Hiob 4 – HOF & HCV

Hoffnung für Alle

Hiob 4:1-21

Elifas: Kann ein Mensch gerechter sein als Gott?

1Elifas aus Teman versuchte als Erster, Hiob eine Antwort zu geben.

2»Du bist zwar aufgebracht«, sagte er,

»doch will ich versuchen, dir etwas zu sagen;

ich kann nicht länger schweigen!

3Du selbst hast zahllose Menschen gelehrt,

auf Gott zu vertrauen.

Kraftlose Hände hast du wieder gestärkt.

4War jemand mutlos und ohne Halt,

du hast ihn wieder aufgerichtet

und ihm neuen Lebensmut gegeben.

5Jetzt aber, wo du selbst an der Reihe bist,

verlierst du die Fassung.

Kaum bricht das Unglück über dich herein,

bist du entsetzt!

6Dabei hast du allen Grund zur Hoffnung!

Dein Leben war stets tadellos,

und Gott hast du von Herzen geehrt.

Sei zuversichtlich!

7Kannst du mir nur ein Beispiel nennen,

wo ein gerechter Mensch schuldlos zugrunde ging?

8Im Gegenteil – immer wieder habe ich gesehen:

Wer Unrecht sät, wird Unglück ernten!

9Denn Gott fegt Übeltäter mit seinem Atem hinweg,

mit zornigem Schnauben richtet er sie zugrunde.

10Wenn sie auch wie die Löwen brüllen,

bringt Gott sie doch zum Schweigen

und bricht ihnen die Zähne aus.

11Sie verenden wie Löwen,

die keine Beute mehr finden,

und ihre Kinder werden in alle Winde zerstreut.

12Hiob, heimlich habe ich eine Botschaft bekommen,

leise wurde sie mir zugeflüstert!

13Es geschah in jener Zeit der Nacht,

wenn man sich unruhig im Traum hin- und herwälzt,

wenn tiefer Schlaf die Menschen überfällt:

14Da packten mich Grauen und Entsetzen;

ich zitterte am ganzen Leib.

15Ein Windhauch wehte dicht an mir vorüber –

die Haare standen mir zu Berge!

16Dann sah ich jemanden neben mir,

aber ich konnte ihn nicht erkennen,

nur ein Schatten war zu sehen; er flüsterte:

17›Kann denn ein Mensch gerecht sein vor Gott,

vollkommen vor seinem Schöpfer?‹

18Selbst seinen Dienern im Himmel vertraut Gott nicht,

und an seinen Engeln findet er Fehler.

19Wie viel weniger vertraut er dann den Menschen!

Sie hausen in Lehmhütten,

die im Staub auf der Erde stehen,

und werden wie eine Motte zertreten.

20Mitten aus dem Leben werden sie gerissen,

unwiederbringlich, und keiner beachtet es!

21Ja, Gott bricht ihre Zelte ab;

sie sterben plötzlich

und sind kein bisschen weise geworden!«

Hindi Contemporary Version

अय्योब 4:1-21

एलिफाज़ की पहली प्रतिक्रिया

1तब तेमानवासी एलिफाज़ ने उत्तर दिया:

2“अय्योब, यदि मैं तुमसे कुछ कहने का ढाढस करूं, क्या तुम चिढ़ जाओगे?

किंतु कुछ न कहना भी असंभव हो रहा है.

3यह सत्य है कि तुमने अनेकों को चेताया है,

तुमने अनेकों को प्रोत्साहित किया है.

4तुम्हारे शब्दों से अनेकों के लड़खड़ाते पैर स्थिर हुए हैं;

तुमसे ही निर्बल घुटनों में बल-संचार हुआ है.

5अब तुम स्वयं उसी स्थिति का सामना कर रहे हो तथा तुम अधीर हो रहे हो;

उसने तुम्हें स्पर्श किया है और तुम निराशा में डूबे हुए हो!

6क्या तुम्हारे बल का आधार परमेश्वर के प्रति तुम्हारी श्रद्धा नहीं है?

क्या तुम्हारी आशा का आधार तुम्हारा आचरण खरा होना नहीं?

7“अब यह सत्य याद न होने देना कि क्या कभी कोई अपने निर्दोष होने के कारण नष्ट हुआ?

अथवा कहां सज्जन को नष्ट किया गया है?

8अपने अनुभव के आधार पर मैं कहूंगा, जो पाप में हल चलाते हैं

तथा जो संकट बोते हैं, वे उसी की उपज एकत्र करते हैं.

9परमेश्वर के श्वास मात्र से वे नष्ट हो जाते हैं;

उनके कोप के विस्फोट से वे नष्ट हो जाते हैं,

10सिंह की दहाड़, हिंसक सिंह की गरज,

बलिष्ठ सिंहों के दांत टूट जाते हैं.

11भोजन के अभाव में सिंह नष्ट हो रहे हैं,

सिंहनी के बच्‍चे इधर-उधर जा चुके हैं.

12“एक संदेश छिपते-छिपाते मुझे दिया गया,

मेरे कानों ने वह शांत ध्वनि सुन ली.

13रात्रि में सपनों में विचारों के मध्य के दृश्यों से,

जब मनुष्य घोर निद्रा में पड़े हुए होते हैं,

14मैं भय से भयभीत हो गया, मुझ पर कंपकंपी छा गई,

वस्तुतः मेरी समस्त हड्डियां हिल रही थीं.

15उसी अवसर पर मेरे चेहरे के सामने से एक आत्मा निकलकर चली गई,

मेरे रोम खड़े हो गए.

16मैं स्तब्ध खड़ा रह गया.

उसके रूप को समझना मेरे लिए संभव न था.

एक रूप को मेरे नेत्र अवश्य देख रहे थे.

वातावरण में पूर्णतः सन्‍नाटा था, तब मैंने एक स्वर सुना

17‘क्या मानव जाति परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी हो सकती है?

क्या रचयिता की परख में मानव पवित्र हो सकता है?

18परमेश्वर ने अपने सेवकों पर भरोसा नहीं रखा है,

अपने स्वर्गदूतों पर वे दोष आरोपित करते हैं.

19तब उन पर जो मिट्टी के घरों में निवास करते,

जिनकी नींव ही धूल में रखी हुई है,

जिन्हें पतंगे-समान कुचलना कितना अधिक संभव है!

20प्रातःकाल से लेकर संध्याकाल तक उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता है;

उन्हें सदा-सर्वदा के लिए विनष्ट कर दिया जाता है, किसी का ध्यान उन पर नहीं जाता.

21क्या यह सत्य नहीं कि उनके तंबुओं की रस्सियां उनके भीतर ही खोल दी जाती हैं?

तथा बुद्धिहीनों की मृत्यु हो जाती है?’ ”