1. Könige 3 – HOF & HCV

Hoffnung für Alle

1. Könige 3:1-28

Salomo bittet um Weisheit

(2. Chronik 1,1‒13)

1Salomo heiratete die Tochter des Pharaos und wurde der Schwiegersohn des ägyptischen Königs. Seine junge Frau wohnte in Jerusalem zunächst in dem Stadtteil, den David erobert und aufgebaut hatte. Der neue Palast, den Salomo errichten ließ, war noch im Bau, ebenso der Tempel und die Stadtmauer.

2Damals gab es noch keinen Tempel für den Herrn, und so brachten die Israeliten ihre Opfer an verschiedenen Opferstätten auf den Bergen und Hügeln dar. 3Salomo liebte den Herrn und lebte genau nach den Anweisungen seines Vaters David. Doch auch er opferte an solchen Orten. Er schlachtete Tiere und verbrannte Weihrauch.

4Einmal ging er nach Gibeon und brachte tausend Brandopfer dar, denn dort befand sich damals die wichtigste Opferstätte. 5Über Nacht blieb er in Gibeon. Da erschien ihm der Herr im Traum. »Erbitte von mir, was du willst!«, sagte Gott zu ihm.

6Salomo antwortete: »Schon meinem Vater David hast du sehr viel Gutes getan, weil er sein Leben ohne Vorbehalte in Verantwortung vor dir geführt hat und dir von ganzem Herzen treu gewesen ist. Sogar über seinen Tod hinaus hast du ihm deine Güte erwiesen, denn du hast einem seiner Söhne den Thron gegeben. 7Herr, mein Gott, du selbst hast mich zum Nachfolger meines Vaters David gemacht. Ich aber bin noch jung und unerfahren. Ich weiß nicht, wie ich diese große Aufgabe bewältigen soll. 8Hier stehe ich mitten in einem Volk, das du, Herr, als dein Volk erwählt hast. Es ist so groß, dass man es weder zählen noch schätzen kann. 9Darum bitte ich dich: Gib mir ein Herz, das auf dich hört, damit ich dein Volk richtig führen und zwischen Recht und Unrecht unterscheiden kann. Denn wie könnte ich sonst ein so riesiges Volk gerecht regieren?«

10Es gefiel dem Herrn, dass Salomo gerade eine solche Bitte ausgesprochen hatte. 11Darum antwortete Gott: »Ich freue mich, dass du dir nicht ein langes Leben gewünscht hast, auch nicht Reichtum oder den Tod deiner Feinde. Du hast mich um Weisheit gebeten, weil du ein guter Richter sein willst. 12Du sollst bekommen, was du dir wünschst! Ja, ich will dich so weise und einsichtsvoll machen, wie es vor dir noch niemand war und auch nach dir niemand mehr sein wird. 13Aber ich will dir auch das geben, worum du nicht gebeten hast: Reichtum und Macht. Solange du lebst, soll kein König so groß sein wie du. 14Wenn du so lebst, wie es mir gefällt, wenn du mir gehorchst und meine Gebote befolgst wie dein Vater David, dann werde ich dir auch ein langes Leben schenken.«

15Da erwachte Salomo und merkte, dass er geträumt hatte. Am nächsten Morgen ging er nach Jerusalem zurück. Dort trat er vor die Bundeslade des Herrn und brachte Brand- und Friedensopfer dar. Danach lud er seinen ganzen Hofstaat zu einem Festessen ein.

Das weise Urteil Salomos

16Eines Tages kamen zwei Prostituierte zum König. 17»Mein Herr«, begann die eine, »wir beide wohnen zusammen im selben Haus. Vor einiger Zeit habe ich in diesem Haus ein Kind bekommen. 18Nur zwei Tage nach mir bekam auch diese Frau ein Kind. In dieser Zeit waren wir ganz allein im Haus, niemand war bei uns. 19Eines Nachts legte sie sich versehentlich im Schlaf auf ihren Jungen und erdrückte ihn. 20Als sie es merkte, stand sie mitten in der Nacht auf und nahm mir meinen Sohn aus den Armen, während ich fest schlief. Mir legte sie den toten Jungen in die Arme und nahm mein Kind zu sich. 21Als ich morgens aufwachte und meinen Sohn stillen wollte, merkte ich, dass er tot war. Sobald es hell wurde, sah ich ihn mir genauer an. Und was entdeckte ich? Es war gar nicht der Junge, den ich geboren hatte!«

22»Nein«, unterbrach die andere Frau, »das stimmt nicht! Mein Sohn lebt, und deiner ist tot.« »Falsch«, schrie die erste sie an, »ich sage die Wahrheit: Dein Sohn ist tot, und meiner lebt!« So zankten sie vor dem König.

23Da sagte Salomo: »Ihr streitet euch also darum, wem das lebende Kind gehört. Beide sagt ihr: ›Der Junge, der lebt, gehört mir, der tote ist deiner.‹« 24Dann befahl er: »Bringt mir ein Schwert!« Als man die Waffe gebracht hatte, 25gab Salomo den Befehl: »Teilt das lebendige Kind in zwei gleiche Teile und gebt dann jeder der beiden Frauen eine Hälfte!« 26Als die wirkliche Mutter des Jungen das hörte, brach es ihr schier das Herz, und sie bat den König: »Bitte, Herr, tötet das Kind nicht, ich flehe Euch an! Lieber soll sie es bekommen!« Die andere aber sagte: »Doch, zerschneidet es nur, es soll weder mir noch dir gehören!«

27Da befahl der König: »Tötet den Säugling nicht, sondern gebt ihn der Frau, die ihn um jeden Preis am Leben erhalten will, denn sie ist die Mutter!« 28Bald wusste man in ganz Israel, wie weise König Salomo geurteilt hatte, und alle hatten große Ehrfurcht vor ihm. Denn sie merkten, dass Gott ihn ganz besonders mit Weisheit beschenkt hatte, um gerechte Urteile zu fällen.

Hindi Contemporary Version

1 राजा 3:1-28

बुद्धि के लिए शलोमोन की प्रार्थना

1शलोमोन ने मिस्र के राजा फ़रोह के साथ वैवाहिक गठबंधन बनाया. उन्होंने फ़रोह की पुत्री से विवाह कर लिया, और उसे दावीद के नगर में ले आए. उन्होंने उसे येरूशलेम में तब तक रखा, जब तक अपने भवन, याहवेह के भवन और येरूशलेम की शहरपनाह बनाने का काम पूरा न हो गया. 2लोग पूजा की जगहों पर अब भी बलि चढ़ाते थे, क्योंकि अब तक याहवेह के लिए कोई भी भवन बनाया नहीं गया था. 3शलोमोन याहवेह से प्रेम करते थे. हां, अपने पिता दावीद की विधियों का पालन भी करते थे. इसके अलावा वह पूजा की जगहों पर बलि चढ़ाते और धूप भी जलाते थे.

4एक बार राजा बलि चढ़ाने के लिए गिबयोन नगर गए. यह विशेष पूजा की जगह थी. शलोमोन हमेशा उस वेदी पर होमबलि के लिए एक हज़ार पशु चढ़ाते थे. 5गिबयोन नगर में ही याहवेह शलोमोन पर सपने में दिखे. परमेश्वर ने उनसे कहा, “मांगो, जो तुम्हारी मनोकामना है!”

6शलोमोन ने याहवेह को उत्तर दिया, “आपने अपने सेवक मेरे पिता, दावीद पर बहुत प्रेम दिखाया है, क्योंकि वह आपके सामने सच्चाई, ईमानदारी और मन की सीधाई से चलते रहे. आपने उन पर अपना अपार प्रेम इस हद्द तक बनाए रखा है कि, आज आपने उन्हें उनके सिंहासन पर बैठने के लिए एक पुत्र भी दिया है.

7“याहवेह, मेरे परमेश्वर, अब आपने अपने सेवक को मेरे पिता दावीद की जगह पर राजा बना दिया है. यह होने पर भी, सच यही है कि मैं सिर्फ एक कम उम्र का बालक ही हूं—मुझे इसकी समझ ही नहीं कि किस परिस्थिति में कैसा फैसला लेना सही होता है. 8आपका सेवक आपके द्वारा चुनी गई प्रजा के बीच है, जो इतनी विशाल है जिसकी गिनती भी नहीं की जा सकती है, जिनका हिसाब रखना मुश्किल है. 9इसलिये प्रजा का न्याय करने के लिए अपने सेवक को ऐसा मन दे दीजिए कि मैं भले-बुरे को परख सकूं, नहीं तो कौन है जो आपकी इतनी विशाल प्रजा का न्याय करके उसे चला सके?”

10शलोमोन की इस प्रार्थना ने प्रभु को प्रसन्‍न कर दिया. 11परमेश्वर ने उन्हें उत्तर दिया, “इसलिये कि तुमने न तो अपनी लंबी उम्र के लिए, न धन-दौलत के लिए और न ही अपने शत्रुओं के प्राणों की विनती की है, बल्कि तुमने प्रार्थना की है, कि तुम्हें न्याय के लिए सही विवेक मिल सके; 12देखो, मैं तुम्हारी इच्छा पूरी कर रहा हूं. देखो, मैं तुम्हें बुद्धि और विवेक से भरा मन देता हूं, ऐसा, कि न तो तुमसे पहले कोई ऐसा हुआ है, और न तुम्हारे बाद ऐसा कोई होगा. 13मैं तुम्हें वह भी दूंगा, जिसकी तुमने प्रार्थना भी नहीं की; धन-दौलत और महिमा. तुम्हारे पूरे जीवन भर में कोई भी राजा तुम्हारे सामने खड़ा न हो सकेगा. 14यदि तुम मेरे मार्ग पर चलोगे, मेरी विधियों और आज्ञाओं का पालन करते रहो, जैसा तुम्हारे पिता दावीद करते रहे, मैं तुम्हें लंबी उम्र दूंगा.” 15शलोमोन की नींद टूट गई. उन्हें लगा कि यह सिर्फ सपना ही था.

वह येरूशलेम लौट गए, और वहां प्रभु की वाचा के संदूक के सामने खड़े हो गए, और उन्होंने होमबलि और मेल बलि चढ़ाई, और अपने सभी सेवकों के लिए एक भोज दिया.

शलोमोन की बुद्धि

16एक दिन शलोमोन की सभा में दो वेश्याएं आ खड़ी हुईं. 17उनमें से एक ने विनती की, “मेरे प्रभु, हम दोनों एक ही घर में रहती हैं. जब यह घर पर ही थी, मैंने एक बच्‍चे को जन्म दिया. 18बच्‍चे को जन्म देने के तीसरे दिन इस स्त्री ने भी एक बच्‍चे को जन्म दिया. हम दोनों साथ साथ ही रह रही थी. घर में हम दोनों के अलावा कोई भी दूसरा व्यक्ति न था, घर में सिर्फ हम दोनों ही थी.

19“रात में इस स्त्री के पुत्र की मृत्यु हो गई, क्योंकि बच्चा इसके नीचे दब गया था. 20रात के बीच में जब मैं सो रही थी, इसने उठकर मेरे पास से मेरे पुत्र को लेकर अपने पास सुला लिया, और अपने मरे हुए पुत्र को मेरे पास लिटा दिया. 21जब सुबह उठकर मैंने अपने पुत्र को दूध पिलाना चाहा, तो मैंने पाया कि वह मरा हुआ था! मगर जब मैंने सुबह उसे ध्यान से देखा तो, यह मुझे साफ़ मालूम हुआ कि वह मेरा पुत्र था ही नहीं, जिसे मैंने जन्म दिया था.”

22इस पर दूसरी स्त्री बोल उठी, “नहीं! यह ज़िंदा बच्चा ही मेरा पुत्र है. तुम्हारा पुत्र यह मरा हुआ बच्चा है.”

मगर पहली स्त्री ने कहा, “नहीं! मरा हुआ बच्चा तुम्हारा ही पुत्र है, ज़िंदा बच्चा मेरा पुत्र है.” यह सब राजा के सामने हो रहा था.

23तब राजा ने कहा, “एक कहती है, ‘जो ज़िंदा है, वह मेरा पुत्र है, जो मरा है वह तुम्हारा पुत्र है’ और दूसरी स्त्री दावा कर रही है, ‘नहीं! मरा हुआ पुत्र तुम्हारा है, ज़िंदा मेरा.’ ”

24राजा ने आदेश दिया, “मेरे लिए एक तलवार लेकर आओ.” सो राजा के लिए एक तलवार लाई गई. 25राजा ने उन्हें आदेश दिया, “जीवित बच्‍चे को दो भागों में काट दिया जाए और दोनों स्त्रियों को आधा-आधा भाग दे दिया जाए.”

26तब वह स्त्री, जिसका बच्चा वास्तव में ज़िंदा था, राजा से विनती करने लगी, क्योंकि वह अपने पुत्र के विषय में बहुत ही दुःखी हो गई थी, “मेरे प्रभु, दे दीजिए यह ज़िंदा बच्चा इसे, इसकी हत्या बिलकुल न कीजिए.”

मगर दूसरी स्त्री ने कहा, “न बच्चा तुम्हारा होगा न मेरा; कर दो इसे दो भागों में आधा!”

27यह सुनते ही राजा ने आदेश दिया, “इस बच्‍चे की हत्या बिलकुल न की जाए. ज़िंदा बच्चा इस पहली स्त्री को दे दो. इस बच्‍चे की माता यही है.”

28तब सारे इस्राएल ने इस निर्णय के बारे में सुना कि राजा ने कैसा निर्णय दिया है, सबके मन में राजा का भय छा गया. क्योंकि वे यह साफ़ देख रहे थे कि न्याय करने के लिए राजा में परमेश्वर की बुद्धि थी.