詩篇 104 – CCBT & HCV

Chinese Contemporary Bible (Traditional)

詩篇 104:1-35

第 104 篇

稱頌創造主——上帝

1我的心啊,要稱頌耶和華。

我的上帝耶和華啊,

你是多麼偉大!

你以尊貴和威嚴為衣,

2你身披光華如披外袍,

你鋪展穹蒼如鋪幔子。

3你在水中設立自己樓閣的棟樑。

你以雲彩為車駕,乘風飛馳。

4風是你的使者,

火焰是你的僕役。

5你奠立大地的根基,

使它永不動搖。

6你以深水為衣覆蓋大地,

淹沒群山。

7你一聲怒叱,眾水便奔逃;

你一聲雷鳴,眾水就奔流,

8漫過山巒,流進山谷,

歸到你指定的地方。

9你為眾水劃定不可逾越的界線,

以免大地再遭淹沒。

10耶和華使泉水湧流在谷地,

奔騰在山間,

11讓野地的動物有水喝,

野驢可以解渴。

12飛鳥也在溪旁棲息,

在樹梢上歌唱。

13祂從天上的樓閣降雨在山間,

大地因祂的作為而豐美富饒。

14祂使綠草如茵,滋養牲畜,

讓人種植作物,

享受大地的出產,

15有沁人心懷的醇酒、

滋潤容顏的膏油、

增強活力的五穀。

16耶和華種植了黎巴嫩的香柏樹,

使它們得到充沛的水源,

17鳥兒在樹上築巢,

鸛鳥在松樹上棲息。

18高山是野山羊的住處,

峭壁是石獾的藏身之所。

19你命月亮定節令,

使太陽自知西沉。

20你造黑暗,定為夜晚,

作林中百獸出沒的時間。

21壯獅吼叫著覓食,

尋找上帝所賜的食物。

22太陽升起,

百獸便退回自己的洞窟中休息,

23人們外出工作,直到黃昏。

24耶和華啊,你的創造多麼繁多!

你用智慧造了這一切,

大地充滿了你創造的萬物。

25汪洋浩瀚,

充滿了無數的大小水族,

26船隻往來於海上,

你造的鯨魚也在水中嬉戲。

27牠們都倚靠你按時供應食物。

28牠們從你那裡得到供應,

你伸手賜下美食,

使牠們飽足。

29你若對牠們棄而不顧,

牠們會驚慌失措。

你一收回牠們的氣息,

牠們便死亡,歸於塵土。

30你一吹氣便創造了牠們,

你使大地更新。

31願耶和華的榮耀存到永遠!

願耶和華因自己的創造而歡欣!

32祂一看大地,大地就震動;

祂一摸群山,群山就冒煙。

33我要一生一世向耶和華歌唱,

我一息尚存就要讚美上帝。

34願祂喜悅我的默想,

祂是我喜樂的泉源。

35願罪人從地上消逝,

願惡人蕩然無存。

我的心啊,要稱頌耶和華!

你們要讚美耶和華!

Hindi Contemporary Version

स्तोत्र 104:1-35

स्तोत्र 104

1मेरे प्राण, याहवेह का स्तवन करो.

याहवेह, मेरे परमेश्वर, अत्यंत महान हैं आप;

वैभव और तेज से विभूषित हैं आप.

2आपने ज्योति को वस्त्र समान धारण किया हुआ है;

आपने वस्त्र समान आकाश को विस्तीर्ण किया है.

3आपने आकाश के जल के ऊपर ऊपरी कक्ष की धरनें स्थापित की हैं,

मेघ आपके रथ हैं

तथा आप पवन के पंखों पर यात्रा करते हैं.

4हवा को आपने अपना संदेशवाहक बनाया है,

अग्निशिखाएं आपकी परिचारिकाएं हैं.

5आपने ही पृथ्वी को इसकी नींव पर स्थापित किया है;

इसे कभी भी सरकाया नहीं जा सकता.

6आपने गहन जल के आवरण से इसे परिधान समान सुशोभित किया;

जल स्तर पर्वतों से ऊंचा उठ गया था.

7किंतु जब आपने फटकार लगाई, तब जल हट गया,

आपके गर्जन समान आदेश से जल-राशियां भाग खड़ी हुई;

8जब पर्वतों की ऊंचाई बढ़ी,

तो घाटियां गहरी होती गईं,

ठीक आपके नियोजन के अनुरूप निर्धारित स्थान पर.

9आपके द्वारा उनके लिए निर्धारित सीमा ऐसी थी;

जिसका अतिक्रमण उनके लिए संभव न था; और वे पृथ्वी को पुनः जलमग्न न कर सकें.

10आप ही के सामर्थ्य से घाटियों में झरने फूट पड़ते हैं;

और पर्वतों के मध्य से जलधाराएं बहने लगती हैं.

11इन्हीं से मैदान के हर एक पशु को पेय जल प्राप्‍त होता है;

तथा वन्य गधे भी प्यास बुझा लेते हैं.

12इनके तट पर आकाश के पक्षियों का बसेरा होता है;

शाखाओं के मध्य से उनकी आवाज निकलती है.

13वही अपने आवास के ऊपरी कक्ष से पर्वतों की सिंचाई करते हैं;

आप ही के द्वारा उपजाए फलों से पृथ्वी तृप्‍त है.

14वह पशुओं के लिए घास उत्पन्‍न करते हैं,

तथा मनुष्य के श्रम के लिए वनस्पति,

कि वह पृथ्वी से आहार प्राप्‍त कर सके:

15मनुष्य के हृदय मगन करने के निमित्त द्राक्षारस,

मुखमंडल को चमकीला करने के निमित्त तेल,

तथा मनुष्य के जीवन को संभालने के निमित्त आहार उत्पन्‍न होता है.

16याहवेह द्वारा लगाए वृक्षों के लिए अर्थात् लबानोन में

लगाए देवदार के वृक्षों के लिए जल बड़ी मात्रा में होता है.

17पक्षियों ने इन वृक्षों में अपने घोंसले बनाए हैं;

सारस ने अपना घोंसला चीड़ के वृक्ष में बनाया है.

18ऊंचे पर्वतों में वन्य बकरियों का निवास है;

चट्टानों में चट्टानी बिज्जुओं ने आश्रय लिया है.

19आपने नियत समय के लिए चंद्रमा बनाया है,

सूर्य को अपने अस्त होने का स्थान ज्ञात है.

20आपने अंधकार का प्रबंध किया, कि रात्रि हो,

जिस समय वन्य पशु चलने फिरने को निकल पड़ते हैं.

21अपने शिकार के लिए पुष्ट सिंह गरजनेवाले हैं,

वे परमेश्वर से अपने भोजन खोजते हैं.

22सूर्योदय के साथ ही वे चुपचाप छिप जाते हैं;

और अपनी-अपनी मांदों में जाकर सो जाते हैं.

23इस समय मनुष्य अपने-अपने कार्यों के लिए निकल पड़ते हैं,

वे संध्या तक अपने कार्यों में परिश्रम करते रहते हैं.

24याहवेह! असंख्य हैं आपके द्वारा निष्पन्‍न कार्य,

आपने अपने अद्भुत ज्ञान में इन सब की रचना की है;

समस्त पृथ्वी आपके द्वारा रचे प्राणियों से परिपूर्ण हो गई है.

25एक ओर समुद्र है, विस्तृत और गहरा,

उसमें भी असंख्य प्राणी चलते फिरते हैं—

समस्त जीवित प्राणी हैं, सूक्ष्म भी और विशालकाय भी.

26इसमें जलयानों का आगमन होता रहता है,

साथ ही इसमें विशालकाय जंतु हैं, लिवयाथान104:26 बड़ा मगरमच्छ हो सकता है, जिसे आपने समुद्र में खेलने के लिए बनाया है.

27इन सभी की दृष्टि आपकी ओर इसी आशा में लगी रहती है,

कि इन्हें आपकी ओर से उपयुक्त अवसर पर आहार प्राप्‍त होगा.

28जब आप उन्हें आहार प्रदान करते हैं,

वे इसे एकत्र करते हैं;

जब आप अपनी मुट्ठी खोलते हैं,

उन्हें उत्तम वस्तुएं प्राप्‍त हो जाती हैं.

29जब आप उनसे अपना मुख छिपा लेते हैं,

वे घबरा जाते हैं;

जब आप उनकी श्वास छीन लेते हैं,

उनके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं और वे उसी धूलि में लौट जाते हैं.

30जब आप अपना पवित्रात्मा प्रेषित करते हैं,

उनका उद्भव होता है,

उस समय आप पृथ्वी के स्वरूप को नया बना देते हैं.

31याहवेह का तेज सदा-सर्वदा स्थिर रहे;

याहवेह की कृतियां उन्हें प्रफुल्लित करती रहें.

32जब वह पृथ्वी की ओर दृष्टिपात करते हैं, वह थरथरा उठती है,

वह पर्वतों का स्पर्श मात्र करते हैं और उनसे धुआं उठने लगता है.

33मैं आजीवन याहवेह का गुणगान करता रहूंगा;

जब तक मेरा अस्तित्व है, मैं अपने परमेश्वर का स्तवन गान करूंगा.

34मेरा मनन-चिन्तन उनको प्रसन्‍न करनेवाला हो,

क्योंकि याहवेह मेरे परम आनंद का उगम हैं.

35पृथ्वी से पापी समाप्‍त हो जाएं,

दुष्ट फिर देखे न जाएं.

मेरे प्राण, याहवेह का स्तवन करो.

याहवेह का स्तवन हो.