Matthäus 15 – HOF & NCA

Hoffnung für Alle

Matthäus 15:1-39

Was ist rein – was unrein?

(Markus 7,1‒23)

1Damals kamen einige Pharisäer und Schriftgelehrte aus Jerusalem zu Jesus und fragten ihn: 2»Weshalb befolgen deine Jünger unsere überlieferten Speisevorschriften nicht? Sie waschen sich nicht einmal vor dem Essen die Hände.« 3Jesus fragte zurück: »Und weshalb brecht ihr mit euren Vorschriften die Gebote Gottes?

4Gott hat doch gesagt: ›Ehre deinen Vater und deine Mutter!‹ Und an anderer Stelle: ›Wer seinen Vater oder seine Mutter verflucht, der muss sterben.‹15,4 2. Mose 20,12; 21,17 5Ihr aber behauptet, dass man seinen hilfsbedürftigen Eltern die Unterstützung verweigern darf, wenn man das Geld stattdessen Gott gibt. 6Dann hätte man Gottes Gebot schon erfüllt und bräuchte nicht weiter für seine Eltern zu sorgen. Doch indem ihr solche Vorschriften aufstellt, setzt ihr das Gebot Gottes außer Kraft! 7Ihr Heuchler! Wie recht hat Jesaja, wenn er von euch schreibt:

8›Dieses Volk ehrt mich mit den Lippen, aber mit dem Herzen sind sie nicht dabei. 9Ihre Frömmigkeit ist wertlos, weil sie ihre menschlichen Gesetze als meine Gebote ausgegeben haben.‹15,9 Jesaja 29,13«

10Dann rief Jesus die Menschenmenge zu sich: »Hört, was ich euch sage, und begreift doch: 11Nicht was ein Mensch zu sich nimmt, macht ihn vor Gott unrein, sondern das, was er von sich gibt.«

12Da traten die Jünger an ihn heran und sagten: »Weißt du, dass du mit deinen Worten die Pharisäer verärgert hast?« 13Jesus entgegnete: »Jede Pflanze, die nicht von meinem himmlischen Vater gepflanzt worden ist, wird ausgerissen werden. 14Lasst euch nicht einschüchtern! Sie wollen Blinde führen, sind aber selbst blind. Wenn nun ein Blinder einen anderen Blinden führen will, werden beide in die Grube fallen!«

15Da sagte Petrus: »Erklär uns doch noch einmal, was einen Menschen unrein macht!« 16Jesus fragte: »Selbst ihr habt es immer noch nicht begriffen? 17Wisst ihr denn nicht, dass alles, was ein Mensch zu sich nimmt, zuerst in den Magen kommt und dann wieder ausgeschieden wird? 18Aber die bösen Worte, die ein Mensch von sich gibt, kommen aus seinem Herzen, und sie sind es, die ihn vor Gott unrein machen! 19Denn aus dem Herzen kommen böse Gedanken wie Mord15,19 Oder: kommen böse Gedanken, Mord., Ehebruch, sexuelle Unmoral, Diebstahl, Lüge15,19 Wörtlich: falsche Zeugenaussagen. und Verleumdung. 20Durch sie wird der Mensch unrein, nicht dadurch, dass man mit ungewaschenen Händen isst.«

Der unerschütterliche Glaube einer nichtjüdischen Frau

(Markus 7,24‒30)

21Danach brach Jesus auf und zog sich in das Gebiet der Städte Tyrus und Sidon zurück. 22Dort begegnete ihm eine kanaanitische Frau, die in der Nähe wohnte. Laut flehte sie ihn an: »Herr, du Sohn Davids, hab Erbarmen mit mir! Meine Tochter wird von einem bösen Geist furchtbar gequält.« 23Aber Jesus gab ihr keine Antwort. Seine Jünger drängten ihn: »Erfüll doch ihre Bitte! Sie schreit sonst dauernd hinter uns her.«

24Jesus entgegnete: »Ich habe nur den Auftrag, den Menschen aus dem Volk Israel zu helfen. Sie sind wie Schafe, die ohne ihren Hirten verloren umherirren.« 25Die Frau aber kam noch näher, warf sich vor ihm nieder und bettelte: »Herr, hilf mir!« 26Jesus antwortete wieder: »Es ist nicht richtig, den Kindern das Brot wegzunehmen und es den Hunden hinzuwerfen.« 27»Ja, Herr«, erwiderte die Frau, »und doch bekommen die Hunde die Krümel, die vom Tisch ihrer Herren herunterfallen.« 28Da sagte Jesus zu ihr: »Dein Glaube ist groß! Was du willst, soll geschehen.« Im selben Augenblick wurde ihre Tochter gesund.

Jesus heilt viele Kranke

(Markus 7,31‒37)

29Jesus kehrte an den See Genezareth zurück. Er stieg auf einen Berg und setzte sich dort hin, um zu lehren. 30Da kam eine große Menschenmenge zu Jesus. Unter ihnen waren Gelähmte, Blinde, Verkrüppelte, Stumme und viele andere Kranke. Man legte sie vor seinen Füßen nieder, und er heilte sie alle. 31Die Menschen konnten es kaum fassen, als sie sahen, dass Stumme zu reden begannen, Verkrüppelte gesund wurden, Gelähmte umhergingen und Blinde sehen konnten. Und sie lobten den Gott Israels.

Viertausend werden satt

(Markus 8,1‒10)

32Danach rief Jesus seine Jünger zu sich und sagte: »Die Leute tun mir leid. Sie sind jetzt schon drei Tage bei mir und haben nichts mehr zu essen. Ich will sie nicht hungrig wegschicken, sie würden sonst vielleicht unterwegs zusammenbrechen.« 33Darauf erwiderten die Jünger: »Woher sollen wir hier in dieser verlassenen Gegend genügend Brot bekommen, damit so viele Menschen satt werden?« 34»Wie viele Brote habt ihr denn?«, wollte Jesus wissen. Sie antworteten: »Sieben Brote und ein paar kleine Fische!« 35Da forderte Jesus die Menschen auf, sich auf den Boden zu setzen. 36Nun nahm er die sieben Brote und die Fische. Er dankte Gott für das Essen, teilte die Brote und Fische und gab sie den Jüngern, die sie an die Leute weiterreichten. 37-38Alle aßen und wurden satt; etwa viertausend Männer hatten zu essen bekommen, außerdem viele Frauen und Kinder. Anschließend sammelte man die Reste ein: Sieben große Körbe voll waren noch übrig geblieben.

39Jetzt erst verabschiedete Jesus die Leute nach Hause. Er selbst aber bestieg ein Boot und fuhr in die Gegend von Magadan15,39 Wo sich Magadan genau befand, wissen wir heute nicht mehr. Sehr wahrscheinlich handelt es sich um einen Ort, der westlich des Sees Genezareth lag und mit anderem Namen »Dalmanuta« hieß. Vgl. Markus 8,10..

New Chhattisgarhi Translation (नवां नियम छत्तीसगढ़ी)

मत्ती 15:1-39

सुध अऊ असुध

(मरकुस 7:1-13)

1तब यरूसलेम सहर ले कुछू फरीसी अऊ मूसा के कानून के गुरूमन यीसू करा आईन, 2अऊ ओकर ले पुछिन, “तोर चेलामन काबर पुरखामन के रीति-रिवाज ला नइं मानंय? खाना खाय के पहिली, ओमन अपन हांथ ला नइं धोवंय।”

3यीसू ह ओमन ला जबाब दीस, “अऊ तुमन अपन रीति-रिवाज के हित म परमेसर के हुकूम ला काबर नइं मानव? 4काबरकि परमेसर ह हुकूम दे हवय, ‘अपन दाई अऊ ददा के आदरमान करव, अऊ जऊन ह अपन दाई या ददा के बुरई करथे, ओह मार डारे जावय।’ 5पर तुमन कहिथव कि यदि कोनो अपन दाई या ददा ले ए कहय, ‘जऊन मदद तुमन ला मोर कोति ले हो सकत रिहिस, ओह परमेसर ला भेंट के रूप म चघाय गे हवय।’ तब ओला अपन ददा या दाई के आदरमान करे के जरूरत नइं अय। 6ए किसम ले तुमन अपन रीति-रिवाज के हित म परमेसर के बचन ला टार देथव। 7हे ढोंगी मनखेमन! यसायाह अगमजानी ह तुम्‍हर बारे म ए कहिके बिलकुल सही अगमबानी करे हवय:

8‘ए मनखेमन सिरिप अपन मुहूं ले मोर आदर करथें,

पर एमन के मन ह मोर ले दूरिहा रहिथे।

9एमन बेकार म मोर अराधना करथें;

काबरकि एमन मनखे के बनाय नियममन ला सिखोथें।’ ”

10यीसू ह मनखेमन के भीड़ ला अपन करा बलाईस अऊ कहिस, “तुमन सुनव अऊ समझव। 11जऊन चीज ह मुहूं म जाथे, ओह मनखे ला असुध नइं करय, पर जऊन ह मुहूं ले बाहिर निकरथे, ओह मनखे ला असुध करथे।”

12तब चेलामन यीसू करा आके पुछिन, “का तेंह जानथस कि तोर ए बात ले फरीसीमन ला ठेस लगे हवय?”

13यीसू ह जबाब दीस, “जऊन पौधा ला, स्‍वरग के मोर ददा ह नइं लगाय हवय, ओला उखान दिये जाही। 14ओमन ला रहन दव। ओमन ह अंधरा अगुवा अंय। यदि एक अंधरा मनखे ह दूसर अंधरा मनखे ला रसता दिखाही, त दूनों झन खंचवा म गिरहीं।”

15एला सुनके पतरस ह ओला कहिस, “ए पटं‍तर ला हमन ला समझा दे।”

16यीसू ह कहिस, “का तुमन अभी तक ले नासमझ हवव? 17का तुमन नइं जानव कि जऊन चीज ह मुहूं म जाथे, ओह पेट म ले होके पयखाना ले बाहिर निकर जाथे? 18पर जऊन चीज ह मुहूं ले निकरथे, ओह हिरदय ले आथे अऊ ओह मनखे ला असुध करथे। 19काबरकि खराप बिचार, हतिया, बेभिचार, छिनारीपन, चोरी, लबारी गवाही अऊ निन्दा – ए जम्मो बात हिरदय ले निकरथे, 20अऊ ए बातमन मनखे ला असुध करथें, पर बिगर हांथ धोवय भोजन करई, मनखे ला असुध नइं करय।”

एक कनानी (आनजात) माईलोगन के बिसवास

(मरकुस 7:24-30)

21ओ जगह ला छोंड़के, यीसू ह सूर अऊ सैदा के सीमना म चले गीस। 22ओ इलाका के एक कनानी माईलोगन ह ओकर करा आईस अऊ चिचियाके कहिस, “हे परभू, दाऊद के संतान, मोर ऊपर दया कर! मोर बेटी ला भूत धरे हवय अऊ ओला भयंकर सतावत हवय।”

23पर यीसू ह ओला कुछू जबाब नइं दीस। तब ओकर चेलामन आईन अऊ ओकर ले बिनती करिन, “ओ माईलोगन ला बिदा कर, काबरकि ओह चिचियावत हमर पाछू-पाछू आवत हवय।”

24यीसू ह कहिस, “मेंह सिरिप इसरायल के गंवाय भेड़मन करा पठोय गे हवंव।”

25तब ओ माईलोगन ह आईस अऊ यीसू के आघू म माड़ी टेकके कहिस, “हे परभू, मोर मदद कर।”

26यीसू ह जबाब दीस, “लइकामन के रोटी ला लेके कुकुरमन ला देवई ठीक नो हय।” 27ओह कहिस, “हव परभू, पर कुकुरमन घलो ओमन के मालिक के मेज ले गिरे चूर-चार ला खाथें।”

28तब यीसू ह ओला कहिस, “हे माईलोगन, तोर बिसवास ह बहुंत बड़े अय। जइसने तेंह चाहथस, वइसनेच तोर बर होवय।” अऊ ओकर बेटी ह ओहीच बखत चंगा हो गीस।

यीसू ह चार हजार मनखेमन ला खाना खवाथे

(मरकुस 8:1-10)

29यीसू ह ओ जगह ला छोंड़ दीस अऊ गलील के झील के तीरे-तीर गीस। तब ओह पहाड़ी ऊपर चघिस अऊ उहां बईठ गीस। 30भीड़ के भीड़ मनखेमन ओकर करा आईन अऊ ओमन खोरवा, अंधरा, लूलवा, कोंदा अऊ बहुंते आने बेमरहामन ला लानके यीसू के गोड़ करा रख दीन, अऊ यीसू ह ओमन ला चंगा करिस। 31मनखेमन अब्‍बड़ अचरज करिन, जब ओमन ए देखिन कि कोंदा ह गोठियावत हवय, लूलवा ह ठीक हो गे हवय, खोरवा ह रेंगत हवय अऊ अंधरा ह देखत हवय। अऊ ओमन इसरायल के परमेसर के महिमा करिन।

32यीसू ह अपन चेलामन ला अपन करा बलाके कहिस, “मोला ए मनखेमन ऊपर तरस आथे। एमन तीन दिन ले मोर संग म हवंय, अऊ एमन करा खाय बर कुछू नइं ए। मेंह एमन ला खाली पेट बिदा करे नइं चाहथंव, नइं तो एमन रसता म गिरके बेहोस हो सकथें।”

33चेलामन ओला कहिन, “अतेक बड़े भीड़ ला खवाय बर, ए सुनसान जगह म हमन कहां ले अतेक रोटी पाबो?”

34यीसू ह ओमन ले पुछिस, “तुम्‍हर करा कतेक रोटी हवय?” ओमन कहिन, “सात, अऊ कुछू छोटे-छोटे मछरी घलो।”

35यीसू ह मनखेमन ला भुइयां म बईठे बर कहिस। 36तब ओह ओ सात ठन रोटी अऊ मछरीमन ला लीस, अऊ परमेसर ला धनबाद देके ओमन ला टोरिस अऊ अपन चेलामन ला देवत गीस अऊ चेलामन ओला मनखेमन ला बांट दीन। 37ओ जम्मो झन खाईन अऊ खाके अघा गीन। ओकर बाद चेलामन बांचे खुचे कुटका के सात ठन टुकना भरके उठाईन। 38जऊन मन उहां खाना खाईन, ओम माईलोगन अऊ लइकामन ला छोंड़के, चार हजार आदमीमन रिहिन। 39तब यीसू ह भीड़ ला बिदा करिस अऊ डोंगा म चघके ओह मगदन छेत्र म चल दीस।