ማርቆስ 6 – NASV & HCV

New Amharic Standard Version

ማርቆስ 6:1-56

ነቢይ በአገሩ አይከበርም

6፥1-6 ተጓ ምብ – ማቴ 13፥54-58

1ከዚህ በኋላ ኢየሱስ ከዚያ ተነሥቶ ወደ ገዛ አገሩ ሄደ፤ ደቀ መዛሙርቱም ተከተሉት። 2ሰንበትም በደረሰ ጊዜ፣ በምኵራብ ያስተምር ጀመር፤ የሰሙትም ብዙ ሰዎች ተደነቁ።

እነርሱም እንዲህ አሉ፤ “ይህ ሰው እነዚህን ነገሮች ከየት አገኛቸው? ይህ የተሰጠው ጥበብ ምንድን ነው? ደግሞም እነዚህ ታምራት እንዴት በእጁ ይደረጋሉ! 3ይህ ዐናጢው አይደለምን? የማርያም ልጅ፣ የያዕቆብና የዮሴፍ6፥3 ግሪኩ ዮሴስ ይላል።፣ የይሁዳና የስምዖን ወንድም አይደለምን? እኅቶቹስ እዚሁ እኛው ዘንድ አይደሉምን?” ከዚህም የተነሣ ተሰናከሉበት።

4ኢየሱስም፣ “ነቢይ የማይከበረው በገዛ አገሩ፣ በዘመዶቹ መካከልና በቤተ ሰቡ ዘንድ ብቻ ነው” አላቸው። 5እዚያም በጥቂት ሕመምተኞች ላይ እጁን ጭኖ ከመፈወሱ በስተቀር ምንም ታምራት ሊሠራ አልቻለም፤ 6ባለ ማመናቸውም ተደነቀ።

ኢየሱስ ዐሥራ ሁለቱን ላከ

6፥7-11 ተጓ ምብ – ማቴ 10፥19-14ሉቃ 9፥13-5

ከዚያም ኢየሱስ በየመንደሩ እየተዘዋወረ ያስተምር ነበር። 7ዐሥራ ሁለቱን ወደ እርሱ ጠርቶ፣ ሁለት ሁለቱን ላካቸው፤ በርኩሳን6፥7 ወይም ክፉ መናፍስትም ላይ ሥልጣን ሰጣቸው።

8ይህንም ትእዛዝ ሰጣቸው፤ “ለመንገዳችሁ ከበትር በስተቀር፣ እንጀራ ወይም ከረጢት ወይም ደግሞ ገንዘብ በመቀነታችሁ አትያዙ፤ 9ጫማ አድርጉ፤ ነገር ግን ሁለት እጀ ጠባብ አትልበሱ፤ 10ወደ አንድ ቤት በምትገቡበት ጊዜ ከዚያች ከተማ እስክትወጡ ድረስ እዚያው ቈዩ፤ 11የትኛውም ቦታ የማይቀበላችሁ ወይም የማይሰማችሁ ከሆነ፣ ከዚያ ስፍራ ስትወጡ ምስክር እንዲሆንባቸው ከእግራችሁ ሥር ያለውን ትቢያ በዚያ አራግፉ።”

12እነርሱም ከዚያ ወጥተው፤ ሰዎች ንስሓ እንዲገቡ ሰበኩ፤ 13ብዙ አጋንንት አስወጡ፤ ብዙ ሕመምተኞችንም ዘይት እየቀቡ ፈወሱ።

የመጥምቁ ዮሐንስ መሰየፍ

6፥14-29 ተጓ ምብ – ማቴ 14፥1-12

6፥14-16 ተጓ ምብ – ሉቃ 9፥7-9

14የኢየሱስ ስም እየታወቀ በመምጣቱ፣ ንጉሥ ሄሮድስ ይህንኑ ሰማ። አንዳንዶችም፣ “የዚህ ዐይነት ታምር በእርሱ የሚሠራው መጥምቁ ዮሐንስ ከሙታን ቢነሣ ነው” ይሉ ነበር6፥14 አንዳንድ ቅጆች ይል ነበር ይላሉ።

15ሌሎቹም፣ “ኤልያስ ነው” አሉ።

አንዳንዶች ደግሞ፣ “ከቀደምት ነቢያት እንደ አንዱ ነቢይ ነው” ይሉ ነበር።

16ሄሮድስ ነገሩን ሲሰማ ግን፣ “እኔ ራሱን ያስቈረጥሁት ዮሐንስ ከሙታን ተነሥቷል!” አለ።

17ሄሮድስ ራሱ የወንድሙን የፊልጶስን ሚስት ሄሮድያዳን በማግባቱ ምክንያት፣ ተይዞ እንዲታሰር ትእዛዝ በመስጠት ዮሐንስን ወህኒ ቤት አስገብቶት ነበር። 18ዮሐንስ ሄሮድስን፣ “የወንድምህን ሚስት ታገባት ዘንድ ሕግ ይከለክልሃል” ይለው ነበርና። 19ሄሮድያዳም በዚህ ቂም ይዛበት ልታስገድለው ፈለገች፤ ነገር ግን አልሆነላትም። 20ምክንያቱም ዮሐንስ ጻድቅና ቅዱስ ሰው መሆኑን ሄሮድስ በማወቁ ይፈራውና ይጠብቀው ነበር። ዮሐንስ የሚናገረውን ሲሰማ ሄሮድስ ቢታወክም6፥20 አንዳንድ የጥንት ቅጆች ብዙ ነገር ያደርግ ነበር ይላሉ። በደስታ ያደምጠው ነበር።

21በመጨረሻም አመቺ ቀን መጣ። ሄሮድስ በተወለደበት ዕለት ለከፍተኛ ሹማምቱ፣ ለጦር አዛዦቹና በገሊላ ለታወቁ ታላላቅ ሰዎች ግብዣ አደረገ። 22የሄሮድያዳም ልጅ ገብታ በዘፈነች ጊዜ ሄሮድስንና ተጋባዦቹን ደስ አሰኘቻቸው። ንጉሡም ብላቴናዪቱን፣ “የምትፈልጊውን ሁሉ ጠይቂኝ እሰጥሻለሁ” አላት። 23ደግሞም “እስከ መንግሥቴ እኩሌታ ድረስ እንኳ ቢሆን፣ የምትጠይቂኝን ሁሉ እሰጥሻለሁ” ሲል በመሐላ ቃል ገባላት።

24እርሷም ወጥታ እናቷን፣ “ምን ልለምነው?” አለቻት።

እናቷም፣ “የመጥምቁ ዮሐንስን ራስ” አለቻት።

25ብላቴናዪቱም ወዲያው ፈጥና ወደ ንጉሡ በመመለስ፣ “የመጥምቁ ዮሐንስን ራስ አሁን በሳሕን እንድትሰጠኝ እፈልጋለሁ” አለችው።

26ንጉሡ በነገሩ እጅግ ዐዘነ፤ በተጋበዙት እንግዶች ፊት የመሐላ ቃሉን ለማጠፍ አልፈለገም። 27ስለዚህ አንዱን ወታደር በፍጥነት ልኮ፣ የዮሐንስን ራስ ቈርጦ እንዲያመጣ አዘዘው፤ እርሱም ሄዶ በወህኒ ቤቱ ውስጥ ራሱን ቈረጠ፤ 28በሳሕን አምጥቶ ለብላቴናዪቱ ሰጣት፤ ብላቴናዪቱም ለእናቷ ሰጠች። 29የዮሐንስ ደቀ መዛሙርትም ይህን እንደ ሰሙ መጡ፤ ሬሳውንም ወስደው ቀበሩት።

ኢየሱስ አምስት ሺሕ ሰዎች መገበ

6፥32-44 ተጓ ምብ – ማቴ 14፥13-21ሉቃ 9፥10-17ዮሐ 6፥5-13

6፥32-44 ተጓ ምብ – ማር 8፥2-9

30ሐዋርያትም በኢየሱስ ዙሪያ ተሰብስበው የሠሩትንና ያስተማሩትን ሁሉ ነገሩት። 31ብዙ ሰዎች ይመጡና ይሄዱ ስለ ነበር ምግብ እንኳ ለመብላት ጊዜ ስላልነበራቸው፣ “እስቲ ብቻችሁን ከእኔ ጋር ወደ አንድ ገለልተኛ ስፍራ እንሂድና ጥቂት ዕረፉ” አላቸው።

32ስለዚህ ብቻቸውን ወደ አንድ ገለልተኛ ስፍራ በጀልባ ሄዱ። 33እነርሱም ሲሄዱ ብዙ ሰዎች አይተው ዐወቋቸው፤ ከከተሞችም ሁሉ በእግር እየሮጡ ቀድመዋቸው ደረሱ። 34ኢየሱስ ከጀልባዋ በሚወርድበት ጊዜ ብዙ ሕዝብ ተሰብስቦ አየ፤ እረኛ እንደሌላቸው በጎች ስለ ነበሩም ዐዘነላቸው፤ ብዙ ነገርም ያስተምራቸው ጀመር።

35በዚህ ጊዜ ቀኑ እየመሸ በመሄዱ ደቀ መዛሙርቱ ወደ እርሱ ቀርበው እንዲህ አሉት፤ “ይህ ቦታ ምድረ በዳ ነው፤ ቀኑም መሽቷል፤ 36በአካባቢው ሰው ወዳለበት መንደር ሄደው የሚበላ ነገር ገዝተው እንዲመገቡ ሕዝቡን አሰናብታቸው።”

37እርሱ ግን መልሶ፣ “የሚበሉትን እናንተው ስጧቸው” አላቸው።

እነርሱም፣ “ሄደን በሁለት መቶ ዲናር እንጀራ ገዝተን የሚበሉትን እንስጣቸውን?” አሉት።

38እርሱም፣ “ስንት እንጀራ አላችሁ? እስቲ ሄዳችሁ እዩ” አላቸው።

አይተውም፣ “አምስት እንጀራና ሁለት ዓሣ” አሉት።

39ከዚያም፣ ሕዝቡን በለመለመ ሣር ላይ በቡድን በቡድን እንዲያስቀምጡ አዘዛቸው። 40ሕዝቡም መቶ መቶና አምሳ አምሳ ሆነው በቡድን በቡድን ተቀመጡ። 41እርሱም አምስቱን እንጀራና ሁለቱን ዓሣ ይዞ ወደ ሰማይ በማየት ባረከ፤ እንጀራውንም ቈርሶ እንዲያቀርቡላቸው ለደቀ መዛሙርቱ ሰጠ፤ ሁለቱንም ዓሣ ለሁሉም አካፈለ። 42ሁሉም በልተው ጠገቡ፤ 43ደቀ መዛሙርቱም ከተበላው እንጀራና ዓሣ፣ ዐሥራ ሁለት መሶብ ሙሉ ፍርፋሪ አነሡ። 44እንጀራውንም የበሉት አምስት ሺሕ ወንዶች ነበሩ።

ኢየሱስ በባሕር ላይ በእግሩ ሄደ

6፥45-51 ተጓ ምብ – ማቴ 14፥22-32ዮሐ 6፥15-21

6፥53-56 ተጓ ምብ – ማቴ 14፥34-36

45ወዲያውም እርሱ ሕዝቡን እያሰናበተ ሳለ፣ ደቀ መዛሙርቱ በጀልባ ወደ ቤተ ሳይዳ ቀድመውት እንዲሻገሩ አዘዛቸው፤ 46ከዚያም ትቷቸው ሊጸልይ ወደ ተራራ ወጣ።

47በመሸም ጊዜ ጀልባዋ ባሕሩ መካከል ነበረች፤ እርሱም ብቻውን በምድር ላይ ነበር። 48ነፋስ በርትቶባቸው ስለ ነበር፣ ደቀ መዛሙርቱ ከመቅዘፊያው ጋር ሲታገሉ አያቸው፤ በአራተኛውም ክፍለ ሌሊት ገደማ፣ በባሕር ላይ እየሄደ ወደ እነርሱ መጣ፤ በአጠገባቸውም ዐልፎ ሊሄድ ነበር። 49ነገር ግን በባሕር ላይ ሲሄድ ባዩት ጊዜ ምትሀት መስሏቸው ጮኹ፤ 50ሁሉም እርሱን ባዩት ጊዜ ደንግጠው ነበርና። እርሱም ወዲያውኑ አነጋገራቸውና፣ “አይዟችሁ እኔ ነኝ፤ አትፍሩ!” አላቸው። 51እርሱም በጀልባዋ ላይ ወጥቶ አብሯቸው ሆነ፤ ነፋሱም ተወ፤ እነርሱም እጅግ ተደነቁ። 52የእንጀራውን ታምር አላስተዋሉም ነበርና፤ ልባቸውም ደንድኖ ነበር።

53በተሻገሩም ጊዜ፣ ጌንሴሬጥ ደርሰው ወረዱ፤ ጀልባዋንም እዚያው አቆሙ። 54ወዲያው እንደ ወረዱም፣ ሕዝቡ ኢየሱስን ዐወቁት፤ 55ወደ አካባቢውም ሁሉ በመሮጥ ሕመምተኞችን በዐልጋ ላይ እየተሸከሙ እርሱ ወደሚገኝበት ስፍራ ሁሉ ያመጡ ነበር። 56በየደረሰበት መንደር ወይም ከተማ ወይም ገጠር ሁሉ ሕመምተኞችን በየአደባባዩ እያስቀመጡ የልብሱን ጫፍ እንኳ ለመንካት ይለምኑት ነበር፤ የነኩትም ሁሉ ይድኑ ነበር።

Hindi Contemporary Version

मार्कास 6:1-56

नाज़रेथवासियों द्वारा विश्वास करने से इनकार

1मसीह येशु वहां से अपने गृहनगर6:1 यानी, नाज़रेथ आए. उनके शिष्य उनके साथ थे. 2शब्बाथ पर वे यहूदी सभागृह में शिक्षा देने लगे. उनको सुन उनमें से अनेक चकित हो कहने लगे.

“कहां से प्राप्‍त हुआ इसे यह सब? कहां से प्राप्‍त हुआ है इसे यह बुद्धि कौशल और हाथों से यह अद्भुत काम करने की क्षमता? 3क्या यह वही बढ़ई नहीं? क्या यह मरियम का पुत्र तथा याकोब, योसेस, यहूदाह तथा शिमओन का भाई नहीं? क्या उसी की बहनें हमारे मध्य नहीं हैं?” इस पर उन्होंने मसीह येशु को अस्वीकार कर दिया.

4मसीह येशु ने उनसे कहा, “भविष्यवक्ता हर जगह सम्मानित होता है सिवाय अपने स्वयं के नगर में, अपने संबंधियों तथा परिवार के मध्य.” 5कुछ रोगियों पर हाथ रख उन्हें स्वस्थ करने के अतिरिक्त मसीह येशु वहां कोई अन्य अद्भुत काम न कर सके. 6मसीह येशु को उनके अविश्वास पर बहुत ही आश्चर्य हुआ.

बारह शिष्यों का भेजा जाना

मसीह येशु नगर-नगर जाकर शिक्षा देते रहे. 7उन्होंने उन बारहों को बुलाया और उन्हें दुष्टात्माओं6:7 मूल में अशुद्ध आत्मा पर अधिकार देते हुए उन्हें दो-दो करके भेज दिया.

8मसीह येशु ने उन्हें आदेश दिए, “इस यात्रा में छड़ी के अतिरिक्त अपने साथ कुछ न ले जाना—न भोजन, न झोली और न पैसा. 9हां, चप्पल तो पहन सकते हो किंतु अतिरिक्त बाहरी वस्त्र नहीं.” 10आगे उन्होंने कहा, “जिस घर में भी तुम ठहरो उस नगर से विदा होने तक वहीं रहना. 11जहां कहीं तुम्हें स्वीकार न किया जाए या तुम्हारा प्रवचन न सुना जाए, वह स्थान छोड़ते हुए अपने पैरों की धूल वहीं झाड़ देना कि यह उनके विरुद्ध प्रमाण हो.”

12शिष्यों ने प्रस्थान किया. वे यह प्रचार करने लगे कि पश्चाताप सभी के लिए ज़रूरी है. 13उन्होंने अनेक दुष्टात्माएं निकाली तथा अनेक रोगियों को तेल मलकर उन्हें स्वस्थ किया.

मसीह येशु और हेरोदेस

14राजा हेरोदेस तक इसका समाचार पहुंच गया क्योंकि मसीह येशु की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी. कुछ तो यहां तक कह रहे थे, “बपतिस्मा देनेवाले योहन मरे हुओं में से जीवित हो गए हैं. यही कारण है कि मसीह येशु में यह अद्भुत सामर्थ्य प्रकट है.”

15कुछ कह रहे थे, “वह एलियाह हैं.”

कुछ यह भी कहते सुने गए, “वह एक भविष्यवक्ता हैं—अतीत में हुए भविष्यद्वक्ताओं के समान.”

16यह सब सुनकर हेरोदेस कहता रहा, “योहन, जिसका मैंने वध करवाया था, जीवित हो गया है.”

17स्वयं हेरोदेस ने योहन को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया था क्योंकि उसने अपने भाई फ़िलिप्पॉस की पत्नी हेरोदिअस से विवाह कर लिया था. 18योहन हेरोदेस को याद दिलाते रहते थे, “तुम्हारे लिए अपने भाई की पत्नी को रख लेना व्यवस्था के अनुसार नहीं है.” इसलिये 19हेरोदियास के मन में योहन के लिए शत्रुभाव पनप रहा था. वह उनका वध करवाना चाहती थी किंतु उससे कुछ नहीं हो पा रहा था. 20हेरोदेस योहन से डरता था क्योंकि वह जानता था कि योहन एक धर्मी और पवित्र व्यक्ति हैं. हेरोदेस ने योहन को सुरक्षित रखा था. योहन के प्रवचन सुनकर वह घबराता तो था फिर भी उसे उनके प्रवचन सुनना बहुत प्रिय था.

21आखिरकार हेरोदिअस को वह मौका प्राप्‍त हो ही गया: अपने जन्मदिवस के उपलक्ष्य में हेरोदेस ने अपने सभी उच्च अधिकारियों, सेनापतियों और गलील प्रदेश के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को भोज पर आमंत्रित किया. 22इस अवसर पर हेरोदिअस की पुत्री ने वहां अपने नृत्य के द्वारा हेरोदेस और अतिथियों को मोह लिया. राजा ने पुत्री से कहा.

“मुझसे चाहे जो मांग लो, मैं दूंगा.” 23राजा ने शपथ खाते हुए कहा, “तुम जो कुछ मांगोगी, मैं तुम्हें दूंगा—चाहे वह मेरा आधा राज्य ही क्यों न हो.”

24अपनी मां के पास जाकर उसने पूछा, “क्या मांगूं?”

“बपतिस्मा देनेवाले योहन का सिर,” उसने कहा.

25पुत्री ने तुरंत जाकर राजा से कहा, “मैं चाहती हूं कि आप मुझे इसी समय एक थाल में बपतिस्मा देनेवाले योहन का सिर लाकर दें.”

26हालांकि राजा को इससे गहरा दुःख तो हुआ किंतु आमंत्रित अतिथियों के सामने ली गई अपनी शपथ के कारण वह अस्वीकार न कर सका. 27तत्काल राजा ने एक जल्लाद को बुलवाया और योहन का सिर ले आने की आज्ञा दी. वह गया, कारागार में योहन का वध किया 28और उनका सिर एक बर्तन में रखकर पुत्री को सौंप दिया और उसने जाकर अपनी माता को सौंप दिया. 29जब योहन के शिष्यों को इसका समाचार प्राप्‍त हुआ, वे आए और योहन के शव को ले जाकर एक कब्र में रख दिया.

पांच हज़ार को भोजन

30प्रेरित लौटकर मसीह येशु के पास आए और उन्हें अपने द्वारा किए गए कामों और दी गई शिक्षा का विवरण दिया. 31मसीह येशु ने उनसे कहा, “आओ, कुछ समय के लिए कहीं एकांत में चलें और विश्राम करें,” क्योंकि अनेक लोग आ जा रहे थे और उन्हें भोजन तक का अवसर प्राप्‍त न हो सका था.

32वे चुपचाप नाव पर सवार हो एक सुनसान जगह पर चले गए. 33लोगों ने उन्हें वहां जाते हुए देख लिया. अनेकों ने यह भी पहचान लिया कि वे कौन थे. आस-पास के नगरों से अनेक लोग दौड़ते हुए उनसे पहले ही उस स्थान पर जा पहुंचे. 34जब मसीह येशु तट पर पहुंचे, उन्होंने वहां एक बड़ी भीड़ को इकट्ठा देखा. उसे देख वह दुःखी हो उठे क्योंकि उन्हें भीड़ बिना चरवाहे की भेड़ों के समान लगी. वहां मसीह येशु उन्हें अनेक विषयों पर शिक्षा देने लगे.

35दिन ढल रहा था. शिष्यों ने मसीह येशु के पास आकर उनसे कहा, “यह सुनसान जगह है और दिन ढला जा रहा है. 36अब आप इन्हें विदा कर दीजिए कि ये पास के गांवों में जाकर अपने लिए भोजन-व्यवस्था कर सकें.”

37किंतु मसीह येशु ने उन्हीं से कहा, “तुम ही दो इन्हें भोजन!”

शिष्यों ने इसके उत्तर में कहा, “इतनों के भोजन में कम से कम दो सौ दीनार लगेंगे. क्या आप चाहते हैं कि हम जाकर इनके लिए इतने का भोजन ले आएं?”

38मसीह येशु ने उनसे पूछा, “कितनी रोटियां हैं यहां? जाओ, पता लगाओ!”

उन्होंने पता लगाकर उत्तर दिया, “पांच—और इनके अलावा दो मछलियां भी.”

39मसीह येशु ने सभी लोगों को झुंड़ों में हरी घास पर बैठ जाने की आज्ञा दी. 40वे सभी सौ-सौ और पचास-पचास के झुंडों में बैठ गए. 41मसीह येशु ने वे पांच रोटियां और दो मछलियां लेकर स्वर्ग की ओर आंखें उठाकर उनके लिए धन्यवाद प्रकट किया. तब वह रोटियां तोड़ते और शिष्यों को देते गए कि वे उन्हें भीड़ में बांटते जाएं. इसके साथ उन्होंने वे दो मछलियां भी उनमें बांट दीं. 42सभी ने भरपेट खाया. 43शिष्यों ने शेष रह गए रोटियों तथा मछलियों के टुकड़े इकट्ठा किए तो बारह टोकरे भर गए. 44जिन्होंने भोजन किया था, उनमें पुरुष ही पांच हज़ार थे.

मसीह येशु का पानी के ऊपर चलना

45तुरंत ही मसीह येशु ने शिष्यों को जबरन नाव पर बैठा उन्हें अपने से पहले दूसरे किनारे पर स्थित नगर बैथसैदा पहुंचने के लिए विदा किया—वह स्वयं भीड़ को विदा कर रहे थे. 46उन्हें विदा करने के बाद वह प्रार्थना के लिए पर्वत पर चले गए.

47रात हो चुकी थी. नाव झील के मध्य में थी. मसीह येशु किनारे पर अकेले थे. 48मसीह येशु देख रहे थे कि हवा उल्टी दिशा में चलने के कारण शिष्यों को नाव खेने में कठिन प्रयास करना पड़ रहा था. रात के चौथे प्रहर6:48 चौथे प्रहर करीब रात 3 बजे मसीह येशु झील की सतह पर चलते हुए उनके पास जा पहुंचे और ऐसा अहसास हुआ कि वह उनसे आगे निकलना चाह रहे थे. 49उन्हें जल सतह पर चलता देख शिष्य समझे कि कोई दुष्टात्मा है और वे चिल्ला उठे 50क्योंकि उन्हें देख वे भयभीत हो गए थे.

इस पर मसीह येशु ने कहा, “मैं हूं! मत डरो! साहस मत छोड़ो!” 51यह कहते हुए वह उनकी नाव में चढ़ गए और वायु थम गई. शिष्य इससे अत्यंत चकित रह गए. 52रोटियों की घटना अब तक उनकी समझ से परे थी. उनके हृदय निर्बुद्धि जैसे हो गए थे.

53झील पार कर वे गन्‍नेसरत प्रदेश में पहुंच गए. उन्होंने नाव वहीं लगा दी. 54मसीह येशु के नाव से उतरते ही लोगों ने उन्हें पहचान लिया. 55जहां कहीं भी मसीह येशु होते थे, लोग दौड़-दौड़ कर बिछौनों पर रोगियों को वहां ले आते थे. 56मसीह येशु जिस किसी नगर, गांव या बाहरी क्षेत्र में प्रवेश करते थे, लोग रोगियों को सार्वजनिक स्थलों में लिटा कर उनसे विनती करते थे कि उन्हें उनके वस्त्र के छोर का स्पर्श मात्र ही कर लेने दें. जो कोई उनके वस्त्र का स्पर्श कर लेता था, स्वस्थ हो जाता था.