1 शमुएल 1 – HCV & NAV

Hindi Contemporary Version

1 शमुएल 1:1-28

शमुएल का जन्म तथा समर्पण

1एफ्राईम के पहाड़ी प्रदेश में रमाथाइम-ज़ोफ़िम नगर में एलकाना नामक एक व्यक्ति था. वह एफ्राईमवासी येरोहाम के पुत्र था और येरोहाम एलिहू के, एलिहू तोहू के तथा तोहू एफ्राईमवासी सूफ़ के पुत्र था. 2एलकाना की दो पत्नियां थी; पहली का नाम था हन्‍नाह और दूसरी का पेनिन्‍नाह. स्थिति यह थी कि पेनिन्‍नाह के तो बच्‍चे थे, मगर हन्‍नाह बांझ थी.

3यह व्यक्ति हर साल अपने नगर से सर्वशक्तिमान याहवेह की वंदना करने तथा उन्हें बलि चढ़ाने शीलो नगर जाया करता था. यहीं एली के दो पुत्र, होफ़नी तथा फिनिहास याहवेह के पुरोहितों के रूप में सेवा करते थे. 4जब कभी एलकाना बलि चढ़ाता था, वह बलि में से कुछ भाग अपनी पत्नी पेनिन्‍नाह तथा उसकी संतान को दे दिया करता था. 5मगर वह अपनी पत्नी हन्‍नाह को इसका दो गुणा भाग देता था, क्योंकि उन्हें हन्‍नाह ज्यादा प्रिय थी, यद्यपि याहवेह ने हन्‍नाह को संतान पैदा करने की क्षमता नहीं दी थी. 6हन्‍नाह की सौत उसे कुढ़ाने के उद्देश्य से उसे सताती रहती थी. 7यह काम हर साल चलता रहता था. जब कभी हन्‍नाह याहवेह के मंदिर जाती थी, पेनिन्‍नाह उसे इस प्रकार चिढ़ाती थी, कि हन्‍नाह रोती रह जाती थी, तथा उसके लिए भोजन करना मुश्किल हो जाता था. 8यह देख उसके प्रति एलकाना ने उससे कहा, “हन्‍नाह, तुम क्यों रो रही हो? तुमने भोजन क्यों छोड़ रखा है? इतनी दुःखी क्यों हो रही हो? क्या मैं तुम्हारे लिए दस पुत्रों से बढ़कर नहीं हूं?”

9शीलो में एक मौके पर, जब वे खा-पी चुके थे, हन्‍नाह उठकर याहवेह के सामने चली गई. इस समय पुरोहित एली याहवेह के मंदिर के द्वार पर अपने आसन पर बैठे थे. 10जब हन्‍नाह याहवेह से प्रार्थना कर रही थी, वह मन में बहुत ही दुःखी थी. उसका रोना भी बहुत तेज होता जा रहा था. 11प्रार्थना करते हुए उसने यह शपथ की: “सर्वशक्तिमान याहवेह, यदि आप अपनी दासी की व्यथा पर करुणा-दृष्टि करें, मुझे स्मरण करें, तथा मेरी स्थिति को भुला न दें और अपनी दासी को पुत्र दें, तो मैं उसे आजीवन के लिए आपको समर्पित कर दूंगी. उसके केश कभी काटे न जाएंगे.”

12जब वह याहवेह से प्रार्थनारत थी, एली उसके मुख को ध्यान से देख रहे थे. 13हन्‍नाह यह प्रार्थना अपने मन में कर रही थी. यद्यपि उनके ओंठ हिल रहे थे, उसका स्वर सुनाई नहीं देता था. यह देख एली यह समझे कि हन्‍नाह नशे में है. 14तब उन्होंने हन्‍नाह से कहा, “और कब तक रहेगा तुम पर यह नशा? बस करो अब यह दाखमधु पान.”

15इस पर हन्‍नाह ने उन्हें उत्तर दिया, “मेरे प्रभु, स्थिति यह नहीं है, मैं बहुत ही गहन वेदना में हूं. न तो मैंने दाखमधु पान किया है, और न ही द्राक्षारस. मैं अपनी पूरी वेदना याहवेह के सामने उंडेल रही थी. 16अपनी सेविका को निकम्मी स्त्री न समझिए, क्योंकि यहां मैं अपनी घोर पीड़ा और संताप में यह सम्भाषण कर रही थी.”

17इस पर एली ने उससे कहा, “शांति में यहां से विदा हो. इस्राएल के परमेश्वर तुम्हारी अभिलाषित इच्छा पूरी करें.”

18हन्‍नाह ने उत्तर दिया, “आपकी सेविका पर आपका अनुग्रह बना रहे.” यह कहते हुए अपने स्थान को लौट गई और वहां उसने भोजन किया. अब उसके चेहरे पर उदासी नहीं देखी गई.

19प्रातः उन्होंने जल्दी उठकर याहवेह की आराधना की और वे अपने घर रामाह लौट गए. एलकाना तथा हन्‍नाह के संसर्ग होने पर याहवेह ने उसे याद किया. 20सही समय पर हन्‍नाह ने गर्भधारण किया और एक पुत्र को जन्म दिया. उसने यह याद करते हुए शमुएल1:20 शमुएल अर्थ परमेश्वर ने सुना नाम दिया, “मैंने याहवेह से इसकी याचना की थी.”

हन्‍नाह ने शमुएल को याहवेह को समर्पित किया

21एलकाना सपरिवार याहवेह को अपनी वार्षिक बलि चढ़ाने और शपथ पूरी करने चला गया, 22मगर हन्‍नाह उसके साथ नहीं गई. उसने अपने पति से कहा, “जैसे ही शिशु दूध पीना छोड़ देगा, मैं उसे ले जाकर याहवेह के सामने प्रस्तुत करूंगी और फिर वह तब से हमेशा वहीं रहेगा.”

23उसके पति एलकाना ने उससे कहा, “तुम्हें जो कुछ सही लगे वही करो. शिशु के दूध छोड़ने तक तुम यहीं ठहरी रहो. याहवेह अपने वचन को पूरा करें.” तब हन्‍नाह घर पर ही ठहरी रहीं और बालक का दूध छुड़ाने तक उसका पालन पोषण करती रहीं.

24जब बालक ने दूध पीना छोड़ दिया, और बालक आयु में कम ही था, हन्‍नाह उसे और उसके साथ तीन बछड़े दस किलो आटा तथा एक कुप्पी भर अंगूर का रस लेकर शीलो नगर में याहवेह के मंदिर को गई. 25जब वे बछड़ों की बलि चढ़ा चुके, वह बालक को एली के पास ले गई. 26हन्‍नाह ने एली से कहा, “मेरे स्वामी, आपके जीवन की शपथ, मैं वही स्त्री हूं, जो आपकी उपस्थिति में एक दिन याहवेह से प्रार्थना कर रही थी. 27मैंने इस पुत्र की प्राप्‍ति की प्रार्थना की थी, और याहवेह ने मेरी विनती स्वीकार की है. 28अब मैं यह बालक याहवेह को ही समर्पित कर रही हूं. आज से यह बालक आजीवन याहवेह के लिए समर्पित है.” फिर उन सभी ने वहां याहवेह की स्तुति की.

Ketab El Hayat

صموئيل الأول 1:1-28

مولد صموئيل

1كَانَ رَجُلٌ أَفْرَايِمِيٌّ اسْمُهُ أَلْقَانَةُ بْنُ يَرُوحَامَ بْنِ أَلِيهُوَ بْنِ تُوحُوَ بْنِ صُوفٍ، يُقِيمُ فِي رَامَتَايِمَ صُوفيِمَ مِنْ جَبَلِ أَفْرَايِمَ. 2وَكَانَ مُتَزَوِّجاً مِنِ امْرَأَتَيْنِ هُمَا حَنَّةُ وَفَنِنَّةُ. وَكَانَ لِفَنِنَّةَ أَوْلادٌ؛ أَمَّا حَنَّةُ فَكَانَتْ عَاقِراً. 3وَكَانَ مِنْ عَادَةِ أَلْقَانَةَ أَنْ يَذْهَبَ مِنْ مَدِينَتِهِ مَعَ عَائِلَتِهِ فِي كُلِّ عَامٍ ليَسْجُدَ وَيُقَدِّمَ ذَبَائِحَ لِلرَّبِّ الْقَدِيرِ فِي شِيلُوهَ، وَكَانَ حُفْنِي وَفِينْحَاسُ ابْنَا عَالِي كَاهِنَيْنِ لِلرَّبِّ فِي ذَلِكَ الْوَقْتِ. 4وَحِينَ يَأْتِي وَقْتُ تَقْدِيمِ الذَّبِيحَةِ كَانَ أَلْقَانَةُ يُعْطِي فَنِنَّةَ امْرَأَتَهُ وَجَمِيعَ أَبْنَائِهَا وَبَنَاتِهَا نَصِيباً وَاحِداً لِكُلٍّ مِنْهُمْ. 5أَمَّا حَنَّةُ فَكَانَ يُعْطِيهَا نَصِيبَ اثْنَيْنِ لأَنَّهُ كَانَ يُحِبُّهَا. غَيْرَ أَنَّ الرَّبَّ جَعَلَهَا عَاقِراً. 6فَكَانَتْ ضَرَّتُهَا، حُبّاً فِي إِغَاظَتِهَا، تُعَيِّرُهَا لأَنَّ الرَّبَّ جَعَلَهَا عَاقِراً. 7وَثَابَرَتْ عَلَى إِثَارَةِ غَيْظِهَا سَنَةً بَعْدَ سَنَةٍ كُلَّمَا ذَهَبَتْ إِلَى بَيْتِ الرَّبِّ. فَبَكَتْ حَنَّةُ وَامْتَنَعَتْ عَنِ الأَكْلِ. 8فَسَأَلَهَا أَلْقَانَةُ زَوْجُهَا: «يَا حَنَّةُ، لِمَاذَا تَبْكِينَ؟ وَلِمَاذَا تَمْتَنِعِينَ عَنِ الأَكْلِ؟ وَلِمَاذَا يَكْتَئِبُ قَلْبُكِ؟ أَلَسْتُ أَنَا خَيْراً لَكِ مِنْ عَشَرَةِ بَنِينَ؟».

9وَذَاتَ مَرَّةٍ بَعْدَ أَنْ فَرَغُوا مِنْ تَنَاوُلِ الطَّعَامِ فِي شِيلُوهَ، وَفِيمَا كَانَ عَالِي الْكَاهِنُ جَالِساً عَلَى الْكُرْسِيِّ عِنْدَ قَائِمَةِ خَيْمَةِ الرَّبِّ، قَامَتْ حَنَّةُ 10بِنَفْسٍ مُرَّةٍ وَصَلَّتْ إِلَى الرَّبِّ وَبَكَتْ بِحُرْقَةٍ، 11وَنَذَرَتْ نَذْراً لِلرَّبِّ قَائِلَةً: «يَا رَبَّ الْجُنُودِ، إِنْ عَطَفْتَ عَلَى مَذَلَّةِ أَمَتِكَ، وَذَكَرْتَنِي وَلَمْ تَنْسَنِي، بَلْ وَهَبْتَ أَمَتَكَ ذُرِّيَّةً، فَإِنَّنِي أُعْطِيهِ لِلرَّبِّ كُلَّ أَيَّامِ حَيَاتِهِ، وَلَنْ أَحْلِقَ رَأْسَهُ».

12وَأَطَالَتْ حَنَّةُ صَلاتَهَا أَمَامَ الرَّبِّ بَيْنَمَا كَانَ عَالِي يُرَاقِبُ حَرَكَةَ شَفَتَيْهَا. 13فَإِنَّ حَنَّةَ كَانَتْ تُصَلِّي فِي قَلْبِهَا وَلا يَتَحَرَّكُ مِنْهَا سِوَى شَفَتَيْهَا، مِنْ غَيْرِ أَنْ يَصْدُرَ عَنْهُمَا صَوْتٌ، فَظَنَّ عَالِي أَنَّهَا سَكْرَى. 14فَقَالَ لَهَا عَالِي: «إِلَى مَتَى تَظَلِّينَ سَكْرَى؟ كُفِّي عَنْ شُرْبِ الْخَمْرِ» 15فَأَجَابَتْهُ: «لا يَا سَيِّدِي: إِنَّنِي امْرَأَةٌ حَزِينَةُ الرُّوحِ، لَمْ أَشْرَبْ خَمْراً وَلا مُسْكِراً، بَلْ أَسْكُبُ نَفْسِي أَمَامَ الرَّبِّ. 16لَا تَظُنَّ أَمَتَكَ ابْنَةَ بَلِيَّعَالَ، فَإِنَّنِي مِنْ فَرْطِ كُرْبَتِي وَغَيْظِي قَدْ أَطَلْتُ صَلاتِي إِلَى الآنَ». 17فَقَالَ لَهَا عَالِي: «اذْهَبِي بِسَلامٍ، وَلْيُعْطِكِ إِلَهُ إِسْرَائِيلَ مَا طَلَبْتِهِ مِنْ لَدُنْهِ». 18فَقَالَتْ: «لَيْتَ أَمَتَكَ تَحْظَى بِرِضَاكَ». ثُمَّ انْصَرَفَتْ فِي سَبِيلِهَا وَأَكَلَتْ، وَلَمْ تَعُدْ أَمَارَاتُ الْحُزْنِ تَكْسُو وَجْهَهَا.

19وَفِي الصَّبَاحِ التَّالِي بَكَّرُوا بِالنُّهُوضِ وَسَجَدُوا أَمَامَ الرَّبِّ، ثُمَّ عَادُوا إِلَى بَيْتِهِمْ فِي الرَّامَةِ. وَعَاشَرَ أَلْقَانَةُ زَوْجَتَهُ حَنَّةَ، وَاسْتَجَابَ الرَّبُّ دُعَاءَهَا. 20وَفِي غُضُونِ سَنَةٍ حَبِلَتْ حَنَّةُ وَأَنْجَبَتِ ابْناً دَعَتْهُ صَمُوئِيلَ قَائِلَةً: «لأَنِّي سَأَلْتُهُ مِنَ الرَّبِّ».

حنة تكرس صموئيل

21وَفِي مَوْعِدِ الذَّبِيحَةِ السَّنَوِيَّةِ مِنَ الْعَامِ التَّالِي، ذَهَبَ أَلْقَانَةُ وَأُسْرَتُهُ لِلْعِبَادَةِ. 22غَيْرَ أَنَّ حَنَّةَ تَخَلَّفَتْ عَنْهُمْ قَائِلَةً لِزَوْجِهَا: «سَأَنْتَظِرُ حَتَّى أَفْطِمَ الصَّبِيَّ، ثُمَّ آخُذُهُ لِيَمْثُلَ أَمَامَ الرَّبِّ، وَأَتْرُكُهُ هُنَاكَ إِلَى الأَبَدِ». 23فَأَجَابَهَا أَلْقَانَةُ: «افْعَلِي مَا يَحْلُو لَكِ، وَامْكُثِي حَتَّى تَفْطِمِيهِ، وَيَكْفِينَا أَنَّ الرَّبَّ يَفِي بِمَا وَعَدَ بِهِ». فَمَكَثَتْ حَنَّةُ فِي بَيْتِهَا تُرْضِعُ ابْنَهَا إِلَى أَنْ فَطَمَتْهُ.

24ثُمَّ انْطَلَقَتْ بِالصَّبِيِّ، عَلَى الرَّغْمِ مِنْ صِغَرِ سِنِّهِ، إِلَى الرَّبِّ فِي شِيلُوهَ، وَمَعَهَا ثَلاثَةُ ثِيرَانٍ وَإِيفَةُ دَقِيقٍ (نَحْوَ أَرْبَعَةٍ وَعِشْرِينَ لِتْراً) وَزِقُّ خَمْرٍ. 25وَبَعْدَ أَنْ ذَبَحُوا الثَّوْرَ حَمَلُوا الصَّبِيَّ إِلَى عَالِي، 26وَقَالَتْ لَهُ: «لِتَحْيَ نَفْسُكَ يَا سَيِّدِي، أَنَا الْمَرْأَةُ الَّتِي مَثَلَتْ لَدَيْكَ هُنَا تُصَلِّي إِلَى الرَّبِّ، 27مُتَضَرِّعَةً إِلَيْهِ أَنْ يُعْطِيَنِي هَذَا الصَّبِيَّ، فاسْتَجَابَ الرَّبُّ دُعَائِي الَّذِي رَفَعْتُهُ إِلَيْهِ. 28لِذَلِكَ أَنَا أَهَبُهُ لِلرَّبِّ جَمِيعَ أَيَّامِ حَيَاتِهِ». وَسَجَدُوا هُنَاكَ لِلرَّبِّ.