उत्पत्ति 27 – HCV & NASV

Hindi Contemporary Version

उत्पत्ति 27:1-46

1जब यित्सहाक वृद्ध हो गये थे और उनकी आंखें इतनी कमजोर हो गईं कि वह देख नहीं सकते थे, तब उन्होंने अपने बड़े बेटे एसाव को बुलाया और कहा, “हे मेरे पुत्र.”

उन्होंने कहा, “क्या आज्ञा है पिताजी?”

2यित्सहाक ने कहा, “मैं तो बूढ़ा हो गया हूं और नहीं जानता कि कब मर जाऊंगा. 3इसलिये अब तुम अपना हथियार—अपना तरकश और धनुष लो और खुले मैदान में जाओ और मेरे लिये कोई वन पशु शिकार करके ले आओ. 4और मेरी पसंद के अनुसार स्वादिष्ट भोजन बनाकर मेरे पास ले आना कि मैं उसे खाऊं और अपने मरने से पहले तुम्हें आशीष दूं.”

5जब यित्सहाक अपने पुत्र एसाव से बातें कर रहे थे, तब रेबेकाह उनकी बातों को सुन रही थी. जब एसाव खुले मैदान में शिकार लाने के लिए चला गया, 6तब रेबेकाह ने अपने पुत्र याकोब से कहा, “देख, मैंने तुम्हारे पिता को तुम्हारे भाई एसाव से यह कहते हुए सुना है, 7‘शिकार करके मेरे लिये स्वादिष्ट भोजन बनाकर ला कि मैं उसे खाऊं और अपने मरने से पहले याहवेह के सामने तुम्हें आशीष दूं.’ 8इसलिये, हे मेरे पुत्र, अब ध्यान से मेरी बात सुन और जो मैं कहती हूं उसे कर: 9जानवरों के झुंड में जाकर दो अच्छे छोटे बकरे ले आ, ताकि मैं तुम्हारे पिता के लिए उनके पसंद के अनुसार स्वादिष्ट भोजन बना दूं. 10तब तुम उस भोजन को अपने पिता के पास ले जाना, ताकि वह उसे खाकर अपने मरने से पहले तुम्हें अपनी आशीष दें.”

11याकोब ने अपनी माता रेबेकाह से कहा, “पर मेरे भाई के शरीर में पूरे बाल हैं, लेकिन मेरी त्वचा चिकनी है. 12यदि मेरे पिता मुझे छुएंगे तब क्या होगा? मैं तो धोखा देनेवाला ठहरूंगा और आशीष के बदले अपने ऊपर शाप लाऊंगा.”

13तब उसकी मां ने कहा, “मेरे पुत्र, तुम्हारा शाप मुझ पर आ जाए. मैं जैसा कहती हूं तू वैसा ही कर; जा और उनको मेरे लिये ले आ.”

14इसलिये याकोब जाकर उनको लाया और अपनी मां को दे दिया, और उसने याकोब के पिता की पसंद के अनुसार स्वादिष्ट भोजन तैयार किया. 15तब रेबेकाह ने अपने बड़े बेटे एसाव के सबसे अच्छे कपड़े घर से लाकर अपने छोटे बेटे याकोब को पहना दिए. 16उसने बकरी के खालों से उसके चिकने भाग और गले और गले के चिकने भाग को भी ढंक दिया. 17तब उसने अपनी पकाई स्वादिष्ट मांस को और रोटी लेकर याकोब को दी.

18अपने पिता के पास जाकर याकोब ने कहा, “पिताजी.”

यित्सहाक ने उत्तर दिया, “हां बेटा, कौन हो तुम?”

19याकोब ने अपने पिता को उत्तर दिया, “मैं आपका बड़ा बेटा एसाव हूं. मैंने वह सब किया है, जैसा आपने कहा था. कृपया बैठिये और मेरे शिकार से पकाया भोजन कीजिये और मुझे अपनी आशीष दीजिये.”

20यित्सहाक ने अपने पुत्र से पूछा, “मेरे पुत्र, यह तुम्हें इतनी जल्दी कैसे मिल गया?”

याकोब ने कहा, “याहवेह आपके परमेश्वर ने मुझे सफलता दी.”

21तब यित्सहाक ने याकोब से कहा, “हे मेरे पुत्र, मेरे पास आ, ताकि मैं तुम्हें छूकर जान सकूं कि तू सही में मेरा पुत्र एसाव है या नहीं.”

22तब याकोब अपने पिता यित्सहाक के पास गया, जिसने उसे छुआ और कहा, “आवाज तो याकोब की है किंतु हाथ एसाव के हाथ जैसे हैं.” 23यित्सहाक ने उसे नहीं पहचाना, क्योंकि उसके हाथ में वैसे ही बाल थे जैसे एसाव के थे. इसलिए यित्सहाक उसे आशीष देने के लिए आगे बढ़ा. 24यित्सहाक ने पूछा, “क्या तू सही में मेरा पुत्र एसाव है?”

याकोब ने उत्तर दिया, “मैं हूं.”

25तब यित्सहाक ने कहा, “हे मेरे पुत्र, अपने शिकार से पकाये कुछ भोजन मेरे खाने के लिये ला, ताकि मैं तुम्हें अपनी आशीष दूं.”

याकोब अपने पिता के पास खाना लाया और उसने खाया; और वह दाखरस भी लाया और उसने पिया. 26तब उसके पिता यित्सहाक ने उससे कहा, “हे मेरे पुत्र, यहां आ और मुझे चूम.”

27इसलिये याकोब उसके पास गया और उसे चूमा. जब यित्सहाक को उसके कपड़ों से एसाव की गंध आई, इसलिये उसने उसे आशीष देते हुए कहा,

“मेरे बेटे की खुशबू

याहवेह की आशीष से

मैदान में फैल गई है.

28अब परमेश्वर तुम्हें आकाश की ओस,

पृथ्वी की अच्छी उपज तथा अन्‍न

और नये दाखरस से आशीषित करेंगे.

29सभी राष्ट्र तुम्हारी सेवा करेंगे,

जाति-जाति के लोग तुम्हारे सामने झुकेंगे,

तुम अपने भाइयों के ऊपर शासक होंगे;

तुम्हारी मां के पुत्र तुम्हारे सामने झुकेंगे.

जो तुम्हें शाप देंगे वे स्वयं शापित होंगे

और जो तुम्हें आशीष देंगे वे आशीष पायेंगे.”

30जैसे ही यित्सहाक याकोब को आशीष दे चुके तब उनका भाई एसाव शिकार करके घर आया. 31उन्होंने जल्दी स्वादिष्ट खाना तैयार किया और अपने पिता से कहा “पिताजी, उठिए और स्वादिष्ट खाना खाकर मुझे अपनी आशीष दीजिए.”

32उसके पिता यित्सहाक ने उनसे पूछा, “कौन हो तुम?” उसने कहा,

“मैं आपका बेटा हूं, आपका बड़ा बेटा एसाव.”

33यह सुन यित्सहाक कांपते हुए बोले, “तो वह कौन था, जो मेरे लिए भोजन लाया था? और मैंने उसे आशीषित भी किया, अब वह आशीषित ही रहेगा!”

34अपने पिता की ये बात सुनकर एसाव फूट-फूटकर रोने लगा और अपने पिता से कहा, “पिताजी, मुझे आशीष दीजिए, मुझे भी!”

35यित्सहाक ने कहा, “तुम्हारे भाई ने धोखा किया और आशीष ले ली.”

36एसाव ने कहा, “उसके लिए याकोब नाम सही नहीं है? दो बार उसने मेरे साथ बुरा किया: पहले उसने मेरे बड़े होने का अधिकार ले लिया और अब मेरी आशीष भी छीन ली!” तब एसाव ने अपने पिता से पूछा, “क्या आपने मेरे लिए एक भी आशीष नहीं बचाई?”

37यित्सहाक ने एसाव से कहा, “मैं तो उसे तुम्हारा स्वामी बना चुका हूं. और सभी संबंधियों को उसका सेवक बनाकर उसे सौंप दिया और उसे अन्‍न एवं नये दाखरस से भरे रहने की आशीष दी हैं. अब मेरे पुत्र, तुम्हारे लिए मैं क्या करूं?”

38एसाव ने अपने पिता से पूछा, “पिताजी, क्या आपके पास मेरे लिए एक भी आशीष नहीं? और वह रोता हुआ कहने लगा कि पिताजी मुझे भी आशीष दीजिए!”

39तब यित्सहाक ने कहा,

“तुम्हारा घर अच्छी

उपज वाली भूमि पर हो

और उस पर आकाश से ओस गिरे.

40तुम अपनी तलवार की ताकत से जीवित रहोगे.

तुम अपने भाई की सेवा करोगे;

किंतु हां, किंतु तुम आज़ादी के लिए लड़ोगे,

और तुम अपने ऊपर पड़े

उसके प्रतिबन्ध को तोड़ फेंकोगे.”

41एसाव अपने भाई याकोब से नफ़रत करने लगा और मन में ऐसा सोचने लगा, “पिता की मृत्यु शोक के दिन नज़दीक है, उनके बाद मैं याकोब की हत्या कर दूंगा.”

42जब रेबेकाह को अपने बड़े बेटे की ये बातें बताई गईं तब उसने सेवक भेजकर अपने छोटे पुत्र याकूब को बुलवाकर उससे कहा, “तुम्हारे भाई एसाव के मन में तुम्हारे लिए बहुत नफ़रत हैं. सुनो, तुम्हारा भाई एसाव तुम्हें मारने का षड़्‍यंत्र कर रहा है. 43इसलिये तुम यहां से भागकर मेरे भाई लाबान के यहां चले जाओ. 44वहां जाकर कुछ समय रहो, जब तक तुम्हारे भाई का गुस्सा खत्म न हो जाए. 45जब तुम्हारे भाई का गुस्सा खत्म होगा, और भूल जायेगा कि तुमने उसके साथ क्या किया, तब मैं तुम्हें वहां से बुला लूंगी. मैं एक ही दिन तुम दोनों को क्यों खो दूं?”

46एक दिन रेबेकाह ने यित्सहाक से कहा, “हेथ की इन पुत्रियों ने मेरा जीवन दुःखी कर दिया है. यदि याकोब भी हेथ की पुत्रियों में से किसी को, अपनी पत्नी बना लेगा तो मेरे लिए जीना और मुश्किल हो जाएगा?” इसलिये याकोब को उसके मामा के घर भेज दो.

New Amharic Standard Version

ዘፍጥረት 27:1-46

ይስሐቅ ያዕቆብን ባረከው

1ይስሐቅ አርጅቶ፣ ዐይኖቹ ደክመው ማየት በተሳናቸው ጊዜ፣ ታላቁን ልጁን ዔሳውን ጠርቶ፣ “ልጄ ሆይ” አለው።

እርሱም፣ “እነሆ፤ አለሁ” አለ።

2ይስሐቅም እንዲህ አለ፤ “ይኸው እኔ አርጅቻለሁ፤ የምሞትበትንም ቀን አላውቅም 3ስለዚህ የዐደን መሣሪያህን፦ የፍላጻ ኰረጆህንና ቀስትህን ይዘህ ወደ ዱር ሂድ፤ አድነህም አምጣልኝ። 4ከመሞቴ በፊት እንድመርቅህ የምወድደውን ዐይነት ጣዕም ያለው ምግብ አዘጋጅተህ አብላኝ።”

5ይስሐቅ ለልጁ የተናገረውን ርብቃ ትሰማ ስለ ነበር፣ ዔሳው የታዘዘውን ለማምጣት ለዐደን እንደ ወጣ፣ 6ርብቃ ለልጇ ለያዕቆብ እንዲህ አለችው፤ “አባትህ ዔሳውን፣ 7‘ከመሞቴ በፊት በእግዚአብሔር (ያህዌ) ፊት እንድመርቅህ፣ ጥሩ ጣዕም ያለው ምግብ እንድበላ አዘጋጅልኝ።’ ሲለው ሰምቻለሁ፤ 8ልጄ ሆይ፤ እንግዲህ የምነግርህን በጥሞና ስማኝ፤ የምልህንም አድርግ። 9ተነሣና ወደ መንጋው ሄደህ ሁለት ፍርጥም ያሉ የፍየል ጠቦቶች አምጣልኝ፤ እኔም አባትህ የሚወድደውን ዐይነት ምግብ አዘጋጅለታለሁ፤ 10እርሱም ከመሞቱ በፊት እንዲመርቅህ ይዘህለት ግባና ይብላ።”

11ያዕቆብም እናቱን ርብቃን እንዲህ አላት፤ “ወንድሜ ዔሳው ሰውነቱ ጠጕራም ነው፤ የእኔ ገላ ግን ለስላሳ ነው። 12ታዲያ፣ አባቴ ቢዳስሰኝ እንዳታለልሁት ያውቃል፤ ይህ ከሆነ ደግሞ፣ በምርቃት ፈንታ ርግማን አተርፋለሁ ማለት ነው።”

13እናቱም፣ “ልጄ ሆይ፤ የአንተ ርግማን በእኔ ላይ ይድረስ፤ ግድ የለህም፤ እንደ ነገርሁህ ሄደህ ጠቦቶቹን አምጣልኝ” አለችው።

14እርሱም ሄዶ ጠቦቶቹን ለእናቱ አመጣላት፤ እርሷም ልክ አባቱ እንደሚወድደው ዐይነት አጣፍጣ ጥሩ ምግብ አዘጋጀችለት። 15ከዚያም ርብቃ በቤት ያስቀመጠችውን የታላቁን ልጇን የዔሳውን ምርጥ ልብስ አንሥታ ለታናሹ ልጇ ለያዕቆብ አለበሰችው። 16እንዲሁም የዐንገቱን ለስላሳ ክፍል የጠቦቶቹን ቈዳ አለበሰችው። 17ከዚያም ያሰናዳችውን ጣፋጭ መብልና እንጀራ ለያዕቆብ ሰጠችው።

18ያዕቆብም ወደ አባቱ ሄዶ፣ “አባቴ ሆይ” አለ፤ ይስሐቅም፣ “እነሆ፤ አለሁ ልጄ፤ ለመሆኑ አንተ ማን ነህ?” አለው።

19ያዕቆብም አባቱን፣ “እኔ የበኵር ልጅህ ዔሳው ነኝ፤ ያዘዝኸኝን አድርጌአለሁ፤ እስቲ ቀና በልና እንድትመርቀኝ ዐድኜ ካመጣሁት ብላ” አለ።

20ይስሐቅ ልጁን፣ “ልጄ ሆይ፤ ከመቼው ቀንቶህ መጣህ?” ሲል ጠየቀው። ያዕቆብም፣ “እግዚአብሔር አምላክህ (ያህዌ ኤሎሂም) አሳካልኝ” ብሎ መለሰለት።

21ይስሐቅም ያዕቆብን፣ “ልጄ ሆይ፤ አንተ በርግጥ ልጄ ዔሳው መሆንህን እንዳውቅ፣ እስቲ ቀረብ በልና ልዳብስህ” አለው።

22ያዕቆብም ወደ አባቱ ወደ ይስሐቅ ተጠጋ፤ አባቱም በእጁ እየዳሰሰው፣ “ይህ ድምፅ የያዕቆብ ድምፅ ነው፤ እጆቹ ግን የዔሳው እጆች ናቸው” አለ። 23እጆቹ እንደ ወንድሙ እንደ ዔሳው እጆች ጠጕራም ስለ ሆኑ፣ ይስሐቅ ያዕቆብን ለይቶ ማወቅ አልቻለም፤ ስለዚህ ባረከው። 24ይስሐቅም፣ “በርግጥ አንተ ልጄ ዔሳው ነህ?” ሲል ጠየቀው። ያዕቆብም፣ “አዎን፤ ነኝ” ብሎ መለሰ።

25ከዚያም፣ “በል እንግዲህ ልጄ፤ እንድመርቅህ፣ ዐድነህ ካመጣኸው አቅርብልኝና ልብላ” አለው።

ያዕቆብም ምግቡን ለአባቱ አቀረበለት፤ የወይን ጠጅም አመጣለት፤ እርሱም በላ፤ ጠጣም። 26ከዚያም አባቱ ይስሐቅ፣ ያዕቆብን፣ “ልጄ ሆይ፤ እስቲ ቀረብ በልና ሳመኝ” አለው።

27ያዕቆብም ቀርቦ ሳመው፤ ይስሐቅ የያዕቆብን ልብስ ካሸተተ በኋላ እንዲህ ብሎ መረቀው፤

“እነሆ፤ የልጄ ጠረን፣

እግዚአብሔር (ያህዌ) እንደ ባረከው፣

እንደ መስክ መዐዛ ነው።

28እግዚአብሔር (ኤሎሂም) የሰማይን ጠል፣

የምድርንም በረከት፣

የተትረፈረፈ እህልና የወይን ጠጅ ይስጥህ።

29መንግሥታት ይገዙልህ፤

ሕዝቦችም ተደፍተው እጅ ይንሡህ፤

የወንድሞችህ ጌታ ሁን፤

የእናትህም ልጆች ተደፍተው እጅ ይንሡህ፤

የሚረግሙህ የተረገሙ ይሁኑ፤

የሚባርኩህ የተባረኩ ይሁኑ።”

30ይስሐቅ ያዕቆብን መርቆ እንዳበቃ፣ ያዕቆብ ገና ከአባቱ ዘንድ ሳይወጣ ወዲያውኑ፣ ወንድሙ ዔሳው ከዐደን ተመለሰ። 31እርሱም ደግሞ ጣፋጭ ምግብ በማዘጋጀት ለአባቱ አቅርቦ፣ “አባቴ ሆይ፤ እንድትመርቀኝ፣ እስቲ ቀና በልና ካደንሁት ብላ” አለው።

32አባቱ ይስሐቅም፣ “አንተ ደግሞ ማን ነህ?” ሲል ጠየቀው። እርሱም፣ “እኔማ የበኵር ልጅህ ዔሳው ነኝ” አለው።

33በዚህ ጊዜ ይስሐቅ ክፉኛ እየተንቀጠቀጠ፣ “ታዲያ ቀደም ሲል ዐድኖ ያመጣልኝ ማን ነበር? አንተ ከመምጣትህ በፊት በልቼ መረቅሁት፤ እርሱም በርግጥ የተባረከ ይሆናል” አለው።

34ዔሳው የአባቱን ቃል ሲሰማ፣ ድምፁን ከፍ በማድረግ ምርር ብሎ አለቀሰ፤ አባቱንም፣ “አባቴ ሆይ፤ እኔንም ደግሞ እባክህ መርቀኝ” አለው።

35ይስሐቅም፣ “ወንድምህ መጥቶ አታልሎኝ ምርቃትህን ወስዶብሃል” አለው።

36ዔሳውም፣ “ይህ ሰው ያዕቆብ መባሉ ትክክል አይደለምን? እኔን ሲያታልለኝ ይህ ሁለተኛ ጊዜው ነው፤ መጀመሪያ ብኵርናዬን ወሰደብኝ፤ አሁን ደግሞ ምርቃቴን ቀማኝ” አለ። ቀጥሎም፣ “ታዲያ ለእኔ ያስቀረኸው ምንም ምርቃት የለም?” ብሎ ጠየቀ።

37ይስሐቅም ለዔሳው፣ “በአንተ ላይ የበላይነት እንዲኖረው፣ ወንድሞቹ ሁሉ አገልጋዮቹ እንዲሆኑ፣ እህሉ፣ የወይን ጠጁም የተትረፈረፈ እንዲሆንለት መርቄዋለሁ። ታዲያ ልጄ፣ ለአንተ ምን ላደርግልህ እችላለሁ?” ሲል መለሰለት።

38ዔሳውም አባቱን፣ “አባቴ ሆይ፤ ምርቃትህ ይህችው ብቻ ናትን? እባክህ አባቴ፣ እኔንም መርቀኝ” አለው፤ ድምፁንም ከፍ አድርጎ አለቀሰ።

39አባቱ ይስሐቅም እንዲህ ሲል መለሰለት፤

“መኖሪያህ

ከምድር በረከት፣

ከላይም ከሰማይ ጠል የራቀ ይሆናል፤

40በሰይፍ ትኖራለህ፤

የወንድምህም አገልጋይ ትሆናለህ።

አምርረህ በተነሣህ ጊዜ ግን፣

ቀንበሩን ከጫንቃህ ላይ፣

ወዲያ ትጥላለህ።”

ያዕቆብ ወደ ላባ ሸሸ

41አባቱ ያቆብን ስለ መረቀው፣ ዔሳው በያዕቆብ ላይ ቂም ያዘ፤ በልቡም፣ “ግድ የለም፤ የአባቴ መሞቻው ተቃርቧል፤ ከልቅሶው በኋላ ወንድሜን ያዕቆብን እገድላለሁ” ብሎ ዐሰበ።

42ርብቃ፣ ታላቁ ልጇ ዔሳው ያሰበው በተነገራት ጊዜ ታናሹን ልጇን ያዕቆብን አስጠርታ እንዲህ አለችው፤ “ወንድምህ ዔሳው ሊገድልህ ጊዜ እየጠበቀ ነው፤ 43አሁንም፣ ልጄ ሆይ፤ እኔ የምልህን አድርግ፤ በካራን ምድር ወደሚኖረው ወደ ላባ ቶሎ ሽሽ። 44የወንድምህ ቍጣ እስከሚበርድ እዚያው ቈይ፤ 45ነገር ግን ቍጣው በርዶለት ያደረግህበትን ከረሳ በኋላ፣ እንድትመለስ እልክብህና ትመጣለህ። ሁለታችሁንም በአንድ ቀን ለምን ልጣ?”

46ከዚያም ርብቃ ይስሐቅን፣ “ዔሳው ባገባቸው በኬጢያውያን ሴቶች ምክንያት መኖር አስጠልቶኛል፤ ያዕቆብም ከዚሁ አገር ከኬጢያውያን ሴቶች ሚስት የሚያገባ ከሆነ፣ ሞቴን እመርጣለሁ” አለችው።