُ. 12إِذْ حَاشَا لِلهِ أَنْ يَرْتَكِبَ شَرّاً، وَالْقَدِيرِ أَنْ يُعَوِّجَ الْقَضَاءَ. 13مَنْ وَكَّلَ اللهَ بِالأَرْضِ؟ وَمَنْ عَهِدَ إِلَيْهِ بِالْمَسْكُونَةِ؟ 14إِنِ اسْتَرْجَعَ رُوحَهُ إِلَيْهِ وَاسْتَجْمَعَ نَسَمَتَهُ إِلَى نَفْسِهِ 15فَالْبَشَرُ جَمِيعاً يَفْنَوْنَ مَعاً، وَيَعُودُ الإِنْسَانُ إِلَى التُّرَابِ.

16فَإِنْ كُنْتَ مِنْ أُولِي الْفَهْمِ، فَاسْتَمِعْ إِلَى هَذَا، وَأَنْصِتْ لِمَا أَقُولُ: 17أَيُمْكِنُ لِمُبْغِضِ الْعَدْلِ أَنْ يَحْكُمَ؟ أَتَدِينُ الْبَارَّ الْقَدِيرَ؟ 18الَّذِي يَقُولُ لِلْمَلِكِ: أَنْتَ عَدِيمُ الْقِيمَةِ، وَلِلنُّبَلاءِ: أَنْتُمْ أَشْرَارٌ؟ 19الَّذِي لَا يُحَابِي الأُمَرَاءَ، وَلا يُؤْثِرُ الأَغْنِيَاءَ عَلَى الْفُقَرَاءِ، لأَنَّهُمْ جَمِيعاً عَمَلُ يَدَيْهِ. 20فِي لَحْظَةٍ يَمُوتُونَ، تُفَاجِئُهُمُ الْمَنِيَّةُ فِي مُنْتَصَفِ اللَّيْلِ، تَتَزَعْزَعُ الشُّعُوبُ فَيَفْنَوْنَ، وَيُسْتَأْصَلُ الأَعِزَّاءُ مِنْ غَيْرِ عَوْنٍ بَشَرِيٍّ، 21لأَنَّ عَيْنَيْهِ عَلَى طُرُقِ الإِنْسَانِ وَهُوَ يُرَاقِبُ خَطْوَاتِهِ. 22لَا تُوجَدُ ظُلْمَةٌ، وَلا ظِلُّ مَوْتٍ، يَتَوَارَى فِيهِمَا فَاعِلُو الإِثْمِ، 23لأَنَّهُ لَا يَحْتَاجُ أَنْ يَفْحَصَ الإِنْسَانَ مَرَّةً أُخْرَى حَتَّى يَدْعُوهُ لِلْمُثُولِ أَمَامَهُ فِي مُحَاكَمَةٍ. 24يُحَطِّمُ الأَعِزَّاءَ مِنْ غَيْرِ إِجْرَاءِ تَحْقِيقٍ، وَيُقِيمُ آخَرِينَ مَكَانَهُمْ 25لِذَلِكَ هُوَ مُطَّلِعٌ عَلَى أَعْمَالِهِمْ، فَيُطِيحُ بِهِمْ فِي اللَّيْلِ فَيُسْحَقُونَ. 26يَضْرِبُهُمْ لِشَرِّهِمْ عَلَى مَرْأَى مِنَ النَّاسِ، 27لأَنَّهُمُ انْحَرَفُوا عَنِ اتِّبَاعِهِ، وَلَمْ يَتَأَمَّلُوا فِي طُرُقِهِ، 28فَكَانُوا سَبَباً فِي ارْتِفَاعِ صُرَاخِ الْبَائِسِ إِلَيْهِ، وَاللهُ يَسْتَجِيبُ اسْتِغَاثَةَ الْمِسْكِينِ. 29فَإِنْ هَيْمَنَ بِسَكِينَتِهِ فَمَنْ يَدِينُهُ؟ وَإِنْ وَارَى وَجْهَهُ فَمَنْ يُعَايِنُهُ؟ سَوَاءٌ أَكَانُوا شَعْباً أَمْ فَرْداً 30لِكَيْ لَا يَسُودَ الْفَاجِرُ، لِئَلّا تَعْثُرَ الأُمَّةُ.

31هَلْ قَالَ أَحَدٌ للهِ: لَقَدْ تَحَمَّلْتُ الْعِقَابَ فَلَنْ أَعُودَ إِلَى الإِسَاءَةِ؟ 32عَلِّمْنِي مَا لَا أَرَاهُ، وَإِنْ كُنْتُ قَدْ أَثِمْتُ فَإِنَّنِي عَنْهُ أَرْتَدِعُ. 33أَيُجْزِيكَ اللهُ إِذاً بِمُقْتَضَى رَأْيِكَ إِذَا رَفَضْتَ التَّوْبَةَ؟ لأَنَّ عَلَيْكَ أَنْتَ أَنْ تَخْتَارَ لَا أَنَا، فَأَخْبِرْنِي بِمَا تَعْرِفُ. 34إِنَّ ذَوِي الْفَهْمِ يُعْلِنُونَ، وَالْحُكَمَاءَ الَّذِينَ يُنْصِتُونَ إِلَى كَلامِي يَقُولُونَ لِي: 35إِنَّ أَيُّوبَ يَتَكَلَّمُ بِجَهْلٍ، وَكَلامُهُ يَفْتَقِرُ إِلَى التَّعَقُّلِ. 36يَا لَيْتَ أَيُّوبَ يُمْتَحَنُ أَقْسَى امْتِحَانٍ، لأَنَّهُ أَجَابَ كَمَا يُجِيبُ أَهْلُ الشَّرِّ. 37لَكِنَّهُ أَضَافَ إِلَى خَطِيئَتِهِ عِصْيَاناً، إِذْ يُصَفِّقُ بَيْنَنَا بِاحْتِقَارٍ، مُثَرْثِراً بِأَقْوَالٍ ضِدَّ اللهِ!»

Hindi Contemporary Version

अय्योब 34:1-37

1एलिहू ने फिर कहा:

2“बुद्धिमानों, मेरा वक्तव्य सुनो;

आप तो सब समझते ही हैं, तब मेरी सुन लीजिए.

3जैसे जीभ भोजन के स्वाद को परखती है,

कान भी वक्तव्य की विवेचना करता है.

4उत्तम यही होगा, कि हम यहां अपने लिए;

वही स्वीकार कर लें, जो भला है.

5“अय्योब ने यह दावा किया है ‘मैं तो निर्दोष हूं,

किंतु परमेश्वर ने मेरे साथ अन्याय किया है;

6क्या अपने अधिकार के विषय में,

मैं झूठा दावा करूंगा?

मेरा घाव असाध्य है,

जबकि मेरी ओर से कोई अवज्ञा नहीं हुई है.’

7क्या ऐसा कोई व्यक्ति है, जो अय्योब के समान हो,

जो निंदा का जल समान पान कर जाते हैं,

8जो पापिष्ठ व्यक्तियों की संगति करते हैं;

जो दुर्वृत्तों के साथ कार्यों में जुट जाते हैं?

9क्योंकि उन्होंने यह कहा है, ‘कोई लाभ नहीं होता

यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर से आनंदित होता.’

10“तब अब आप ध्यान से मेरी सुन लीजिए, आप तो बुद्धिमान हैं.

परमेश्वर के लिए तो यह संभव ही नहीं कि वह किसी भी प्रकार की बुराई करे,

सर्वशक्तिमान से कोई भूल होना संभव नहीं.

11क्योंकि वह तो किसी को भी उसके कार्यों के अनुरूप प्रतिफल देते हैं;

तथा उसके आचरण के अनुसार फल भी.

12निश्चय, परमेश्वर बुराई नहीं करेंगे

तथा सर्वशक्तिमान न्याय को विकृत नहीं होने देंगे.

13पृथ्वी पर उन्हें अधिकारी किसने बनाया है?

किसने संपूर्ण विश्व का दायित्व उन्हें सौंपा है?

14यदि वह यह निश्चय कर लेते हैं, कि वह कोई कार्य निष्पन्‍न करेंगे,

यदि वह अपनी आत्मा तथा अपना श्वास ले लें,

15तो समस्त मानव जाति तत्क्षण नष्ट हो जाएगी

तथा मनुष्य धूल में लौट जाएगा.

16“किंतु यदि वास्तव में आप में समझ है, यह सुन लीजिए;

मेरे शब्द की ध्वनि पर ध्यान दीजिए.

17क्या यह उपयुक्त है कि वह शासन करे, जिसे न्याय से घृणा है?

क्या आप उस शूर पर, जो पूर्ण धर्मी है दंड प्रसारित करेंगे?

18जिसमें राजा तक पर यह आक्षेप लगाने का साहस है

‘निकम्मे,’ तथा प्रधानों पर, ‘तुम दुष्ट हो,’

19जो प्रमुखों से प्रभावित होकर उनका पक्ष नहीं करता,

जो न दीनों को तुच्छ समझ धनाढ्यों को सम्मान देता है, क्योंकि उनमें यह बोध प्रबल रहता है

दोनों ही एक परमेश्वर की कृति हैं?

20सभी की मृत्यु क्षण मात्र में हो जाती है,

मध्य रात्रि के समय एक पल के साथ उनके प्राण उड़ जाते हैं,

हां, शूरवीर तक, बिना किसी मानव हाथ के प्रहार के चले जाते हैं.

21“क्योंकि मनुष्य की हर एक गतिविधि पर परमेश्वर की दृष्टि रहती है;

उसकी समस्त चाल परमेश्वर को मालूम रहते हैं.

22न तो कोई ऐसा अंधकार है, और न ही ऐसी कोई छाया,

जहां दुराचारी छिपने के लिए आश्रय ले सकें.

23परमेश्वर के लिए यह आवश्यक नहीं, कि वह किसी मनुष्य के लिए गए निर्णय पर विचार करें,

कि मनुष्य को न्याय के लिए परमेश्वर के सामने उपस्थित होना पड़े.

24बिना कुछ पूछे परमेश्वर, शूरवीरों को चूर-चूर कर देते हैं,

तब अन्य व्यक्ति को उसके स्थान पर नियुक्त कर देते हैं.

25तब परमेश्वर को उनके कृत्यों का पूरा हिसाब रहता है,

रात्रि के रहते ही वह उन्हें मिटा देते हैं, वे कुचल दिए जाते हैं.

26उन पर परमेश्वर का प्रहार वैसा ही होता है,

मानो कोई दुराचारी सार्वजनिक रीति से दंडित किया जा रहा हो,

27क्योंकि वे परमेश्वर से दूर हो गये थे,

उन्होंने परमेश्वर के मार्ग का कोई ध्यान नहीं दिया था,

28कि कंगालों की पुकार परमेश्वर तक जा पहुंची,

कि पीड़ित की पुकार परमेश्वर ने सुनी.

29जब परमेश्वर चुप रहते हैं,

तब उन पर उंगली कौन उठा सकेगा?

तथा अगर वह मुख छिपाने का निर्णय ले लें, तो कौन उनकी झलक देख सकेगा;

चाहे कोई राष्ट्र हो अथवा व्यक्ति?

30किंतु दुर्जन शासक न बन सकें,

और न ही वे प्रजा के लिए मोहजाल प्रमाणित हों.

31“क्या कोई परमेश्वर के सामने यह दावा करे,

‘मैं तो गुनहगार हूं, परंतु इसके बाद मुझसे कोई अपराध न होगा.

32अब आप मुझे उस विषय की शिक्षा दीजिए; जो मेरे लिए अब तक अदृश्य है.

चाहे मुझसे कोई पाप हो गया है, मैं अब इसे कभी न करूंगा.’

33महोदय अय्योब, क्या परमेश्वर आपकी शर्तों पर नुकसान करेंगे,

क्योंकि आपने तो परमेश्वर की कार्यप्रणाली पर विरोध प्रकट किया है,

चुनाव तो आपको ही करना होगा मुझे नहीं तब;

अपने ज्ञान की घोषणा कर दीजिए.

34“वे, जो बुद्धिमान हैं, तथा वे, जो ज्ञानी हैं,

मेरी सुनेंगे और मुझसे कहेंगे,

35‘अय्योब की बात बिना ज्ञान की होती है;

उनके कथनों में कोई विद्वत्ता नहीं है.’

36महोदय अय्योब को बड़ी ही सूक्ष्मता-पूर्वक परखा जाए,

क्योंकि उनके उत्तरों में दुष्टता पाई जाती है!

37वह अपने पाप पर विद्रोह का योग देते हैं;

वह हमारे ही मध्य रहते हुए उपहास में ताली बजाते

तथा परमेश्वर की निंदा पर निंदा करते जाते हैं.”